अब हम फिर मायारानी की तरफ लौटते हैं और उसका हाल लिख कई गुप्त भेदों को लिखते हैं। मायारानी भी उस चिट्ठी को पूरा-पूरा पढ़ न सकी और बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ी। नागर तुरन्त उठी और भंडरिये में से एक सुराही निकाल लाई जिसमें बेदमुश्क का अर्क था। वह अर्क मायारानी के मुंह पर छिड़का जिससे थोड़ी देर बाद वह होश में आई और नागर की तरफ देखकर बोली, “हाय अफसोस, क्या सोचा था और क्या हो गया।”
नागर - खैर, जो होना था सो हो गया, अब इस तरह बदहवास होने से काम नहीं चलेगा। उठो और अपने को सम्हालो, सोचो-विचारो और निश्चय करो कि अब क्या करना चाहिए।
मायारानी - अफसोस, उस कम्बख्त ऐयार ने तो बड़ा भारी धोखा दिया, और मुझसे भी बड़ी भारी भूल हुई कि लक्ष्मीदेवी वाला भेद उसके सामने जुबान से निकाल बैठी! यद्यपि उस इशारे से वह कुछ समझ न सकेगा परन्तु जिस समय गोपालसिंह के सामने लक्ष्मीदेवी का नाम लेगा और वे बातें कहेगा जो मैंने उस दारोगा रूपधारी ऐयार से कही थीं तो वह बखूबी समझ जायगा और मेरे विषय में उसका क्रोध सौगुना हो जायगा। यदि मेरे बारे में वह किसी तरह की बदनामी समझता भी था, तो अब न समझेगा। हाय, अब जिन्दगी की कोई आशा न रही।
नागर - लक्ष्मीदेवी का नाम ले के जो कुछ तुमने कहा, उससे मुझे भी शक हो गया है। क्या असल में...।
मायारानी - ओफ, यह भेद सिवाय असली दारोगा के किसी को भी मालूम नहीं। आज - (कुछ रुककर) नहीं, अब भी मैं उस भेद को छिपाने का उद्योग करूंगी और तुझसे कुछ भी न कहूंगी, बस अब लक्ष्मीदेवी का नाम तुम मेरे सामने मत लो। (चिट्ठी की तरफ इशारा करके) अच्छा इस चिट्ठी को तुम एक दफा फिर से पढ़ जाओ।
नागर ने वह चिट्ठी उठा ली जिसके पढ़ने से मायारानी की वह हालत हुई थी और पुनः उसे पढ़ने लगी।
चिट्ठी –
“बुरे कामों का करने वाला कदापि सुख नहीं भोग सकता। तू समझती होगी कि मैं राजा गोपालसिंह, देवीसिंह, भूतनाथ, कमलिनी और लाडिली को मारके निश्चिन्त हो गई, अब मुझे सताने वाला कोई भी न रहा। इस बात का तो तुझे गुमान भी न होगा कि मैं सुरंग में असली दारोगा से नहीं मिली, बल्कि ऐयारों के गुरु-घंटाल तेजसिंह से मिली जो दारोगा के भेष में था, और यह बात भी तुझे सूझी न होगी कि दारोगा वाले मकान के उड़ जाने से कैदियों को कुछ भी हानि नहीं हुई बल्कि वे लोग अजायबघर की चाबी की बदौलत जो सुरंग में मैंने तुझसे ले ली थी और भोजन तथा जल पहुंचाने के समय कैदियों को होश में लाकर दे दी थी, निकल गये। अहा, परमात्मा, तू धन्य है! तेरी अदालत बहुत सच्ची है। ऐ कम्बख्त मायारानी, अब तू सब कुछ इसी से समझ जा कि मैं वास्तव में तेजसिंह हूं।
तेरा
जो कुछ तू समझे - तेजसिंह”
इस चिट्ठी को सुनते ही मायारानी का सिर घूमने लगा और वह डर के मारे थर-थर कांपने लगी। थोड़ी देर चुप रहने के बाद वह उठ बैठी और नागर की तरफ देखकर बोली –
मायारानी - यह तेजसिंह भी बड़ा ही शैतान है। इसने दो दफा भारी धोखा दिया। अफसोस, अजायबघर की ताली हाथ में आकर फिर निकल गई, केवल ये दोनों तिलिस्मी खंजर मेरे हाथ में रह गये, मगर इनसे मेरी जान नहीं बच सकती। सबसे ज्यादा अफसोस तो इस बात का है कि लक्ष्मीदेवी वाला भेद अब खुल गया और यह बात मेरे लिए बहुत ही बुरी हुई। (कुछ सोचकर) हाय, अब मैं समझी कि इस तिलिस्मी खंजर का असर तेजसिंह पर इसलिए नहीं हुआ कि उसके पास भी जरूर इसी तरह का खंजर और ऐसी ही अंगूठी होगी।
