मि. चेम्बरलेन दक्षिण अफ्रीका से साढ़े तीन करोड़ पौण्ड लेने आये थे तथा अंग्रेजों का और हो सके तो बोअरों का मन जीतने आये थे। इसलिए भारतीय प्रतिनिधियों को नीचे लिखा ठंड़ा जवाब मिला :

'आप तो जानते हैं कि उत्तरदायी उपनिवेशों पर साम्राज्य सरकार का अंकुश नाममात्र ही हैं। आपकी शिकायतें तो सच्ची जान पड़ती हैं। मुझसे जो हो सकेगा, मैं करूँगा। पर आपको जिस तरह भी बने, यहाँ के गोरो को रिझाकर रहना हैं।'

जवाब सुनकर प्रतिनिधि ठंडे हो गये। मैं निराश हो गया। 'जब जागे तभी सबेरा' मानकर फिर से श्रीगणेश करना होगा। यह बात मेरे ध्यान में आ गयी और साथियों को मैने समझा दी।

मि. चेम्बरलेन का जवाब क्या गलत था ? गोलमोल बात कहने के बदले उन्होंने साफ बात कह दी। 'जिसकी लाठी उसकी भैंस' का कानून उन्होंने थोड़े मीठे शब्दों में समझा दिया।

पर हमारे पास लाठी थी ही कहाँ ? हमारे पास तो लाठी के प्रहार झेलने लायक शरीर भी मुश्किल से थे।

मि. चेम्बरलेन कुछ हफ्ते ही रहने वाले थे। दक्षिण अफ्रीका कोई छोटा सा प्रान्त नहीं हैं। वह एक देश हैं, खण्ड हैं। अफ्रीका में तो अनेक अपखण्ड समाये हुए हैं। यदि कन्याकुमारी से श्रीनगर 1900 मील हैं तो डरबन से केपटाउन 1100 मील से कम नहीं हैं। इस खण्ड में मि. चेम्बरलेन को तूफानी दौरा करना था। वे ट्रान्सवाल के लिए रवाना हुए। मुझे वहाँ के भारतीयों का केस तैयार करके उनके सामने पेश करना था। प्रिटोरिया किस तरह पहुँचा जाय ? वहाँ मैं समय पर पहुँच सकूँ, इसके लिए अनुमति प्राप्त करने का काम हमारे लोगों से हो सकने जैसा न था।

युद्ध के बाद ट्रान्सवाल उजाड़ जैसा हो गया था। वहाँ न खाने को अन्न था , न पहनने -ओढ़ने को कपड़े मिलते थे। खाली और बन्द दुकानों को माल से भरना और खुलवाना था। यह तो धीरे-धीरे ही हो सकता था। जैसे-जैसे माल इकट्ठा होता जाय, वैसे-वैसे ही घरबार छोड़कर भागे हुए लोगों को वापस आने दिया जा सकता था। इस कारण प्रत्येक ट्रान्सवाल वासी को परवाना लेना पड़ता था। गोरों को तो परवाना माँगते ही मिल जाता था। मुसीबत हिन्दुस्तानियों की थी।

लड़ाई के दिनों में हिन्दुस्तान और लंका से बहुत से अधिकारी और सिपाही दक्षिण अफ्रीका पहुँच गये थे। उनमें से जो लोग वहीं आबाद होना चाहे उनके लिए वैसी सुविधा कर देना ब्रिटिश राज्याधिकारियों का कर्तव्य माना गया था। उन्हें अधिकारियों का नया मण्डल तो बनाना ही था। उसमें इन अनुभवी अधिकारियों का सहज ही उपयोग हो गया। इन अधिकारियों की तीब्र बुद्धि ने एक नया विभाग ही खोज निकाला। उसमे उनकी कुशलता भी अधिक तो थी ही ! हब्शियों से सम्बन्ध रखने वाला एक अलग विभाग पहले से ही था। ऐसी दशा में एशियावासियों के लिए भी अलग विभाग क्यों न हो ? दलील ठीक मानी गयी। यह नया विभाग मेरे दक्षिण अफ्रीका पहुँचने से पहले ही खुल चुका था और धीरे-घीरे अपना जाल बिछा रहा था। जो अधिकारी भागे हुओ को वापस आने के परवाने देता था वही सबको दे सकता था। पर उसे यह कैसे मालूम हो कि एशियावासी कौन हैं ? इसके समर्थन में दलील यह दी गयी कि नये विभाग की सिफारिश पर ही एशियावासियों को परवाने मिसा करे, तो उस अधिकारी की जिम्मेवारी कम हो जाये और उसका काम भी हल्का हो जाय। वस्तुस्थिति यह थी कि नये विभाग को कुछ काम की और कुछ दाम की जरूरत थी। काम न हो तो इस विभाग की आवश्यकता सिद्ध न हो सके और फलतः वह बन्द हो जाय। अतएव उसे यह काम सहज ही मिल गया।

हिन्दुस्तानियों को इस विभाग में अर्जी देनी पड़ती थी। फिर बहुत दिनों बाद उसका उत्तर मिलता था। ट्रान्सवाल जाने की इच्छा रखने वाले लोग अधिक थे। अतएव उनके लिए दलाल खड़े हो गये। इन दलाल और अधिकारियों के बीच हिन्दुस्तानियों के हजारों रुपये लुट गये। मुझसे कहा गया था कि बिना वसीले के परवाना मिलता ही नहीं और कई बार तो वसीले या जरिये के होते हुए भी प्रति व्यक्ति सौ-सौ पौण्ड तक खर्च हो जाते हैं। इसमें मेरा ठिकाना कहाँ लगता ?

मैं अपने पुराने मित्र डरबन के पुलिस सुपरिण्टेण्डेण्ट के पास पहुँचा और उनसे कहा, 'आप मेरा परिचय परवाना देने वाले अधिकारी से करा दीजिये और मुझे परवाना दिला दीजिये। आप यह तो जानते हैं कि मैं ट्रान्सवाल मे रहा हूँ।' वे तुरन्त सिर पर टोप रखकर मेरे साथ आये और मुझे परवाना दिला दिया। मेरी ट्रेन को मुश्किल से एक घंटा बाकी था। मैने सामान वगैरा तैयार रखा था। सुपरिण्टेण्डेण्ट एलेक्जेण्डर का आभार मान कर मैं प्रिटोरिया के लिए रवाना हो गया।

मुझे कठिनाईयों का ठीक-ठीक अंदाज हो गया था। मैं प्रिटोरिया पहुँचा। प्रार्थना-पत्र तैयार किया। डरबन में प्रतिनिधियों के नाम किसी से पूछे गये हो, सो मुझे याद नहीं। लेकिन यहाँ नया विभाग काम कर रहा था। इसलिए प्रतिनिधियों के नाम पहले से पूछ लिये गये थे। इसका हेतु मुझे अलग रखना था, ऐसा प्रिटोरिया के हिन्दुस्तानियों को पता चल गया था। यह दुखःद किन्तु मनोरंजक कहानी आगे लिखी जायगी।

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