सोरठा

कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन।
सखि सबु करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ ॥३११॥
चौपाला

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । आनँद उमगि उमगि उर भरहीं ॥
जे नृप सीय स्वयंबर आए । देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए ॥
कहत राम जसु बिसद बिसाला । निज निज भवन गए महिपाला ॥
गए बीति कुछ दिन एहि भाँती । प्रमुदित पुरजन सकल बराती ॥
मंगल मूल लगन दिनु आवा । हिम रितु अगहनु मासु सुहावा ॥
ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू । लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू ॥
पठै दीन्हि नारद सन सोई । गनी जनक के गनकन्ह जोई ॥
सुनी सकल लोगन्ह यह बाता । कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता ॥

दोहा

धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल।
बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकुल ॥३१२॥

चौपाला
उपरोहितहि कहेउ नरनाहा । अब बिलंब कर कारनु काहा ॥
सतानंद तब सचिव बोलाए । मंगल सकल साजि सब ल्याए ॥
संख निसान पनव बहु बाजे । मंगल कलस सगुन सुभ साजे ॥
सुभग सुआसिनि गावहिं गीता । करहिं बेद धुनि बिप्र पुनीता ॥
लेन चले सादर एहि भाँती । गए जहाँ जनवास बराती ॥
कोसलपति कर देखि समाजू । अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू ॥
भयउ समउ अब धारिअ पाऊ । यह सुनि परा निसानहिं घाऊ ॥
गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा । चले संग मुनि साधु समाजा ॥

दोहा

भाग्य बिभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि।
लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि ॥३१३॥

चौपाला
सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना । बरषहिं सुमन बजाइ निसाना ॥
सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा । चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा ॥
प्रेम पुलक तन हृदयँ उछाहू । चले बिलोकन राम बिआहू ॥
देखि जनकपुरु सुर अनुरागे । निज निज लोक सबहिं लघु लागे ॥
चितवहिं चकित बिचित्र बिताना । रचना सकल अलौकिक नाना ॥
नगर नारि नर रूप निधाना । सुघर सुधरम सुसील सुजाना ॥
तिन्हहि देखि सब सुर सुरनारीं । भए नखत जनु बिधु उजिआरीं ॥
बिधिहि भयह आचरजु बिसेषी । निज करनी कछु कतहुँ न देखी ॥

दोहा

सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु।
हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु ॥३१४॥

चौपाला
जिन्ह कर नामु लेत जग माहीं । सकल अमंगल मूल नसाहीं ॥
करतल होहिं पदारथ चारी । तेइ सिय रामु कहेउ कामारी ॥
एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा । पुनि आगें बर बसह चलावा ॥
देवन्ह देखे दसरथु जाता । महामोद मन पुलकित गाता ॥
साधु समाज संग महिदेवा । जनु तनु धरें करहिं सुख सेवा ॥
सोहत साथ सुभग सुत चारी । जनु अपबरग सकल तनुधारी ॥
मरकत कनक बरन बर जोरी । देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी ॥
पुनि रामहि बिलोकि हियँ हरषे । नृपहि सराहि सुमन तिन्ह बरषे ॥

दोहा

राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि।
पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि ॥३१५॥

चौपाला
केकि कंठ दुति स्यामल अंगा । तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा ॥
ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए । मंगल सब सब भाँति सुहाए ॥
सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन । नयन नवल राजीव लजावन ॥
सकल अलौकिक सुंदरताई । कहि न जाइ मनहीं मन भाई ॥
बंधु मनोहर सोहहिं संगा । जात नचावत चपल तुरंगा ॥
राजकुअँर बर बाजि देखावहिं । बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं ॥
जेहि तुरंग पर रामु बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे ॥
कहि न जाइ सब भाँति सुहावा । बाजि बेषु जनु काम बनावा ॥

छंद

जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई।
आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई ॥
जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे।
किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे ॥

दोहा

प्रभु मनसहिं लयलीन मनु चलत बाजि छबि पाव।
भूषित उड़गन तड़ित घनु जनु बर बरहि नचाव ॥३१६॥

चौपाला
जेहिं बर बाजि रामु असवारा । तेहि सारदउ न बरनै पारा ॥
संकरु राम रूप अनुरागे । नयन पंचदस अति प्रिय लागे ॥
हरि हित सहित रामु जब जोहे । रमा समेत रमापति मोहे ॥
निरखि राम छबि बिधि हरषाने । आठइ नयन जानि पछिताने ॥
सुर सेनप उर बहुत उछाहू । बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू ॥
रामहि चितव सुरेस सुजाना । गौतम श्रापु परम हित माना ॥
देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं । आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं ॥
मुदित देवगन रामहि देखी । नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी ॥