नागर - बेशक यही बात है। खैर, अब यह बहुत जल्द सोचना चाहिए कि हम लोगों की जान कैसे बच सकती है।
मायारानी इसका कुछ जवाब दिया ही चाहती थी कि सामने का दरवाजा खुला और मायारानी के दारोगा साहब अन्दर आते हुए दिखाई पड़े। उन्हें देखते ही मायारानी क्रोध के मारे लाल हो गई और कड़ककर बोली, “तुझ कम्बख्त को यहां किसने आने दिया! खैर, अच्छा ही हुआ जो तू आ गया। मुझे मालूम हो गया कि तेरी मौत तुझे यहां पर लाई है, हां अगर तेरी चिट्ठी मुझे न मिली रहती तो मैं फिर धोखे में आ जाती। कम्बख्त, नालायक, तूने मुझे बड़ा भारी धोखा दिया! अब तू मेरे हाथ से बचकर नहीं जा सकता!”
दारोगा - तू अपने होश में भी है या नहीं क्या अपने को बिल्कुल भूल गई! क्या तू नहीं जानती कि किससे क्या कह रही है मेरी मौत नहीं बल्कि तेरी मौत आई है जो तू जुबान सम्हालकर नहीं बोलती।
मायारानी - (खड़ी होकर और तिलिस्मी खंजर को हाथ में लेकर) हां, ठीक है, यदि मैं अपने होश में रहती तो तुझ कम्बख्त के फेर में पड़ती ही क्यों बेईमान कहीं का, तूने मुझे बड़ा भारी धोखा दिया, देख अब मैं तेरी क्या दुर्गति करती हूं।
नागर - ताज्जुब है कि इतनी बड़ी बदमाशी करने पर भी तू निडर होकर यहां कैसे चला आया! मालूम होता है अपनी जान से हाथ धो बैठा। कोई हर्ज नहीं, अगर तिलिस्मी खंजर का असर तुझ पर नहीं होता, तो मैं दूसरी तरह से तेरी खबर लूंगी।
इस समय मायारानी की फुर्ती देखने ही योग्य थी। वह बाघिन की तरह झपटकर दारोगा के पास पहुंची। इस समय उसकी उंगली में एक जहरीली अंगूठी उसी तरह की थी जैसी नागर के हाथ में उस समय थी जब उसने सुनसान जंगल में भूतनाथ को अंगूठी गाल में रगड़कर बेहोश किया था। इस समय मायारानी ने भी वही काम किया, अर्थात् वह अंगूठी जिस पर जहरीला नोकदार नगीना जड़ा हुआ था, दारोगा के गाल में इस फुर्ती और चालाकी से रगड़ दी कि वह बेचारा कुछ भी न कर सका। उस नगीने की रगड़ से गाल जरा-सा ही छिला था मगर जहर का असर पल भर में अपना काम कर गया। दारोगा चक्कर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और बेहोश हो गया। मायारानी ने नागर की तरफ देखा और कहा, “अब इसके हाथ-पैर जकड़ के बांध दो और तब होश में लाकर पूछो कि कहिए तेजसिंह, अब आपका मिजाज कैसा है’ इसके जवाब में नागर ने कहा - “केवल हाथ-पैर ही बांध करके नहीं छोड़ दो, बल्कि थोड़ी नाक काट लो और नकली दाढ़ी उखाड़कर फेंक दो और तब होश में लाकर पूछो कि कहिए ऐयारों के गुरु-घंटाल तेजसिंह, आपका मिजाज कैसा है’
इस समय मायारानी यही समझ रही थी कि यह दारोगा वास्तव में वही तेजसिंह है जिसने उसे अनूठी रीति से धोखा दिया था, बल्कि वह उसके शक पर बगीचे में घूमने के समय हर एक पत्ते से डरती फिरे तो ताज्जुब नहीं। परन्तु हमारे पाठक जरूर समझते होंगे कि तेजसिंह ऐसे बेवकूफ नहीं हैं जो मायारानी को धोखा देकर बल्कि अपने धोखे का परिचय देकर फिर उसके सामने उसी सूरत में आवें जिस सूरत में उन्होंने धोखा दिया था, और वास्तव में बात भी ऐसी ही है। यह तेजसिंह नहीं थे, बल्कि मायारानी के असली दारोगा साहब थे। मगर अफसोस, इस समय उनकी दाढ़ी नोंचने तथा नाक काटने के लिए वही तैयार हैं जिनके वे पक्षपाती हैं।
