मीराबाई जितनी लोकचर्चित है उतना ही उसका जीवनवृत्त अनबुझ पहेली बना हुआ है। वह राजकुल की जितनी मर्यादा में रही उतनी ही लोककुल की गगा बन भक्ति रस में लवलीन रही। यही कारण है कि बहुत कुछ कहने के बावजूद भी उसके सबंध में बहुत कुछ कहना ओर शेष रह गया है। यह एक ऐसी अद्भुत नारी है जिसके सबंध मे इतना अधिक लिखा जाता रहने पर भी कोई लेखन पूर्णता को प्राप्त नहीं होगा और मीरा नित नई होकर उभरती रहेगी।

मीरां का जन्म राजस्थान के नागौर जिले के कुडकी गाव में विक्रमी संवत् १५७२ की श्रावण शुक्ला पंचमी, सोमवार को हुआ। इसके पिता मेडता राव दूदा के पुत्र रतनसिंह तथा माता जयपुर राजा मानसिंह की बहिन जोधाबाई थी।

इतिहासकारों ने जोधाबाई का विवाह मुगल सम्राट अकबर से होना लिखा है जो सही नहीं है। असल में यह विवाह पानबाई से करा दिया गया था। पानबाई राजा मानसिंह के दीवान वीरमल की पुत्री थी जो जोधाबाई की ही हम उन थी। वीरमल का पिता खाजूखा था जो अकबर का सेनापति था जिसे अकबर ने किसी गलती के कारण फासी का हुक्म दे दिया था मगर मौका पाकर खाजूखां वहा से भाग निकला और जयपुर आकर जैनी शाह बन गया। मानसिंह चूंकि अपना खून अकबर को नहीं देना चाहता था अत: वीरमल से गुप्त मत्रणा कर ली गई। फलस्वरूप जोधाबाई और पानबाई दोनों के हल्की पीठी चढी। सब जगह दिखने को जोधाबाई ही दिखाई दी। मंडप तक भी जोधाबाई ले जाई गई परन्तु चवरी में पानबाई हाजिर कर दी। विदाई की बेला में जोधाबाई को सगे सबधियों से मिलाई गई पर होली में पानबाई बिठा दी गई इस समय अकबर ५६ बरस का था| जबकि पानबाई मात्र सोलह वर्ष की थी। जोधाबाई की भी यही उस थी| यह विचार हिन्दू रीति से काजी मुल्ले द्वारा कुरान साथ रखकर करवाया गया। पुरे सात दिन की बारात रही। दहेज में अनाप-शनाप धन-दौलत हीरे-जवाहरात दिये गये। सो दास और रानावन दासियां दी गई। यह दिन वि.स १५६४ फाल्गुन शुक्ला अष्टमी, मंगलबार का था।

अकबर की नीति मानसिंह को अपना सेनापति बनाकर गजपूतों का साग भेद लेने की थी इसीलिए जोधाबाई से ब्याह रचाया पर मार्गसह भी कम खिलाड़ी नहीं था।

जोधाबाई को इधर मेडता के राव दूदा के सुपुर्द कर दी। उसके साथ मानसिंह ने अपने सामत हिम्मतसिह और उसकी पत्नी मृलीबाई को धर्म के मां-बाप बनाकर भेज दिया। दूदा ने जोधाबाई का नाम जुगतकुंवर कर दिया और कुडकी भेज दिया जहां अपने पुत्र रतनसिह से उसका विवाह रचा दिया। रतनसिंह इससे पूर्व चार विवाह कर चुका था पर सतान किसी से नहीं हुई थी। विवाह के एक वर्ष बाद जुगतकुंवर ने एक बालिका को जन्म दिया। इसी बालिका का नाम मीराबाई रखा गया।

मीरां सबकी लाडली थी। दूदा महल में उसका लालन-पालन हुआ। सुदा ने उसे गज घोडे की सवारी करना सिखाया। तीर-तलवार, बदूक, भाला चलाना सिग्माया। सिह, सुअर जैसे जानवरों से लडाया। गोकुल, मथुरा देशनोक व बीकानेर की नार्थयात्रा भी कराई। करणी जी के दर्शनार्थ तो टूदा प्रतिमाह के तीसरे रविवार जाया करते थे तब्ध मीरा भी उनके साथ होती थी। इन महलों में मीरा बारह वर्ष रही। पं. पद्मनाथ नामक एक वृद्ध पुरोहित उसे पढ़ाने आते जिनसे उसने सात घर (कक्षा) तक की शिक्षा ली।

