कन्या देखने की बात महेंद्र ने की जरूर मगर वह भूल गया, फिर भी अन्नपूर्णा नहीं भूलीं। उन्होंने लड़की के अभिभावक, उसके बड़े चाचा को जल्दी में श्यामबाजार पत्र भेजा और एक दिन तय कर लिया।

महेंद्र ने जब सुना कि देखने का दिन पक्का हो गया है तो बोला - 'चाची, इतनी जल्दी क्यों की! बिहारी से तो मैंने अभी तक जिक्र नहीं किया।'

अन्नपूर्णा बोलीं - 'ऐसा भी होता है भला! अब अगर तुम लोग न जाओ तो वे क्या सोचेंगे?'

महेंद्र ने बिहारी को बुला कर सारी बातें बताईं, कहा - 'चलो तो सही, लड़की न जँची, तो तुम्हें मजबूर नहीं किया जाएगा।'

बिहारी बोला - 'यह मैं नहीं कह सकता। चाची की भानजी को देखने जाना है। देख कर मेरे मुँह से यह बात हर्गिज न निकल सकेगी कि लड़की मुझे पसंद नहीं।'

महेंद्र ने कहा - 'फिर तो ठीक ही है।'

बिहारी बोला - 'लेकिन तुम्हारी तरफ से यह ज्यादती है, महेंद्र भैया! खुद तो हल्के हो जाएँ और दूसरे के कंधे पर बोझ रख दें, यह ठीक नहीं। अब चाची का जी दुखाना मेरे लिए बहुत कठिन है।'

महेंद्र कुछ शर्मिंदा और नाराज हो कर बोला - 'आखिर इरादा क्या है तुम्हारा?'

बिहारी बोला - 'मेरे नाम पर जब तुमने उन्हें उम्मीद दिलाई है तो मैं विवाह करूँगा। यह देखने जाने का ढोंग बेकार है।'

बिहारी अन्नपूर्णा की देवी की भाँति भक्ति करता था। आखिर अन्नपूर्णा ने खुद बिहारी को बुलवा कर कहा - 'ऐसा भी कहीं होता है, बेटे! लड़की देखे बिना ही विवाह करोगे। यह हर्गिज न होगा। लड़की पसंद न आए तो तुम हर्गिज 'हाँ' नहीं करोगे। समझे। तुम्हें मेरी कसम...!'

जाने के दिन कॉलेज से लौट कर महेंद्र ने माँ से कहा - 'जरा मेरा वह रेशमी कुरता और ढाका वाली धोती निकाल दो!'

माँ ने पूछा - 'क्यों, कहाँ जाना है?'

महेंद्र बोला - 'काम है, तुम ला दो, फिर बताऊँगा।'

महेंद्र थोड़ा सँवरे बिना न रह सका। दूसरे के लिए ही क्यों न हो, लड़की का मसला जवानी में सभी से थोड़ा सँवार करा ही लेता है।

दोनों दोस्त लड़की देखने निकल पड़े।

लड़की के बड़े चाचा अनुकूल बाबू ने अपनी कमाई से अपना बाग वाला तिमंजिला मकान मुहल्ले में सबसे ऊँचा बना रखा है।

गरीब भाई की माँ-बाप-विहीना बेटी को उन्होंने अपने ही यहाँ रखा है। उसकी मौसी अन्नपूर्णा ने कहा था, मेरे पास रहने दो। इससे खर्च की कमी जरूर होती, लेकिन गौरव की कमी के डर से अनुकूल राजी न हुए। यहाँ तक कि मुलाकात के लिए भी कभी उसे मौसी के यहाँ नहीं जाने देते थे। अपनी मर्यादा के बारे में इतने ही सख्त थे वे।

लड़की के विवाह की चिंता का समय आया। लेकिन इन दिनों विवाह के विषय में 'यादृशी भावना यस्य सिध्दर्भवति तादृशी' वाली बात लागू नहीं होती। चिंता के साथ-साथ लागत भी लगती। परंतु दहेज की बात उठते ही अनुकूल कहते, 'मेरी भी तो अपनी लड़की है, अकेले मुझसे कितना करते बनेगा।' इसी तरह दिन निकलते जा रहे थे। ऐसे में बन-सँवर कर खुशबू बिखेरते हुए रंग-भूमि में अपने दोस्त के साथ महेंद्र ने प्रवेश किया।

चैत का महीना। सूरज डूब रहा था। दुमंजिले का दक्षिणी बरामदा चिकने चीनी टाइलों का बना, उसी के एक ओर दोनों मेहमानों के लिए फल-फूल, मिठाई से भरी चाँदी की तश्तरियाँ रखी गईं। बर्फ के पानी-भरे गिलास जैसे ओस-बूँदों से झलमल। बिहारी के साथ महेंद्र सकुचाते हुए खाने बैठा। नीचे माली पौधों में पानी डाल रहा था और भीगी मिट्टी की सोंधी सुगंध लिए दक्खिनी बयार महेंद्र की धप-धप धुली चादर के छोर को हैरान कर रही थी। आसपास के दरवाजे के झरोखों की ओट से कभी-कभी दबी हँसी, फुसफुसाहट, कभी-कभी गहनों की खनखनाहट सुनाई दे रही थी।

खाना खत्म हो चुका तो अंदर की तरफ देखते हुए अनुकूल बाबू ने कहा - 'चुन्नी, पान तो ले आ, बेटी!'