नागर ने जो कुछ कहा मायारानी ने स्वीकार किया। नागर ने पहले तिलिस्मी खंजर से दारोगा साहब की नाक काट ली और फिर दाढ़ी नोंचने के लिए तैयार हुई। मगर यह दाढ़ी नकली नहीं थी जो एक ही झटके में अलग हो जाती, इसलिए इसके नोंचने में बेचारी नागर को विशेष तकलीफ उठानी पड़ी। नागर दाढ़ी नोंचती जाती थी और यह कहती जाती थी - “तेजसिंह बड़े मजबूत मसाले से बाल जमाता है!”
आधी दाढ़ी नुचते-नुचते दारोगा का चेहरा खून से लालोलाल हो गया। उस समय मायारानी ने चौंककर नागर से कहा, “ठहर-ठहर, बेशक धोखा हुआ, यह तेजसिंह नहीं, वास्तव में बेचारा दारोगा है।”
नागर - (रुककर) हां, ठीक तो जान पड़ता है। हाय, बहुत बुरी भूल हो गई।
मायारानी - भूल क्या, गजब हो गया! इस बेचारे ने तो सिवाय नेकी के मेरे साथ बुराई कभी नहीं की, अब यह जहर के मारे मरा जा रहा है, पहले जहर दूर करने की फिक्र करनी चाहिए।
नागर - जहर तो बात-की-बात में दूर हो जायगा मगर अब हम लोग इसे अपना मुंह कैसे दिखाएंगे!
मायारानी - मैंने तो केवल दाढ़ी नोंचने की राय दी थी, तूने ही नाक काटने के लिए कहा और अपने हाथ से बेचारे की नाक काट भी ली।
नागर - क्या खूब इसे गालियां भी मैंने ही दी थीं। क्या तुम्हारी आज्ञा के बिना मैंने इनकी नाक काट ली अब कसूर मेरे सिर पर थोप आप अलग होना चाहती हो तुम्हें लोग सच ही बदनाम करते हैं। तुम्हारी दोस्ती पर भरोसा करना बेशक मूर्खता है, जब मेरे सामने तुम्हारा यह हाल है तो पीछे न मालूम तुम क्या करतीं! खैर, क्या हर्ज है, जैसी खुदगर्ज हो मैं जान गई।
इतना कहकर नागर वहां से गई और जहर दूर करने वाली दवा की शीशी ले आई। थोड़ी-सी दवा उस जगह लगाई जहां अंगूठी के सबब से छिल गया था। दवा लगाने के थोड़ी देर बाद उस जगह छाला पड़ गया और उस छाले को नागर ने फोड़ दिया। पानी निकल जाने के साथ ही दारोगा होश में आकर उठ बैठा और अपनी हालत देखकर अफसोस करने लगा। यद्यपि वह कुछ भी नहीं जानता था कि मायारानी ने उसके साथ ऐसा सलूक क्यों किया तथापि उसे इतना क्रोध चढ़ा हुआ था कि मायारानी से कुछ भी न पूछकर वह चुपचाप उसका मुंह देखता रहा।
मायारानी - (दारोगा से) माफ कीजियेगा, मैंने केवल यह जानने के लिए आपको बेहोश किया था कि यह वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार तो नहीं है, इसके सिवाय और जो कुछ किया नागर ने किया।
नागर - ठीक है, बाबाजी इस बात को बखूबी समझते हैं। मैंने ही तो जहरीली अंगूठी से इनकी जान लेने का इरादा किया था! (बाबाजी की तरफ देखकर) मायारानी की दोस्ती पर भरोसा करना बड़ी भारी भूल है। जब इसने अपने पति ही को कैद करके वर्षों तक दुःख दिया तो हमारी- आपकी क्या बात है। इसने लक्ष्मीदेवी वाला भेद भी तेजसिंह से कह दिया और साथ ही इसके यह भी कह दिया कि सब काम दारोगा साहब ने किया है।
मायारानी - (क्रोध से नागर की तरफ देखकर) क्यों री, तू मुझे नाहक बदनाम करती है!