मीरां को कई बार शेरनी का व खरगोश का दूध पिलाया गया ताकि इन जैसी ताकत और स्फूर्ति उसमें बनी रहे। साधु संतों का आना-जाना भी वहां होता रहता था। अयोध्या के संत गुणवंतदास अपनी साधु मडली के साथ वहां दो बार आये जिन्हें दूदा ने बडा मान दिया। गुणवतदासजी को तो अपने महल की पोल में बैठणी पर ही मुकाम दिया रामपथी थे। मीरां जब प्रात चारभुजा के दर्शन कर लौटती तो इनके पास आ जाती। सत तब अपने शालिग्राम को नहलाते धोते गोपीचंदन आदि लगाते मंत्रोच्चार से अभिषिक्त कर रहे होते। मीरा यह सब चुपचाप बड़े ध्यान से देखती रहती।

एक दिन वह इन सतजी से यह शालिग्राम ही मांग बैठी और जिद्द पर चढ गई, लेने को अड़ गई। बूढे गुणवतदासजी के पास और कोई चारा नहीं था। वह शालिग्राम उन्हे मीरां को देना ही पड़ा। इस समय मीरा की उम्र पाच वर्ष की थी। इस शालिग्राम को पाकर मीरां निहाल हो गई। उसके बाद तो मीरा ने इसे किसी को छूने तक नहीं दिया और आजीवन अपने पास छिपाये रखा

यह शालिग्राम गुणवतदास जी से कोई ग्यारह सौ वर्ष पूर्व संत मीठणदास को नेपाल की गडकी गंगा से प्राप्त हुआ था। कहते हैं, मीठणदास जब घूमते हुए नारायणपुर गान पहुंचे लो अपना शालिग्राम कहीं खो बैठे फलस्वरूप उन्होंने अन्न-जल का त्याग कर दिया और गगा से जिद्द कर शालिग्राम माग बैठे। अंत में गंगा उन पर प्रसन्न हुई और शालिग्राम दिया।

मीठणदास के बाद यह शालिग्राम सत-दर-संत चलता रहा। गुणवंतदास उस परम्परा के दसर्वे संत थे। अयोध्या में मीठणंदास ने राममदिर की स्थापना की। यह मदिर आज भी बड़ा प्रभावी है। मीठणदास के बाद क्रमश: लक्ष्मणदास, रामशरणदास, गोकुलदास, भगवानदास, हरिदास, गोविन्ददास, सेवारामदास, नारायणदास और गुणवतदास नामी संत हुए।

अयोध्या में राम मंदिर रामनंदी पंथ के स्वामी अखाड़े का प्रसिद्ध मदिर है। अपनी शोधयात्रा में मैं इसके महत वासुदेवदासजी से मिला। ये संत गुणवंतदास की परम्पग के सतरवें मत है! इन्होंने बताया कि गुणवंतदास के बाद क्रमश: हरिदास, जगन्नाथदास, केशवदास, मनोहरदास, पुरूषोत्तमदास, दयारामदास, गिरधारीदास, माधवदास, पुरूषोत्तमदास, रामशरणदास, देवदास लक्ष्मणदास, जानकीदास, रामदास और भगवानदास हुए। भगवानदास के काल कवलित होने पर यह महंताई इन्हें संभलाई गई।

कहते हैं, यह वही शालिग्राम है जिससे कृष्ण ने जरासध का वध किया था। जरासंध की मृत्यु के बाद कृष्ण जब नारायणी में हाथ धोने गये तो शालिग्राम भी उसी में डाल दिया।

जिस दिन मीरां का जन्म हुआ उसी दिन रतनसिंह ने मीरां के रहने के लिए चन्द्रतालाब के किनारे मेडता में भीरां महल की नींव रखी। ये महल बारह वर्ष में पूरे हुए। बाद में मीरां यहां आ गईं। इनमें दस वर्ष रहने के बाद बाईस वर्ष की उम्र में उसका विवाह चित्तौड़ के राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ कर दिया। फिर इन महलो में कोई नहीं रहा। ये महल दो मंजिला हैं।

भोज पक्के शिव भक्त थे। ये विवाह नहीं करना चाहते थे। विवाह मीरां भी नहीं करना चाहती थी। लगातार युद्ध के दिन होने के कारण भोज की बारात में कुल पाच सरदार, एक बनिया, एक पड़िहार, एक पंडित, एक भाट और बीस डावडियां थीं। इनके साथ दो हाथी और शेष घोड़े थे। भोज ने घोडे पर तोरण बांधा और गज पर इनका टीका किया गया|

मीरां का विवाह भी जबर्दस्ती कराया गया। इसके लिए चंवरी में जयमल ओर ईश्वरदास खड़े रहे। मीरा तो शालिग्राम से विवाह कर चुकी थी। बचपन में देखी बारात के लिए जब उसकी मा से उसने सवाल किया कि घोडे पर कोन जा रहा है तो जवाब मिला कि दुल्हा जा रहा है तब मीरा ने फिर प्रश्न किया- “मेरा दुल्हा कौन है?” माँ ने कह दिया- तेरा शालिग्राम ही तो तेरा दुल्हा है।

भोज ने जगह-जगह शिवलिग स्थापित किये। ग्यारह तो चित्तौड़ मे ही किये। विवाह पूर्व मेडता मे भी शिवलिग स्थापित किया और कहा कि मेरा विवाह न हो तो अच्छा।

मीरां को दहेज में भानकंवर और भूरीबाई दो दासियां दी गई। सागा ने इनकी अगवानी कर कुंभामहल में तीन मंजिले महल रहने को दिये। इनके सामने दो मंजिले महल मीरा को दिये।

भोज की भक्ति निष्काम भक्ति थी। शिवजी ने उन्हें जब निर्भय रहने का स्वप्न दिया तो चित्तौड में इन्होंने निर्भयनाथ का मंदिर बनवाया। इसमें एक ही पत्थर में ब्रहा, विष्णु, महेश की अलग-अलग प्रतिमाएं हैं।

सांगा की मृत्यु के बाद रतनसिंह गद्दी पर बैठा| भोज और रतनसिंह के कभी नहीं बनी। मीरा से भी रतनसिंह नाखुश ही रहा। दोनों को आदर देने की बजाय अपमान और तिरस्कार ही दिया। ऐसी स्थिति में भोज ने गौमुख कुंड के पास अपने लिए अलग से महल बनवाये। यह कार्य इतना शीघ्र कराया गया कि कुल सत्रह दिन में महल बन गये। अठारहवें दिन तो भोज कुंभामहल छोड इनमें रहने लग गये। भोजमहल के पास ही मीरा के रहने के लिए मीरां महल बनवाये गये। पीछे गौमुख कुंड में जाने के लिए सीढ़ियां भी बनवाई। इन महलो में एक मुंवारा भी बनवाया गया जिसमें होकर मीरां भोजमहल पहुचती। मीरां महल के सामने निर्भयनाथ मंदिर के पीछे दासियों के मीरां के लिए पूजा मंदिर बनवाया। इसके पास एक चबूतरा बनवावा हा साधु रु बैठकर भजन कीर्तन करते। कभी-कभी मीरां भी इनकी सत्संग का लाभ लेती।

राणा रतनसिंह की यातनाएँ दिन-प्रतिदिन बड़ी क्रूर होती गईं। इसके लिए उसने कुछ दासिया भी मुकर्रर कर रखी थीं । इन दासियो में एक कालीबाई तो साक्षात् काल ही थी । यह रतनसिह के मुँह लगी हुई थी। इसने मीरां को कौडे लगाने में भी कोई कसर नहीं रखी। कई तरह के लाछन भी इसके द्वारा मीरां पर लगाये गये। रतनसिंह की सात रानियों में सबसे छोटी लालकंवर ने भी आग में घी डालने का ही काम किया| भोज और मीरा दोनों इन यातनाओं को घुट-घुट कर सहते। मीरा ने तो एक बार परेशान हो जहरी प्याला ही ले लिया परन्तु उसका कोई असर नही हुआ। भोज मीरा के पीछे रतनसिंह का पूरा दरबार पड़ा हुआ था। मीरां को 'रामजणी' और भोज को फोतडा' तक कहा जाने लगा।

भोज की उम्र साठ वर्ष की हुई कि उन्होंने निर्भयनाथ की शरण में अपना शरीर छोड दिया। मीरा ने तब अपनी दासियों के सहारे उनका दाह सस्कार किया। मीरा जजी से बीस वर्ष छोटी थी।

विधवा होने पर मीरां ने अयोध्या काशी मथुरा वृन्दावन की यात्रा की। यात्रा पूर्ण कर लौटी तो रतनसिह और खफा हुआ और कहने लगा कि भोज के निधन के बाद मीरा का पगफेरा घर बाहर हो गया है और वह मेवाड कुल को कलकित करने पर तुल गई है।

भोज विहीन मीरां की स्थिति और विकल हो गई। उन्हीं दिनों मीरां को पता चला कि निर्भयनाथ की खाडी में कोई पहुंचा हुआ साधु डेरा डाले हैं। मीरा ने पहले तो अपनी दासियों से पता करवाया और बाद में फिर स्वय गई। यह संत रैदास था जो जोधपुर के पास के पीपलोदा (पीपाड़) का रहने वाला था। यह बडा अन्तर ज्ञानी और अकेला था। इन्हें ‘रोहीडा' कहते थे।

एक दिन मौका पाकर मीरां ने अपना महल छोड़ दिया और रैदास के साथ हो ली। आगे तो कड़ा पहरा था अत: मीरां पीछे के रास्ते से निकल गई। दोनों दासियां भी उसके साथ चलीं।

मेवाड राजघराने की वह रानी जिसे देखने सूरज की किरण तक तरस खाती थी, महल छोड चलती बनी। विक्रम रतन राणा का पराक्रम भी कोई मामूली नहीं था जिनके पास हर समय पच्चीस हजार राजपूतों की फौज तैनात रहती थी, उस घराने की रानी एक साधुडे के साथ चली गई, यह कितनी साहस की बात थी। चित्तौड की सीमा के बाद तो मीरां ने अपना बूंघट भी त्याग दिया। आगे-आगे मीरां, पीछे-पीछे रैदास।

मीरां जिधर से निकलती, गांव के गांव उसे देखने उमड पड़ते। जितने मुँह उतनी बातें सुनने को मिलती। कोई कहता - राजघराने की रानी एक चमारडे के साथ भाग गई। कोई कहता - मीरां ने मेवाड़ वंश को मिट्टी में मिला दिया। कोई कहता उसने पीहर और ससुराल दोनो कुल कलकित कर दिये। मीरां के साथ कभी कोई सतनिया अवधूतनिया भी हो जाती रैदास के माथ सत हो जाते इनमें कई असतनिया और असत भी होते|

मीरा का भ्रमण सदा एक जैसा नहीं रहा, निरूद्देश्य भी नहीं रहा। योजनाबद्ध भी नही रहा। मन की मौज के अनुसार रहा! सारी यात्राएँ साकार रही। साधु सतों का सान्निधय एव सत्सग लाभ, देव दर्शन, पवित्र नदियों, समुद्रों, तालाबों मे स्नान. भोजी का अस्थि विसर्जन, तीर्थाटन, पिडदान आदि का लक्ष्य लिये मीरां चालीस वर्षों तक निरन्तर भ्रमण करती रही।

इस भ्रमण के दौरान वह जाने-माने कृष्ण मदिरों में तो गई ही, भोज के इष्टदेव शिव मंदिरो को भी उसने नहीं छोडा।

मीरा का सर्वाधिक भ्रमण गुजरात का रहा। सर्वाधिक मान भी उसे गुजरात ने ही दिया। सोमनाथ, गिरनार, शामलाजी, अंबाजी, डाकोर, द्वारिका, वृन्दावन, हर्षद, वीरपुर, सिद्धपुर जैसे सभी तीर्थो पर वह गई। डाकोर में तो रैदास को अपना गुरू ही बनाया। तब रैदास ने मीरा को अपना इकतारा दिया और मीरा ने अपने गले में पहनी तुलसीमाला गुरू दक्षिणा के रूप में दी। एक बार तो मीरां यहां लगातार अठारह माह रही। सर्वाधिक चौदह बार हर्षद गई। गिरनार के शिवरात्रि मेले में वह प्रतिवर्ष जाती। सिद्धपुर मे भोजजी का पिंडदान किया। मीरां दातार नाम ही मीरां के कारण पड़ा।

मध्यप्रदेश में मीरां उज्जैन मांड जैसे धर्मस्थलों पर गई। महाराष्ट्र में बंबई पंढरपुर कोल्हापुर नासिक तक के तीर्थस्थलों का पुण्य कमाया। कन्हेरी गुफा मे भी उसने वास किया। कोल्हापुर में तो स्वय शिवाजी ने अपने यहा मीरां की मेहमानदारी की। मथुरा काशी अयोध्या गया भी मीरा के मुख्य यात्रा स्थल बने। वह रामेश्वरम् भी गई।

अपने यात्राकाल मे मीरा ने तुलसी, कबीर, रसखान, रामानंद, जीव गोस्वामी, नरसी आदि जाने-माने सत भक्तों से भेंट की। गगा, यमुना, सरयू, गोमती, अहिल्या आदि पवित्र नदियों में उसने भोजजी की अस्थियों का विसर्जन किया और स्नान ध्यान का लाभ लिया।

राणा रतनसिंह के बाद जब बालक उदयसिंह राणा बना तो उसन मारा को सुध लेनी चाही। रतनसिंह को बुलाकर कहा कि मीरां को कष्ट देकर अच्छा नहीं किया। रतनसिंह ने इसे अपना अपमान समझा और कहा कि मै मीरां को यहां वापस बुलवा लेता हू। यह कह रतनसिंह ने दो राजपूत सरदार तथा एक ब्राह्मण पंडित को भेजा कि मीरा जहा भी, जैसी भी स्थिति में हो, लाकर हाजिर करो।

तीनों पता लगाते ढूंढते अंत में द्वारिका पहुंचे वहां मदिर मे पंडित वोला कि अभी तो हम आये है फिर रतनसिंह आयेगे। मीरां ने सोचा, जबर्दस्ती से जाने की बजाय तो अपने को यहीं खो देना अच्छा है फलस्वरूप दूसरे दिन बडे सवेरे तीन बजे समुद्र के किनारे वाले समुद्रनारायण मंदिर से कूद गई। समुद्र में कूदते वक्त उसकी साडी का पल्ला वहां पडे पत्थर में अटका रह गया। पडित को जब पता चला तो बडा अफसोस हुआ मगर चिता यह लगी कि अब रतनसिंह को क्या कह विश्वास दिलायेंगे कि मीरा नही रही।

यह सोच उन्हें रैदास का स्मरण हो आया कि क्यों न उस चमारडे को ही जा पकडे जिसके कारण सारा घराना बदनाम हुआ। वहीं उसकी ढूढ शुरू हुई। समुद्र के किनारे पास ही, उसकी झोंपडी थी। उसमें रैदास मिले। वही उनका सिर उडाया और उसे लेकर चित्तौड पहुंचे। रैदास का धड समुद्र में डाल दिया। यह दिन संवत् १६५४ माघ कृष्णा अमावस्या का था।

मीरा अपने श्याम रंग समुद्र में जा मिली। जीते जी भी वह अपने श्याम रंग में ही तो रंगी रही थीं समुद्र चाहता तो मीरा को अस्वीकार कर सकता था जैसे रामदेवजी के पिता अजमलजी को किया। भोज और मीरा दोनों का रास्ता सत्य का था इसलिए वे शक्ति और सत्ता से दूर रहे। तीर्थकर भी शूर थे पर वे अपने शूरत्व से परे रहे और सत बने।

मीरां सर्वप्रकारेण अपने कृष्ण में खोई रही। बेसुध होने पर जब वह अपने श्याम से बात करती तो लोग उसे ही उसकी वाणी समझ पदों में बांधते रहे। उसने कोई पद नही लिखा। कभी गाया नाचा भी नहीं पर आज उसी के नाम के सैकडो पद कई भाषाओं में बिखरे मिलते हैं। पूरे विश्व इतिहास में मीरा जैसी अद्भुत भक्ति वीरागना नारी नहीं हुई।

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