गिरनार में मिला पांच सौ वर्ष का अघोरी

हमारे, मुताबिक हमे सिर्फ प्रमुख गिरी है- एक हिमगिर और दुसरा गिरनार गिरी  हैं। एक पहाडोंका नर रूप है तो दुसरा  मा रूप है| नर नारी का यह रूप नदी नालों का गिरी स्थालोन्का सनातन रूप है| वह साधुओन्का तपस्या स्थल है। कोई गुफा ऐसी नहीं मिलेगी जहा कोई मनस्वी नायाब साधु सन्यासी नहीं तपा न कर रहा हो। कई अघोरी, कई नागा, कई निधी अभी भी प्रयास तपस्या में गुम हैं। एक अनुमान के अनुसार अब तक यहा ८८ हजार साधु तपस्या कर चुके हैं।

गिरनार कि चढाई भक्तिमन की चढाई है। धर्म और अध्यात्म की चढाई है। तपते मन और श्रद्धालु जन कि चढाई है। इस चढाई में बूढे थके मादे भी चढते हैं और जवान उम्र के लोग भी चढते हैं। यह तपा हुआ पहाड़ सबके हाड को तेजी तरी एव ताजगी देता है|  गिरस्थी के झंझटों से मुक्त होने एव संसार सागर से परे होने भी आते है| उसका मन सारी मलिनताओं से ऊपर उठ चंगा हल्का और पवित्र हो जाता है। यह चड़ाई सुबह चार बजे से ही प्रारंभ हो जाती है।

२१ मई १९८५ को हमने भी यह चढाई कि थी। हमारी चढ़ाई एकमात्र सीढ़ियों की चड़ाई न होकर सब राह की खोज की चढ़ाई थी| इसलिए सुबह पाच बजे चढ़ाई शुरू कर संध्या सात बजे घर वापस आये। अगल बगल की चट्टानों पर वृक्षों झाडियों का भी सान्निध्य लिया और बहुत कुछ बह देखा जिसे सामान्यत: दूसरे नहीं देख पाते । गिरनार का प्रत्येक पहाड घुमा है। वहा गुफा है। तपन का आत्म चैतन्य और काया की कंथन हुई धसम राख है या दत्तात्रेय भताहर और गोरखनाथ ही नहीं तपे शिव जी गरम पाज भी जारी है 

पचास बरस से लेकर ग्यारह सौ बरस तक के आनद आकंठ डूबे है। मानव श्रृंख में कई गोरखनाथ, गांधीनगर में यहा अबोले थबोले धूम रहे है, पर कौन उन्हें जान पहचान है। कोई ग्यारह बजे होंगे, हम चाय की दुकान के पिछे कि चट्टान जा बैठे| वहां गूलर का एक घना वृक्ष था...! काही कही चट्टान पर बगीचे  के फुल के मखमली गद्देदार थप्पे जमे हुए थे। कुछ ऐसी चट्टाने भी थी जिनसे शहद जैसा पदार्थ रिस रहा था। यह दूब पत्थरचट्टी कहलाती है और पत्थर से रीस्ता पदार्थ शिलाजीत है...! बन्दर इने बखूबी समझता है। जहा ऐसी शिलाएं होंगी जहां बन्दगें की तादाद अधिक होगी।

गूलर का महत्व:

बन्दर तो वहां कदम-कदम पर है। उस समय हमारी बैठनी में भी तीन-चार बन्दर आ धमके थे। पत्थरचट्टी, शिलाजीत और शरद तीनों मिलाकर बन्दर लड्डू बनाता है और अपनी जच्चा बदरी को खिलाता है। यही एक घना फैला गूलर का वृक्ष था। गूलर के फूल का महत्व मैंने कई जगह सुना।

शरद पूनम की रात को ऐन बारह बजे यह खिलता है तब यह फूल पूरे वृक्ष की जिस-जिस डाल पर जहा-जहां चलता है, वहां-वहां, ही फल लगते हैं। यदि उस वक्त वह फूल किसी के हाथ पड़ जाता है तो उससे मनचाहा फल प्राप्त किया जा सकता है। पत्थरचट्टी चट्टानें भी वहीं होंगी जहां गूलर का वृक्ष होगा।

