जो व्यथा न दिखती हो बाहर
पर कसमस कसमस करती हो,
कर दे विदीर्ण जो दे के टीस
हर सांस में आहें भरती हो।
जो व्यथा न जाहिर हो मुख से
जो हृदय को भी दे बंदी सा बना,
कर दे मलिन और कांतिहीन
चिंतन मंथन पे बादल हो घना।
हर ले रातों की निद्रा जो
और दिन में भी ना सोने दे,
ढलका दे आंखों की पलकें
पर एक बूंद भी ना रोने दे।
जिसके कारण ना भूख - प्यास
यह देह शिथिल सी रहती है
मन की इच्छा बैरागी सी
ना सुनती, ना कुछ कहती है।
हे प्रिये! वियोग तुम्हारा ज्यों
वैसा ही भाव दिखाता है,
पीड़ा की अंतिम सीमा तक
बिन आंसू, यह रूलवाता है।
हाय! जाने कितने दुनिया में
यह दर्द उठाए सहते हैं,
यह दर्द अनोखा, विरह सदृश
इसे दर्द दांत का कहते हैं।
प्राणेंद्र नाथ मिश्र