नाटे कद की तनिक मोटी और तोतली रज्जो

नाटे कद की तनिक मोटी और तोतली रज्जो को हमारे मोहल्ले में सारे लज्जो कह कर पुकारते. एक दुर्घटना में उसके बाबू रेल के नीचे कटकर मर गए थे सो रज्जो छठी से आगे न पढ़ सकी. अकेली औरत के लिए बेटी शादी का इज्जत भर दहेज़ इकठ्ठा कर सकना कितना भारी बोझ होता है कोई रज्जो की माँ से पूछ कर देखता उन दिनों!

मोहल्ले के आधा दर्जन घरों में झाड़ू-पोंछा करने वाली माँ ने रज्जो को भी एक घर में महरी के काम पर लगा दिया. तीन-चार साल बाद जस-तस दूल्हा मिला. क्या हुआ जो प्रतापसिंह सत्रह साल की रज्जो से इक्कीस साल बड़ा था. कालाढूंगी में अपना घर था, गुड़ पेरने-बेचने का काम था. रानी की तरह रखेगा रज्जो को.

रज्जो हमेशा खिलखिलाती रहती थी. सारे मोहल्ले की प्यारी थी. सारे मोहल्ले की बेटी थी. रज्जो मुझे मामा कहती थी. कभी कभार जब हमारे घर में बहुत ज्यादा काम होता तो दोनों माँ-बेटी को बुला लिया जाता. कुशल हाथों से सारे काम चट से निबटा देने वाली रज्जो कभी मेरे कमरे में आ कर कम्प्यूटर के सामने आकर खड़ी हो जाती और पूछती, “मामा ये मछीन बोलती कैछे है दिखाओ?” 

मैं उसे किसी फ़िल्मी गीत का वीडियो दिखा देता वह खुशी से पगला जाती. दांतों में दुपट्टा दबाये मुस्कराती हुई कहती, “हमतो तो दूई तावला अत्ती लगती है मामा. उतका गाना दिखाओ ना वोई उत दिन वाला.” 

कभी ऐसे ही कहती, “मामा बिदेश जाओगे तो मेरे लिए एक खूब सुन्दल मामी लाना. मैं उतके सात अंगलेजी में बात कलूँगी. हैल्लो मित्तल हाउ डू डू डू ...” 

उसे झूठमूठ चपत लगाने को उठता तो वह र खिलखिल करती बाहर भाग जाती और सामने वाले घर में घुसती हुई जीभ निकाल कर चिढ़ाती – “हैल्लो मित्तल हाउ डू डू डू ... हैल्लो मित्तल हाउ डू डू डू ...!”

सारे मोहल्ले ने रज्जो की शादी के लिए मदद की. प्रौढ़ होते दूल्हे प्रतापसिंह और उसके बारातियों की खूब खातिर हुई. दहेज़ में टीवी, साइकिल और बक्सा दिया उसकी माँ ने. 

कलपती-रोती माँ को अकेला छोड़ रज्जो विदा हो कर कालाढूंगी अपनी ससुराल चली गयी. अगले तीन महीने रज्जो की माँ के जीवन का स्वर्णयुग थे. 

“रज्जो के ससुराल में तीन कमरे हैं.”

“रानी बना के रखने वाला हुआ परताप सिंग मेरी रज्जो को!”

“इस साल साठ हजार का फ़ायदा कमाया बल परताप सिंग ने”

“रज्जो की चिठ्ठी आई है” 

“रज्जो के लिए हीरे की फुल्ली बनाई है परताप सिंग ने” 
 
रज्जो-रज्जो-रज्जो! सारा मोहल्ला रज्जो की कहानियां सुन-सुन कर अघा गया. 

तीन महीने बाद अचानक पता नहीं क्या हुआ कि रज्जो वापस आ गयी. रज्जो की माँ के किस्सों को विराम लग गया और वह बीमार पड़ गई. अफवाह उड़ी प्रताप ने रज्जो को छोड़ दिया है. अफवाह उड़ी प्रताप शराब पीकर रज्जो को बहुत पीटता था. 

एक दिन सुबह मैंने देखा रज्जो हमारे घर झाडू-पोंछा कर रही है. सलवार-कमीज पहनने वाली रज्जो धोती पहने हुए तीन ही महीनों में अपनी माँ जितनी बूढ़ी दिखने लगी थी. उसे देखते ही मन अजीब हो आया.

उसने पैर छुए. 

“कैसी है लज्जो!” यह उसे चिढ़ाने का मेरा तरीका होता था. 

वह कुछ नहीं बोली. 

“तेरी माँ कैसी है?”

वह फिर कुछ नहीं बोली.

“जूही चावला का गाना सुनेगी लज्जो बेटा?”

