माता, पिता और यह बालक इनको छोड़ अन्य कोई
निश्चय उठा नहीं सकता है इसे भूमि पर गिरी हुई’
‘और उठाता है तो?’ ऐसा नृप ने किया प्रश्न, इस पर
पहली बोली ‘डस लेता है तब तो उसे सर्प बनकर’
नृप ने पूछा ‘देखा है क्या इसका कभी सर्प बनना?’
‘अहो, अनेक बार देखा है’ दोनों का था यह कहना
अति आश्वस्त सहर्ष अधिप ने सोचा ऐसा मन ही मन
‘अपने पूर्ण मनोरथ का अब करूँ न क्यों मैं अभिनन्दन’
इस प्रकार नृप ने बालक को लगा लिया वक्षस्थल से
तदनन्तर दूसरी तपस्विनी कहने लगी सुव्रता से
‘अहो सुव्रते! आओ चलकर अभी पहुँचने के उपरान्त
नियम व्यापृता शकुन्तला से करें निवेदन यह वृत्तान्त’
ऐसा कहते हुए वहॉं से जब दोनों ने किया निकास
बालक बोला ‘मुझे छोड़ दो, मैं जाऊॅंगा मॉं के पास’
बालक के यों हठ करने पर नृप बोले ‘मेरे नन्दन!
करना मेरे साथ अभी तुम अपनी मॉं का अभिनन्दन’
वे दुष्यन्त पिता हैं मेरे, आप नहीं’ शिशु मन का त्रास
हॅंसकर नृप बोले ‘विवाद यह मुझे दिलाता है विश्वास’
तदनन्तर जब उन दोनों ने किया निवेदन यों जाकर
एकल वेणीधरा शकुन्तला आ पहुँची वृत्तान्त सुनकर
किया विचार ‘विकार काल में सर्वदमन की औषधि को
प्रकृतस्थ सुनकर भी यह आशा नहीं भाग्य पर थी मुझको
अथवा, जैसा सानुमती ने पूर्व किया था व्यक्त विचार
निश्चय ही प्रतीत होता है, यह है संभव उसी प्रकार’

शकुन्तला की ओर देखकर अनुभव कर नृप कष्ट दुःसह
लगे सोचने ‘अरे यही तो वह शकुन्तला है, जो यह
अतिशय मैले इन वस्त्रों को किए हुए तन पर धारण,
कृश मुख है जिसका नियमों के पालन करने के कारण,
किए एक ही वेणी धारण शुभ्र शील है जिसका धन
मुझ निष्ठुर के लिए कर रही दीर्घ विरह व्रत का पालन’
पश्चाताप विवर्ण अधिप पर शकुन्तला ने दृष्टि रखा
कहने लगी आत्मगत ‘यह तो आर्यपुत्र सा नहीं दिखा,
फिर यह कौन इस समय मेरे कृत रक्षामंगल सुत को
निज तन से आलिंगन करके दूषित करता है उसको’
आकर मॉं के पास तभी उस बालक ने यह किया कथन
‘मॉं! यह कोई पुरुष पुत्र कह मुझे कर रहा आलिंगन’
नृप ने कहा ‘प्रिये! थी तुझ पर जो मेरी क्रूरता प्रयुक्त
वह ही अब प्रतीत होती है सानुकूल परिणाम संवृत्त,
स्वयं समझती होगी तुम तो मैंने क्यों यह कथन किया
क्योंकि देख रहा हूँ मुझको तुमने है पहचान लिया’
तब तो कहने लगी आत्मगत शकुन्तला सुनकर यह स्वर
‘अरे हृदय! धीरज धारण कर, अब तो धीरज धारण कर,
द्वेषविहीन भाग्य के द्वारा पूर्णतयः हूँ अनुकम्पित
मेरे सम्मुख यहॉं उपस्थित आर्यपुत्र ही हैं निश्चित’
नृप बोले ‘हे सुमुखि! भाग्य से दूर हो गया दारुण कष्ट,
स्मृति आ जाने से मेरा मोह-तमस हो गया विनष्ट,
मेरे सम्मुख निश्चय ही तुम हुई उपस्थित हो ऐसे
ग्रहण अनन्तर यथा रोहिणी मिलती है निज प्रिय शशि से’

