आचार्य चतुरसेन शास्त्री
आचार्य चतुरसेन शास्त्री (26 अगस्त 1891 – 2 फ़रवरी 1960) हिन्दी भाषा के एक महान उपन्यासकार थे। इनका अधिकतर लेखन ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित है। इनकी प्रमुख कृतियां गोली, सोमनाथ, वयं रक्षामः और वैशाली की नगरवधू इत्यादि हैं। 'आभा', इनकी पहली रचना थी। उनका मूल नाम चतुर्भुज था। उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव के पास स्थित सिकन्दराबाद के एक स्कूल में समाप्त की। फिर उन्होंने राजस्थान के जयपुर के संस्कृत कॉलेज में प्रवेश किया। यहाँ से उन्होंने सन १९१५ में आयुर्वेद में आयुर्वेदाचार्य तथा संस्कृत में शास्त्री की उपाधि प्राप्त की। उन्होंने आयुर्वेद विद्यापीठ से आयुर्वेदाचार्य की उपाधि भी प्राप्त की। चतुरसेन बहुत ही भावुक, संवेदनशील और स्वाभिमानी प्रकृति के थे। दीन-दुखियों तथा रोगियों के प्रति उनके मन में असाधारण करुणा भाव था। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद वे आयुर्वेदिक चिकित्सक के रूप में कार्य करने के लिए दिल्ली आ गए। उन्होंने दिल्ली में अपनी खुद की आयुर्वेदिक डिस्पेंसरी खोली, लेकिन यह अच्छी तरह से नहीं चला और इसे बन्द करना पड़ा। इसके कारण आर्थिक स्थिति इतनी अधिक बिगड़ी कि उन्हें अपनी पत्नी के जेवर तक बेचने पड़े। अब वह प्रति माह 25 रुपये के वेतन पर एक अमीर आदमी के धर्मार्थ औषधालय में शामिल हो गए। सन 1917 में, वे डीएवी कॉलेज, लाहौर में आयुर्वेद के वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में शामिल हुए। यहाँ का प्रबन्धन उनका अपमान कर रहा था, इसलिए, उन्होंने इस्तीफा दे दिया और अपने ससुर के कल्याण औषधालय में मदद करने के लिए अजमेर आ गए। इस औषधालय में काम करते हुए उनकी आर्थिक स्थिति बेहतर हो गयी। उन्होंने लिखना शुरू किया और जल्द ही एक कहानीकार और उपन्यासकार के रूप में प्रसिद्ध हो गए। यह बचपन से ही आर्य समाज से प्रभावित थे और इन्होंने अनाज मंडी शाहदरा का घर दिल्ली पब्लिक लाइब्रेरी बोर्ड को दान कर दिया था, जिसमें आजकल विशाल लाइब्रेरी है।
दुखवा मैं कासे कहूँ मोरी सजनी
Featured

बादशाह दो दिन से शिकार को गए थे। आज इतनी रात हो गई, अभी तक नहीं आए। सलीमा चाँदनी में दूर तक आँखें बिछाए सवारों की गर्द देखती रही। आखिर उससे न रहा गया, वह खिड़की से उठकर, अनमनी-सी होकर मसनद पर आ बैठी। उम्र ओर चिन्ता की गर्मी जब उससे सहन न हुई, तब उसने अपनी चिकन की ओढ़नी भी उतार फेंकी और आप ही आप झुँझलाकर बोली - 'कुछ भी अच्छा नहीं लगता। अब क्या करूँ?' इसके बाद उसने पास रक्खी बीन उठा ली। दो-चार उँगली चलाई, मगर स्वर न मिला। भुनभुनाकर कहा - 'मर्दों की तरह यह भी मेरे वश में नहीं है।' सलीमा ने उकताकर उसे रखकर दस्तक दी। एक बाँदी दस्तबस्ता हाजिर हुई।