नागर - जब तुम झूठमूठ मुझे बदनाम करती हो और बाबाजी की नाक काटने का कसूर मुझ पर थोपती हो तो क्या मैं सच्ची बात कहने से भी गई! आंखें क्या दिखाती हो मैं तुमसे डरने वाली नहीं हूं और तुम मेरा कुछ कर भी नहीं सकती हो। पहले तुम अपनी जान तो बचा लो!
मायारानी, जिसने इसके पहले कभी आधी बात भी किसी की नहीं सुनी थी, आज नागर की इतनी बड़ी बात कब बर्दाश्त कर सकती थी उसने दांत पीसकर नागर की तरफ देखा। इस बीच में बाबाजी भी बोल उठे, “बेशक सब कसूर मायारानी का है, नागर की जुबान से लक्ष्मीदेवी का शब्द निकलना ही इसका पूरा-पूरा सबूत है।”
बाबाजी की बात सुनकर मायारानी का गुस्सा और भी भड़क उठा। वह तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर नागर पर झपटी। नागर ने बगल में होकर अपने को बचा लिया और आप भी तिलिस्मी खंजर हाथ में लेकर मायारानी पर वार किया। दोनों में लड़ाई होने लगी। वे दोनों कोई फेकैत या उस्ताद तो थीं ही नहीं कि गुंथ जातीं या हिकमत के साथ लड़तीं। हां, दांव-घात बेशक होने लगे। कायदे की बात है कि तलवार या खंजर जो भी हाथ में हो, लड़ते समय उसका कब्जा जोर से दबाना ही पड़ता है। दबाने के सबब दोनों खंजरों में से बिजली की-सी चमक पैदा हुई और इस सबब से बेचारे बाबाजी ने घबराकर अपनी आंखें बन्द कर लीं, बल्कि भागने का बन्दोबस्त करने लगे। वह लौंडी, जो तेजसिंह की चिट्ठी लाई थी, चिल्लाती हुई बाहर चली गई और उसने सब लौंडियों को इस लड़ाई की खबर कर दी। बात की बात में सब लौंडियां वहां पहुंचीं और लड़ाई बन्द कराने का उद्योग करने लगीं।
जब आदमी के पास दौलत होती है या जब आदमी अपने दर्जे या ओहदे पर कायम रहता है, तब तो सभी कोई उसकी इज्जत करते हैं, मगर रुपया निकल जाने या दर्जा टूट जाने पर फिर कोई भी नहीं पूछता, संगी-साथी सब दुम दबाकर भाग जाते हैं, भले आदमी उससे बात करना अपनी बेइज्जती समझते हैं, चाचा कहने वाले भतीजा कहकर भी पुकारना पसन्द नहीं करते, दोस्त साहब-सलामत तक छोड़ देते हैं, बल्कि दुश्मनी करने पर उतारू हो जाते हैं, और नौकर-चाकर केवल सामना ही नहीं करते बल्कि खुद मालिक की तरफ आंखें दिखाते हैं।
ठीक यही हालत इस समय मायारानी की है। जब वह रानी थी, सौ ऐब होने पर भी लोग उसकी कदर करते थे, उससे डरते थे, और उसका हुक्म मानना, चाहे कैसे ही बुरे काम के लिए वह क्यों न कहे, अपना फर्ज समझते थे। आज वह रानी की पदवी पर नहीं है, स्वयं उसे अपना राज्य छोड़ना बल्कि मुंह छिपाकर भागना पड़ा, धन-दौलत रहते भी कंगाल होना पड़ा, वह कल रानी थी, आज उसके पास एक पैसा नहीं है, कल तक उससे लाखों आदमी डरते थे, आज उससे एक लौंडी भी नहीं डरती, कल सैकड़ों आदमियों की जान उसके हुक्म से ले ली जा सकती थी, मगर आज वह खुद एक लौंडी का कुछ नहीं कर सकती। यह उसके बुरे कर्मों का फल था। इसके सिवाय और क्या कहा जाय।