गूलर की इस चर्चा में मेरा ध्यान छठी कक्षा में पन्ही राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त की उस कविता-पक्ति पर चला गया जिसका अर्थ तब गुरुजी पूरा नहीं खोल पाये थे लगभग ३५ बरस बाद उस पंक्ति का अर्थ पाकर मैं अपने गूढ मन में इतना चकित छिकत हुआ कि कुछ कहते नहीं बनता। वह पंक्ति थी-

“हां हां जनाब तब तो गुलर भी फूल देगा।”

इस चढाव में हमारे कई पड़ाव रहे। कई मंदिर-मंदरिया, देवी-देवता, साधु सन मिले। असत-असाधु भी मिले। ठगी-पाखडी भी मिले।

अबामाता का मंदिर बड़ा ही पावन सुखद लगा। मूर्ति में बड़ी शक्ति बढ़ा दिव्य रूप। भक्ति और शक्ति दोनों मिलती है यहां। मां कई भेष में सबके मध्य विवरती हैं वह सबको जान पाती है। उसे कोई नहीं जान पाता। अजूबे और भी कई मिले...! सबके सम तो कहने के भी नहीं होते।

दत्तात्रेय से लौटते वक्त कुछ लोगों ने हमें बताया कि मी पहाड़े में एक ऐसे अघोरी देखे जो बहुत पुराने जीव है। मिल जाये तो बडा भाग्य।

पांच सौ वर्षीय पुरुष:

यह हमे अच्छे वक्त भी दिखाई देते है| पर तब इसमे कोई नहीं था। अब एक पार बाहिर जा कुछ अबोले अदृश्य संकेत ले-दे रहा था। जैसा उसका आधा अधुरा बिछोना थ, वैसा ही उसका जला अधजला शरीर था। गले हड्डीयों की माला थी पाव में चांदी की मकोडे वाली चैन थी।

हम चुपचाप वहा जाकर बैठ गये थोड़ी देर बाद बाबा ने हमारी ओर आंखे फेरी और कहा

“कल्लाजी के  देश में आये हो? मीरां भी आई थी। शिव मेले में मिली थी।”

फिर वह कही खो गया| हवा में उगलिया देता रहा। नजाने किसको क्या कहता रहा। कोई नहीं था वह| यात्रा के रहस्य चमत्कार में खोये हम अजीब भय से डरते भी जा रहे थे और उसे देवपुरुष मानते हुये आनंद के ऊहापोह को भी जी रहे थे।

रहस्यमय मिरगी कुंड:

नीचे तलहटी में जाकर देखा तो - दो कुंड बहुत ही प्रसिद्ध है। एक तो दामोदर कुंड जिसमें गिरनार की चढाई से पूर्व सभी बहते है और दूसरा मिरगी कुंड जो अब शिवरात्रि को ही स्नान के लिए लाला जाता है। दामोदर कुंड में, प्रारंभ में सभी प्रमुख नदियों व समुद्रों का पानी लाकर डाला गया था...!

मिरगी कुंड में केवल वे ही साधु नहाते है जो तपस्या में लीन है। साध्वियों सताणियों के लिए यह स्नान करना वर्जित है। बहुत पहले यह कुंड मात्र एक नाला था जिसमें सभी लोग नहाते थे। एक बार इसमें एक रजस्वला नारी नहा गई। इस पर एक संत ने उसे मिरगी बनने का श्राप दिया। तब से यह कुंड मिरगी कुंड के नाम से जाना जाने लगा| ईस कुंड को लेकर कई रहस्यमयी, रोमांचक अलौकिक घटनाएं जुड़ी हुई हैं। शिवराय दिन जुलस की समाप्ती पर सभी तपस्वी, साधु, संत, महात्मा इस कुंड में डुबकी लगते है।

सबकी आंखों के सामने से स्नानकर्ता साधु-समुदाय गुजरता है परन्तु बडा आश्चर्य तब होता है कि स्नान के बाद बहुत ही कम साधु लौटते हुए दिखाई पडते हैं। शेष साधु कब कही कैसे विलोप हो जाते है|, इसे कोई नहीं जान पाया। गिरनार के बाबा हमारे संसारिक मन की दिव्य विभूति है। आत्मचैतन्य को उजास देकर नर से नारायण बनने की पावन प्रक्रिया है।

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