जरा देर में संकोच से पीछे का दरवाजा खुल गया और सारे संसार की लाज से सिमटी एक लड़की हाथ में पानदान लिए अनुकूल बाबू के पास आ कर खड़ी हुई। वे बोले, 'शर्म काहे की बिटिया, पानदान उनके सामने रखो!'

उसने झुक कर काँपते हुए हाथों से मेहमानों के बगल में पानदान रख दिया। बरामदे के पश्चिमी छोर से डूबते हुए सूरज की आभा उसके लज्जित मुखड़े को मंडित कर गई। इसी मौके से महेंद्र ने उस काँपती हुई लड़की के करुण मुख की छवि देख ली।

बालिका जाने लगी। अनुकूल बाबू बोले- 'जरा ठहर जा, चुन्नी! बिहारी बाबू, यह है छोटे भाई अपूर्व की लड़की, अपूर्व तो चल बसा, अब मेरे सिवाय इसका कोई नहीं।'

और उन्होंने एक लंबी उसाँस ली।

महेंद्र का मन पसीज गया। उसने एक बार फिर लड़की की तरफ देखा।

उसकी उम्र साफ-साफ कोई न बताता। सगे-संबंधी कहते, बारह-तेरह होगी। यानी चौदह-पन्द्रह होने की संभावना ही ज्यादा थी। लेकिन चूँकि दया पर चल रही थी इसलिए सहमे-से भाव ने उसके नव-यौवन के आरंभ को जब्त कर रखा था।

महेंद्र ने पूछा - 'तुम्हारा नाम?'

अनुकूल बाबू ने उत्साह दिया - 'बता बेटी, अपना नाम बता!'

अपने अभ्यस्त आदेश-पालन के ढंग से झुक कर उसने कहा - 'जी, मेरा नाम आशालता है।'

'आशा!' महेंद्र को लगा, नाम बड़ा ही करुण और स्वर बड़ा कोमल है।

दोनों मित्रों ने बाहर सड़क पर आ कर गाड़ी छोड़ दी। महेंद्र बोला - 'बिहारी, इस लड़की को तुम हर्गिज मत छोड़ो।'

बिहारी ने इसका कुछ साफ जवाब न दिया। बोला - 'इसे देख कर इसकी मौसी याद आ जाती है। ऐसी ही भली होगी शायद!'

महेंद्र ने कहा - 'जो बोझा तुम्हारे कंधे पर लाद दिया, अब वह शायद वैसा भारी नहीं लग रहा है।'

बिहारी ने कहा - 'नहीं, लगता है तो ढो लूँगा।'

महेंद्र बोला - 'इतनी तकलीफ उठाने की क्या जरूरत है? तुम्हें बोझा लग रहा हो तो मैं उठा लूँ।'

बिहारी ने गंभीर हो कर महेंद्र की तरफ ताका। बोला - 'सच? अब भी ठीक-ठीक बता दो! यदि तुम शादी कर लो तो चाची कहीं ज्यादा खुश होंगी- उन्हें हमेशा पास रखने का मौका मिलेगा।'

महेंद्र बोला - 'पागल हो तुम! यह होना होता तो कब का हो जाता।'

बिहारी ने कोई एतराज न किया। चला गया और महेंद्र भी यहाँ-वहाँ भटक कर घर पहुँच गया।

माँ पूरियाँ निकाल रही थीं। चाची तब तक अपनी भानजी के पास से लौट कर नहीं आई थीं।

महेंद्र अकेला सूनी छत पर गया और चटाई बिछा कर लेट गया। कलकत्ता की ऊँची अट्टालिकाओं के शिखरों पर शुक्ल सप्तमी का आधा चाँद टहल रहा था। माँ ने खाने के लिए बुलाया, तो महेंद्र ने अलसाई आवाज में कहा - 'छोड़ो, अब उठने को जी नहीं चाहता।'

माँ ने कहा - 'तो यहीं ले आऊँ?'

महेंद्र बोला - 'आज नहीं खाऊँगा। मैं खा कर आया हूँ।'

माँ ने पूछा - 'कहाँ खाने गया था?'

महेंद्र बोला - 'बाद में बताऊँगा।'

वे लौटने लगीं तो थोड़ा सोचते हुए महेंद्र ने कहा - 'माँ! खाना यहीं ले आओ।'

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