भूमि के तल एवं आयाम - 
अब मै (मय) संक्षेप मे क्रमानुसार भूमिलम्बविधान का वर्णन करता हूँ । क्षय (कम करते हुये) एवं वृद्धि (बढाते हुये) विधान के अनुसार विन्यास-भेद इस प्रकार है - चौकोर, आयताकार, गोलाकार, लम्बाई लिये गोलाकार, अष्टकोण, षट्‌कोण एवं द्व्यस्त्रवृत्त (दो कोणों के साथ गोलाकार) ॥१-२॥
इसे भूमिलम्ब कहते है । एक भूमि (के भवन) का मान तीन या चार हस्त से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ की वृद्धि करते हुये चार प्रकार का होता है ॥३॥
पाँच या छः हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये ग्यारह या बारह हाथ तक दो तल वाले भवन के चार प्रकार के मान होते है ॥४॥
तीन तल वाले भवन के सात या आठ हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये पन्द्रह या सोलह हस्तपर्यन्त पाँच प्रकार के मान होते है ॥५॥
नौ या दश हाथ से प्रारम्भ कर पन्द्रह या सोलह हाथ तक चार और पाँच तल वाले भवन के चार प्रकार के मान वर्णित है ॥६॥
अथवा एक तल का क्षुद्र प्रमाण एक हाथ या दो हाथ कहा गया है । कुछ विद्वान्‌ देवों एवं मनुष्यो के कई तल वाले भवन के विस्तारप्रमाण में आधा हाथ जोड़ने या कम करने के लिये कहते है । यह सम या विषम संख्या वाले सभी हस्त-प्रमाण के लिये है । (लम्बाई के लिये) विस्तारप्रमाण मे तीन के साथ विस्तार का सात, छः, पाँच, चार या तिन अंश अधिक जोड़ना चाहिये ॥७-८॥
शान्तिक, पौष्टिक, जयद, अद्भुत एवं सार्वकामिक भवनों मे पूर्वोक्त प्रमाण के अतिरिक्त भवन की ऊँचाई उसके चौड़ाई की दुगुनी, डेढ़गुनी अथवा सवा गुनी अधिक होनी चाहिये ॥९॥
चौड़ाई मे पन्द्रह हाथ से कम माप का भवन क्षुद्रविमानक होता है । सत्रह या अट्ठारह हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाना चाहिये ॥१०॥
(दो-दो हाथ बढ़ाते हुये) सत्तर हाथ तक माप ले जाना चाहिये । चार तल से बारह तलपर्यन्त भवन के सत्ताईस भेद होते है एवं इनमें से प्रत्येक के तीन भेद होते है ॥११॥
तेईस या चौबीस हाथ से प्रारम्भ कर एक सौ हाथ तक तीन-तीन हाथ बढ़ाते हुये भवन के सत्ताईस प्रकार के ऊँचाई के प्रमाण-भेद प्राप्त होते है ॥१२॥
इस प्रकार उँचे भवनों के श्रेष्ठ, मध्यम एवं अधम भेद प्राप्त होते है । तेरह या चौदह हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये पैसठ या छाछठ हाथ पर्यन्त इनके माप प्राप्त होते है । इसी प्रकार पूर्ववर्णित संख्याओं द्वारा चार तल के भवन से लेकर बारह तल तक भवनों के प्रकार प्राप्त होते है ॥१३-१४॥
सत्रह या अट्ठारह हाथ से प्रारम्भ कर पञ्चानबे या छियानबे हाथ तक तीन-तीन हाथ बढ़ाते हुये भवन की ऊँचाई का प्रमाण प्राप्त होता है ॥१५॥
उपर्युक्त सभी भवनों के श्रेष्ठ, मध्यम एवं कनिष्ठ भेद होते है । नौ या दश हाथ से प्रारम्भ कर दो-दो हाथ बढ़ाते हुये पचपन या छप्पन हाथपर्यन्त चौबीस प्रकार के विस्तार प्रमाण - प्राप्त होते है । ये भवन पाँच तल से प्रारम्भ होकर बारह तल तक होते है ॥१६-१७॥
सात, आठ या नौ तल के भवनों का मान के साथ वर्णन किया गया । मान में कुशल स्थपति इन नियमों का प्रयोग करते हुये बारह तलपर्यन्त भवनों का निर्माण कर सकता है ॥१८॥
शिव देवता से सम्बद्ध देवालय बारह, तेरह अथवा सोलह तल का होता है, जिसका विस्तार क्रमशः छत्तीस, बयालीस एवं पचास हाथ कहा गया है ॥१९॥
भवन का विस्तार स्तम्भ के बाहर से मापना चाहिए एवं इसकी ऊँचाई इसके जन्म (मूल) से प्रारम्भ कर स्तूपिका-पर्यन्त लेनी चाहिये । कुछ विद्वान्‌ भवनकी ऊँचाई शिखर-पर्यन्त मानते है ॥२०॥
बड़े भवनों की ऊँचाई कर-प्रमाण में दी गई है । इनका विस्तर दश मे सातवाँ भाग होना चाहिये ॥२१॥
छोटे भवनों की ऊँचाई उनके विस्तर की दुगुने होनी चाहिये । सार्वभौम देवों का मन्दिर बारह तलों का होना चाहिये ॥२२॥
राक्षस, गन्धर्व एवं यक्षो का भवन एकादश तल का तथा ब्राह्मणों का भवन नौ या दश तल का होना चाहिये ॥२३॥
पाँचवे प्रकार का भवन युवराजों एवं राजाओं का होता है, जो सात तल का होता है । चक्रवर्ती राजाओं का भवन छः तल से प्रारम्भ कर ग्यारह तलपर्यन्त होता है ॥२४॥
वैश्यों एवं शूद्रों का भवन तीन एवं चार तल का होना चाहिये तथा पट्टभृत राजाओं (छोटे राजाओं) का भवन पाँच तल का होना चाहिये ॥२५॥
कुशल स्थपति एक सौ हाथ से अधिक ऊँचे तथा सत्तर हाथ से अधिक विस्तृत भवन का प्रमाण अभीष्ट नहीं मानते है ॥२६॥
मैने (मय ऋषि ने) विभिन्न ऊँचई वाले एवं विस्तार वाले अत्यन्त छोटे, मध्यम एवं बडे भवनों का वर्णन प्राचीन विद्वानों के मतानुसार किया । इस प्रकार यह ब्रह्मा आदि देवों एवं मनुष्यो के भवनो का वर्णन नियमानुसार किया गया ॥२७॥
इति मयमते वस्तुशास्त्रे भूलम्बविधानो नामैकादशोऽध्यायः 
 

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