इस जगह पर थोड़ा-सा हाल महाराज शिवदत्त का भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है। महाराज शिवदत्त को हर तरह से कुंअर वीरेंद्रसिंह के मुकाबिले में हार माननी पड़ी। लाचार उसने शहर छोड़ दिया और अपने कई पुराने खैरख्वाहों के साथ चुनार के दक्खिन की तरफ रवाना हुआ।
चुनार से थोड़ा ही दूर दक्खिन में लंबा-चौड़ा जंगल है। यह विंध्य के पहाड़ी जंगल का सिलसिला राबर्ट्सगंज, सरगुजा और सिंगरौली होता हुआ सैकड़ों कोस तक चला गया है जिसमें बड़े-बड़े पहाड़, घाटियां, दर्रे और खोह पड़ते हैं। बीच में दो-दो चार-चार कोस के फासले पर गांव भी आबाद हैं। कहीं-कहीं पहाड़ों पर पुराने जमाने के टूटे-फूटे आलीशान किले अभी तक दिखाई पड़ते हैं। चुनार से आठ-दस कोस दक्षिण अहरौरा के पास पहाड़ पर पुराने जमाने के एक बर्बाद किले का निशान आज भी देखने से चित्त का भाव बदल जाता है। गौर करने से यह मालूम होता है कि जब यह किला दुरुस्त होगा तो तीन कोस से ज्यादे लंबी-चौड़ी जमीन इसने घेरी होगी, आखिर में यह किला काशी के मशहूर राजा चेतसिंह के अधिकार में था। इन्हीं जंगलों में अपनी रानी और कई खैरख्वाहों को मय उनकी औरतों और बाल-बच्चों के साथ लिए घूमते-फिरते महाराज शिवदत्त ने चुनार से लगभग पचास कोस दूर जाकर एक हरी-भरी सुहावनी पहाड़ी के ऊपर के एक पुराने टूटे हुए मजबूत किले में डेरा डाला और उसका नाम शिवदत्तगढ़ रखा जिसमें उस वक्त भी कई कमरे और दालान रहने लायक थे। यह छोटी पहाड़ी अपने चारों तरफ के ऊंचे पहाड़ों के बीच में इस तरह छिपी और दबी हुई थी कि यकायक किसी का यहां पहुंचना और कुछ पता लगाना मुश्किल था।
इस वक्त महाराज शिवदत्त के साथ सिर्फ बीस आदमी थे जिनमें तीन मुसलमान ऐयार थे जो शायद नाज़िम और अहमद के रिश्तेदारों में से थे और यह समझकर महाराज शिवदत्त के साथ हो गये थे कि इनके साथ मिले रहने से कभी न कभी राजा वीरेंद्रसिंह से बदला लेने का मौका मिल ही जायगा, दूसरे सिवाय शिवदत्त के और कोई इस लायक नजर भी न आता था जो इन बेईमानों को ऐयारी के लिए अपने साथ रखता। नीचे लिखे नामों से तीनों ऐयार पुकारे जाते थे - बाकरअली, खुदाबख्श और यारअली। इन सब ऐयारों और साथियों ने रुपये-पैसे से भी जहां तक बन पड़ा महाराज शिवदत्त की मदद की।
राजा वीरेंद्रसिंह की तरफ से शिवदत्त का दिल साफ न हुआ मगर मौका न मिलने के सबब मुद्दत तक उसे चुपचाप बैठे रहना पड़ा। अपनी चालाकी और होशियारी से वह पहाड़ी भील और खर्बार इत्यादि जाति के आदमियों का राजा बन बैठा और उनसे मालगुजारी में गल्ला, घी, शहद और बहुत-सी जंगली चीजें वसूल करने और उन्हीं लोगों के मारफत शहर में भेजवा और बिकवाकर रुपया बटोरने लगा। उन्हीं लोगों को होशियार करके थोड़ी-बहुत फौज भी उसने बना ली। धीरे-धीरे वे पहाड़ी जाति के लोग भी होशियार हो गए और खुद शहर में जाकर गल्ला वगैरह बेच रुपये इकट्ठा करने लगे। शिवदत्त भी अच्छी तरह आबाद हो गया।
इधर बाकरअली वगैरह ऐयारों ने भी अपने कुछ साथियों को जो चुनार से इनके साथ आए थे ऐयारी के फन में खूब होशियार किया। इस बीच में एक लड़का और उसके बाद लड़की भी महाराज शिवदत्त के घर पैदा हुई। मौका पाकर अपने बहुत-से आदमियों और ऐयारों को साथ ले वह शिवदत्तगढ़ के बाहर निकला और राजा वीरेंद्रसिंह से बदला लेने की फिक्र में कई महीने तक घूमता रहा। बस महाराज शिवदत्त का इतना ही मुख्तसर हाल लिखकर इस बयान को समाप्त करते हैं और फिर इंद्रजीतसिंह के किस्से को छेड़ते हैं।
इंद्रजीतसिंह के गिरफ्तार होने के बाद उन बनावटी शेरों ने भी अपनी हालत बदली और असली सूरत के ऐयार बन बैठे जिनमें यारअली, बाकरअली और खुदाबख्श मुखिया थे। महाराज शिवदत्त बहुत ही खुश हुआ और समझा कि अब मेरा जमाना फिरा, ईश्वर चाहेगा तो मैं फिर चुनार की गद्दी पाऊंगा और अपने दुश्मनों से पूरा बदला लूंगा।
इंद्रजीतसिंह को कैद कर वह शिवदत्तगढ़ को ले गया। सभों को ताज्जुब हुआ कि कुंअर इंद्रजीतसिंह ने गिरफ्तार होते समय कुछ उत्पात न मचाया, किसी पर गुस्सा न निकाला, किसी पर हरबा न उठाया, यहां तक कि आंखों में रंज-अफसोस या क्रोध भी जाहिर न होने दिया। हकीकत में यह ताज्जुब की बात थी भी कि बहादुर वीरेंद्रसिंह का शेरदिल लड़का ऐसी हालत में चुप रह जाय और बिना हुज्जत किए बेड़ी पहिर ले, मगर नहीं, इसका कोई सबब जरूर है जो आगे चलकर मालूम होगा।

 

 


 

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