छंद

अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभीं बाजहिं घनी।
बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनी ॥
एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं।
रानि सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं ॥

दोहा

सजि आरती अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि।
चलीं मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि ॥३१७॥

चौपाला
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि । सब निज तन छबि रति मदु मोचनि ॥
पहिरें बरन बरन बर चीरा । सकल बिभूषन सजें सरीरा ॥
सकल सुमंगल अंग बनाएँ । करहिं गान कलकंठि लजाएँ ॥
कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं । चालि बिलोकि काम गज लाजहिं ॥
बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा । नभ अरु नगर सुमंगलचारा ॥
सची सारदा रमा भवानी । जे सुरतिय सुचि सहज सयानी ॥
कपट नारि बर बेष बनाई । मिलीं सकल रनिवासहिं जाई ॥
करहिं गान कल मंगल बानीं । हरष बिबस सब काहुँ न जानी ॥

छंद

को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली।
कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली ॥
आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई ॥
अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई ॥

दोहा

जो सुख भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु।
सो न सकहिं कहि कलप सत सहस सारदा सेषु ॥३१८॥

चौपाला
नयन नीरु हटि मंगल जानी । परिछनि करहिं मुदित मन रानी ॥
बेद बिहित अरु कुल आचारू । कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू ॥
पंच सबद धुनि मंगल गाना । पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना ॥
करि आरती अरघु तिन्ह दीन्हा । राम गमनु मंडप तब कीन्हा ॥
दसरथु सहित समाज बिराजे । बिभव बिलोकि लोकपति लाजे ॥
समयँ समयँ सुर बरषहिं फूला । सांति पढ़हिं महिसुर अनुकूला ॥
नभ अरु नगर कोलाहल होई । आपनि पर कछु सुनइ न कोई ॥
एहि बिधि रामु मंडपहिं आए । अरघु देइ आसन बैठाए ॥

छंद

बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं ॥
मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं ॥
ब्रह्मादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं।
अवलोकि रघुकुल कमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं ॥

दोहा

नाऊ बारी भाट नट राम निछावरि पाइ।
मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ ॥३१९॥

चौपाला
मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं । करि बैदिक लौकिक सब रीतीं ॥
मिलत महा दोउ राज बिराजे । उपमा खोजि खोजि कबि लाजे ॥
लही न कतहुँ हारि हियँ मानी । इन्ह सम एइ उपमा उर आनी ॥
सामध देखि देव अनुरागे । सुमन बरषि जसु गावन लागे ॥
जगु बिरंचि उपजावा जब तें । देखे सुने ब्याह बहु तब तें ॥
सकल भाँति सम साजु समाजू । सम समधी देखे हम आजू ॥
देव गिरा सुनि सुंदर साँची । प्रीति अलौकिक दुहु दिसि माची ॥
देत पाँवड़े अरघु सुहाए । सादर जनकु मंडपहिं ल्याए ॥

छंद

मंडपु बिलोकि बिचीत्र रचनाँ रुचिरताँ मुनि मन हरे ॥
निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे ॥
कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही।
कौसिकहि पूजत परम प्रीति कि रीति तौ न परै कही ॥

दोहा

बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस।
दिए दिब्य आसन सबहि सब सन लही असीस ॥३२०॥

चौपाला
बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा । जानि ईस सम भाउ न दूजा ॥
कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई । कहि निज भाग्य बिभव बहुताई ॥
पूजे भूपति सकल बराती । समधि सम सादर सब भाँती ॥
आसन उचित दिए सब काहू । कहौं काह मूख एक उछाहू ॥
सकल बरात जनक सनमानी । दान मान बिनती बर बानी ॥
बिधि हरि हरु दिसिपति दिनराऊ । जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ ॥
कपट बिप्र बर बेष बनाएँ । कौतुक देखहिं अति सचु पाएँ ॥
पूजे जनक देव सम जानें । दिए सुआसन बिनु पहिचानें ॥

छंद

पहिचान को केहि जान सबहिं अपान सुधि भोरी भई।
आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनँद मई ॥
सुर लखे राम सुजान पूजे मानसिक आसन दए।
अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए ॥

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