‘आर्यपुत्र की जय हो, जय हो’ इतना अर्धवाक्य कहकर
शकुन्तला चुप हो जाती है कंठ अश्रु से रुँधने पर
आत्म सांत्वना की मुद्रा में नृप बोले ‘सुन्दरि! निश्चय
‘‘जय’’ का शब्द अश्रुबाधित है तब भी मेरी हुई विजय
क्योंकि, सज्जा ना होने से पाटलवर्ण होष्ठ से युक्त
वदन तुम्हारा देख सका मैं’ नृप का स्वर था अब दुःखमुक्त
तत्क्षण बालक शकुन्तला से प्रश्न किया ‘मॉं! यह है कौन?
‘वत्स! भाग्य से पूछो अपने’ यों कहकर वह साधी मौन
आत्मग्लानि में शकुन्तला के पैरों में राजन गिरकर
करने लगे निवेदन उससे विनयपूर्वक यह कहकर
‘सुतनु! तुम्हारे मन में मेरे परित्याग का दुःख हो दूर,
उस क्षण इस मन में जागा था कोई प्रबल मोह अति क्रूर
क्योंकि देखा है कि प्रायः तामसगुण वालों की वृत्ति
इस प्रकार ही हो जाती है मंगलप्रद विषयों के प्रति,
नेत्रविहीन पुरुष के सिर पर पहनाई माला को भी
सर्प समझने के कारणवश देता है वह फेंक तभी’
शकुन्तला नृप के कुछ दुःख को ढ़ॉढ़स से सुख में फेरा
‘आर्यपुत्र! उठिए, निश्चय ही शुभफल प्रतिबन्धक मेरा
पूर्वजन्मकृत पाप उन दिनों उदित हो गया था जिससे
आर्यपुत्र होकर कृपालु भी मुझ पर नीरस थे ऐसे’
नृप के उठने पर शकुन्तला बोली ‘बतलायें मुझको,
आर्यपुत्र कर लिए स्मरण कैसे इस दुःखभागी को’
कठिनाई में ज्यों हताश स्वर नृप बोले कुछ यों इस पर
‘यह सब बतलाऊॅंगा तुमको दुःख के बाण निकलने पर,

सुतनु! अधर को है तेरे जो वाष्प विन्दु करती पीड़ित
जिसे मोहवश मैंने पहले कर डाला था अपमानित
कुछ टेढ़ी पलकों में ऐसे लगे हुए हैं जो अब तक
उस ऑंसू को पोंछ ग्लानि से छुटकारा तो लूँ तब तक’
ऑंसू पोंछ चुके जब नृप तब एक सुअवसर उसे मिला
नामांकित मुद्रिका देखकर तत्क्षण बोली शकुन्तला
‘आर्यपुत्र! यह वही मुद्रिका’ तब नृप ने वह कथा कहा
‘यही मुद्रिका पाने से तो तेरी स्मृति हुई, अहा!’
‘बुरा किया था इसने मेरा क्योंकि आर्यपुत्र तुमको
जब विश्वास दिलाना था तब नहीं मिली थी यह मुझको’
शकुन्तला से सुन उसको नृप चाहा सुख दे यह कारण
‘इसीलिए ऋतुमिलन चिह्न यह कुसुमलता कर ले धारण’
नृप से होती हुई असहमत उसने निष्फल किया प्रयास
‘आर्यपुत्र ही कर लें धारण, इसका मुझे नहीं विश्वास’
उसी समय गुरुवर से मिलकर आकर नृप के अधिक निकट
किया हर्ष से मातलि उनको अपनी शुभकामना प्रकट
‘दैवयोग से धर्मपत्नी से सुखद समागम, आयुष्मान्!
और पुत्र के मुखदर्शन से हुआ आपका अभ्युत्थान’
नृप ने कहा ‘मनोरथ मेरा मृदुफल से है सम्पादित
मातलि यह वृत्तान्त इन्द्र को सम्भवतः हो नहीं विदित’
हॅंसकर मातलि उन्हें दिलाये ऐसी आशंका से मोक्ष
बोले ‘ऐश्वर्य सम्पन्नों को कुछ भी तो है नहीं परोक्ष’
अब नृप से यह किया निवेदन ‘आयें आयुष्मान् इधर,
प्रभु मारीच आपको देंगे सम्प्रति दर्शन का अवसर’

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel