बहुत दिनों की बात है। उज्जैन नगरी में राजा भोज नाम का एक राजा राज करता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। न्याय ऐसा करता कि दूध और पानी अलग-अलग हो जाये। उसके राज में शेर और बकरी एक घाट पानी पीते थे। प्रजा सब तरह से सुखी थी।

नगरी के पास ही एक खेत था, जिसमें एक आदमी ने तरह–तरह की बेलें और साग-भाजियां लगा रक्खी थीं।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। खूब तरकारियां उतरीं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी जमीन खाली रह गई। बीज उस पर डाले थे, पर जमे नहीं। सो खेत वाले ने क्या किया कि वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। पर उसपर वह जैसें ही चढ़ा कि लगा चिल्लाने लगा- "कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओं और सजा दो।

होते-होते यह बात राजा के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, "मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।

लोग राजा को ले गये। खेत पर पहुंचते ही देखते क्या हैं कि वह आदमी मचान पर खड़ा है और कह रहा है- "राजा भोज को फौरन पकड़ लाओं और मेरा राज उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओं।

यह सुनकर राजा को बड़ा डर लगा। वह चुपचाप महल में लौटा आया। फिक्र के मारे उसे रातभर नींद नहीं आयी। ज्यों-त्यों रात बिताई। सवेरा होते ही उसने अपने राज्य के ज्योतिषियों और पंडितों को इकट्ठा किया । उन्होंने हिसाब लगाकर बताया कि उस मचान के नीचे धन छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाय।

खोदते-खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक लोगों ने देखा कि नीचे एक सिंहासन है। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो उसने उसे बाहर निकालने को कहा, लेकिन लाखों मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस-से मस-न हुआ। तब एक पंडित ने बताया कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तबतक नहीं हटेगा जबतक कि इसकों कोई बलि न दी जाय।

राजा ने ऐसा ही किया। बलि देते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानों फूलों का हो। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि इसे साफ करो। सफाई की गई। वह सिंहासन ऐसा चमक उठा कि अपने मुंह देख लो। उसमें भांति-भांति के रत्न जड़ें थे, जिनकी चमक से आंखें चौधियाती थीं। सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियां बनी थीं। उनके हाथ में कमल का एक-एक फूल था। कहीं-कहीं सिंहासन का रंग बिगड़ गया था। कहीं कहीं से रत्न निकल गये थें। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर उसे ठीक कराओ।

ठीक होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन ऐसा हो गया था। कि जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगतीं, मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, "तुम लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालो। उसी दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा। एक दिन तय किया गया। दूर-दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गये। तरह-तरह के बाजे बजने लगे, महलों में खुशियों मनाई जाने लगीं।

सब लोगों के सामने राजा सिंहासन के पास जाकर खड़े हो गये। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सब-की-सब पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि ये बेजान पुतलियां कैसें हंस पड़ी। राजा ने डर के मारे अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से बोला, "ओ पुतलियों ! सच-सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?"

पहली पुतली का नाम था रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, " राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन घमंड करना ठीक नहीं। सुनो! जिस राजा का यह सिंहासन है, उसके यहां तुम जैसे तो हजारों नौकर-चाकर थे।

यह सुनकर राजा आग-बबूला हो गया। बोला, "मैं अभी इस सिहांसन को तोड़कर मिट्टी में मिला दूंगा।

पुतली ने शांति से कहा, "महाराज ! जिस दिन राजा विक्रमादित्य से हम अलग हुई उसी दिन हमारे भाग्य फूट गये, हमारे लिए सिंहासन धूल में मिल गया।

राजा का गुस्सा दूर हो गया। उन्होंने कहा, "पुतली रानी ! तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ कहो।

पुतली ने कहा, "अच्छा सुनो।

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