रज्जो की आँख टप-टप बरसने लगी. वह कुछ नहीं बोली.

सारे मोहल्ले में रज्जो को लेकर सहानुभूति और दया का महासागर फूट गया. जहाँ जाती वहां औरतें उससे सवाल करने लगतीं – “क्या करता थी परताप सिंग?” “कोई पहले से भी रख रखी थी उसने?” “तू कालाढूंगी कब जाएगी?”

रज्जो कभी कुछ नहीं बोलती. हमेशा गेंद की तरह दौड़ने वाली चुलबुल रज्जो एक मनहूस नौकरानी में तब्दील हो गयी. एक साल बीतते न बीतते मलेरिया में उसकी माँ मर गयी. दिसंबर में उसे अपनी चूड़ियां तोड़नी पड़ीं क्योंकि प्रतापसिंह का मरा शरीर रामनगर के कोसी डाम से निकाला था पुलिस ने.  

मोहल्ले की औरतें नकली विलाप करतीं: रज्जो का ये हो गया, रज्जो का वो हो गया.

रज्जो ने काम के लिए मोहल्ले के वे सारे घर पकड़ लिए थे जहाँ उसकी माँ काम करती थी. रज्जो दिन भर खटती और देर शाम के किसी पहर ब्रिगेडियर पन्त के बंगले के आउटहाउस में मिले कमरे में घुस जाती. उसके बाप ने एक बार ब्रिगेडियर पन्त के तिब्बती कुत्ते की जान बचाई थी उसी के बदले में उसके हाथ इतनी कृपा आई थी.

घर पर काम करती कभी अकेली दिखती तो मैं घर वालों की नजर बचा कर उसके हाथ में थोड़े पैसे रख देता. “नहीं चाहिए मामा!” वह कहती. 

फिर एक दिन कहीं से राकेश आया. कालाढूंगी का रहने वाला राकेश प्रतापसिंह का पड़ोसी था बताते थे. निकलते कद वाला गोरा और बेहद सुदर्शन राकेश प्लम्बर था. मोहल्ले की नारद मानी जाने वाली मिस्टर लोहनी की कुबड़ी बुआ ने फुसफुस आवाज में मेरी माँ को बताया कि ब्रिगेडियर पन्त अपने बगीचे में कालाढूंगी से आये उस छोकरे को हड़का रहे थे.

रज्जो काम पर आई तो माँ ने उस पर सवालों की झड़ी लगा दी. रज्जो चुप रही. मेरे कमरे में पोंछा लगाने आई तो कई महीनों बाद उसने मुंह खोला, “मामा कल को मेरी सादी है. किसी को बताना मत हाँ!”  

अगले दिन बाद बाकायदा रज्जो और राकेश की शादी हो गयी. आर्यसमाज में पांच लोगों की उपस्थिति में हुए अनुष्ठान में ब्रिगेडियर पन्त ने कन्यादान किया और उसी शाम पूरा का पूरा आउटहाउस दोनों के लिए खोल दिया. लाल जोड़े में सजी रज्जो को राकेश अपनी मोटरसाइकिल पर बिठाकर लाया.

“लो आ गए भैया अपने अमीताच्चन और जया भादुड़ी” लम्बे कद के गौरवर्ण छबीले राकेश और उसकी बगल में खडी सकुचाई खड़ी ठिगनी और सांवल रज्जो का जोड़ा देख कर हमेशा चुहल करने वाले राणा साहब ने अपनी छत से सारे मोहल्ले को सुनाते हुए कहा.

एक सप्ताह बाद रज्जो मेरे घर काम पर आई तो उसके गले में महंगा मंगलसूत्र था जिसे देखते ही मेरी माँ ने छुआ.

“अरे ये तो असली है! तेरे दुल्हौ ने दिया?”

“हां अम्मा उनोंनेई दिया” कहकर वह पोंछा लगाने में व्यस्त हो गयी. मैं अपने कमरे से उसे कनखियों से देख रहा था. प्रेम ने उसे जादू बना दिया था. वह पृथ्वी हो गयी थी. वह आसमान, नदी और हवा हो गयी थी. उसके छोटे-छोटे गुलगुले हाथों से मेहंदी छूटना बाकी थी. 

मेरे कमरे में आई तो मैंने छेड़ते हुए कहा, “गाना लगाऊँ लज्जो!”

उसने मेरी आँख से आँख मिलाते हुए कहा, “हाँ मामा जूई वाला गाना लगाओ ना.”

मैं कम्प्यूटर पर झुका तो वह बोली, “अब मैं लज्जो नईं हूँ मामा. ये बता ले थे अब मैं लाजेस्वली हो गयी हूँ.”