मनोरमा मायारानी की सखी थी, और यह नागर मनोरमा की मुंह-लगी और मायारानी की लौंडी समझी जाती थी। मायारानी के हाथ से मनोरमा और नागर ने लाखों रुपये पाये। यह मकान, रुआब और दबदबा मनोरमा और नागर का मायारानी ही की बदौलत था। यही नागर मायारानी की सैकड़ों गालियां बर्दाश्त करती थी, भला या बुरा जो कुछ मायारानी उसे कहती थी, मानना पड़ता था, मगर आज जब मायारानी किसी योग्य न रही, जब मायारानी धन-दौलत से खाली हो गई, जब मायारानी की ताकत न रही, तो वही नागर बकरी से बाघिन हो गयी, बल्कि नागर की लौंडियों की नजरों में भी मायारानी की इज्जत न रही। अब नागर को मायारानी से कुछ पाने की आशा तो रही ही नहीं, बल्कि यह मौका आ गया कि नागर खुद रुपये से मायारानी की मदद करे, इसलिए झट नागर की आंख बदल गई और वह बात का बतंगड़ बनाकर जान लेने के लिए तैयार हो गई। नागर की लौंडियां जो इस लड़ाई का हाल सुनकर आ पहुंची थीं, नागर का दिया हुआ खाती थीं, और इस समय मायारानी को भी अच्छी निगाह से नहीं देखती थीं। इसलिए ये सब सिवाय नागर और किसी की मदद करना नहीं चाहती थीं, मगर तिलिस्मी खंजरों के सबब से इस लड़ाई के बीच में पड़ने से लाचार थीं। हां, जब दोनों लड़ाकियां ठहर जातीं और खंजर का कब्ता ढीला पड़ने के कारण चमक बन्द हो जाती तो वे लौंडियां नागर की मदद करने को जरूर तैयार हो जातीं।
आखिर नागर ने मायारानी से ललकार के कहा, “देख मायारानी, तू इस समय मुझसे लड़कर नहीं जीत सकती। यदि मैं तेरे सामने से भाग भी जाऊं और काशीराज के पास जाकर तेरा सब हाल कह दूं तो तुझे इसी समय गिरफ्तार करके राजा वीरेन्द्रसिंह के पास भेज देंगे और तुझसे कुछ भी करते-धरते न बन पड़ेगा। तू इस समय यहां छिपकर बैठी हुई है, किसी को भी तेरे हाल की खबर होगी तो तेरे लिए अच्छा न होगा। मगर मैं पुरानी दोस्ती पर ध्यान देकर तुझे माफ करती हूं और साथ ही इसके आज्ञा देती हूं कि इसी समय यहां से भाग जा और जिस तरह अपनी जान बचा सके बचा।”
नागर की बातें सुनकर मायारानी रुक गई और थोड़ी देर तक कुछ सोचती रही, अंत में तिलिस्मी खंजर कमर में रख शीघ्रता से कमरे के बाहर होते से निकल गई। और न मालूम कहां चली गई। नागर ने इधर-उधर देखा तो दारोगा को भी न पाया। आखिर मालूम हुआ कि वह भी मौका देखकर भाग निकला, और न जाने कहां चला गया।

 

 


 

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