किसी के लिए ये किशोरावस्था रही होगी , तो किसी के लिए बाल्यावस्था , कोई गृहस्थी की गाड़ी को खींच, घसीट या दौड़ाये चला जा रहा था तो कोई वानप्रस्थ आश्रम में मुक्तिकामी तो कोई स्थितप्रज्ञ था । जी हां नाइंटीज था तो ऐसे में सभी के लिए बहुत कुछ था , कुछ यादें जो पूरी की पूरी शताब्दि को सँजोये हुई थी तो कुछ आने वाली सदी को एक खुबसूरत याद बनाने की क़वायद में थी ,और इन यादों में तथाकथित 'इडियट बॉक्स" या "बुद्धू संदूक" अर्थात टेलीविज़न एक क्रांतिकारी भूमिका  के रूप में शामिल हो रहा था । 

संचार का एक दुरुस्त रूप जो श्रव्य के साथ साथ दृश्य माध्यम से भी जन मानस के सुषुप्त चेतना पर दस्तक दे रहा था । इस जादुई और मंत्रमुग्ध करते संचारी मिलन का जरिया था घर घर मे आहिस्ता आहिस्ता खुलने वाला टीवी का पर्दा। जिसके सम्मोहन का जादू ये था कि दूरदर्शन की सुसंस्कारी परिचारिकाओं शोभना जगदीश, अविनाश कौर सरीन ,सलमा सुल्तान, प्रतिमा पूरी के सुबह के नमस्कार के साथ टीवी का मनोहारी परदा खुलता था  और शुभ रात्रि के अभिवादन के साथ लोग बाग भी उन्हें अलविदा कहकर टीवी बंद करते थे ।
दूरदर्शन के कार्यक्रमों के चर्चे रोज़मर्रा का शग़ल था मानो ,लोग बाग अक्सर शर्तें लगाते थे कि शोभना जगदीश या सलमा सुल्तान मुस्कुराते चेहरे के साथ  आज किस रंग की साड़ी में कार्यक्रम की रूपरेखा बताएंगी ।

क्रिकेट के किसी महत्वपूर्ण मैच का प्रसारण हो या रविवारीय सुबह का कोई सर्वप्रिय सीरियल , प्रायः कोई एक विशेषज्ञ घर के छज्जे पर उस एंटीना के सही कोण पर स्थित करने की जद्दोजहद में लगा मिल जाता था ।

टीवी का तब सामान्य तौर पर अर्थ दूरदर्शन से था और इस छोटे से परदे पर आम लोगो के समक्ष जैसे दुनिया सी खुलती थी , एक ऐसी दुनिया जिसे सिर्फ अब तक सुना या पढ़ा जाता रहा हो । रामायण, महाभारत के प्रसारण के वक़्त सड़कें मानों विधवा सी हो जाती थी , घरों में टेलिविज़न को किसी मंदिर की भांति फूल माला, धूप अगरबती से सजाकर पूरा मोहल्ला एक साथ उत्सव रूप में इसे देखता था । रामायण के अरुण गोविल श्री राम और अभिनेत्री  दीपिका सीता के रूप में आज भी बहुतायत के मन मे प्रतिस्ठित हैं ,गोया कि अब और कोई छवि ध्यान में ही नही बैठती । बुनियाद और हम लोग और नुक्कड़ जैसे धारावाहिक जैसे एक जिम्मेदार और सभ्य समाज के निर्माण की आधारशिला रख रहे थे , परिवार और समाज की सामूहिकता का ये वैभव काल आहिस्ता आहिस्ता सृजित हो रहा था जैसे । जहां चन्द्रकान्ता और अलिफ लैला जैसे धारावाहिक युवा दर्शकों को लक्ष्यित थे लेकिन इसका रसास्वादन प्रत्येक उम्र के लोग कर रहे थे । तो जंगल बुक और शक्तिमान जैसे सीरियल ने भी हर आयुवर्ग को आकर्षित किया । आर के नारायणन रचित मालगुडी डेज और दूसरे व्योमकेश बक्शी , बेताल पच्चीसी और तमाम ऐसी साहित्यिक रचनाओं के चित्रण का ये मानो स्वर्णिम काल था । 

स्त्री विमर्श को आज भले महिमामंडित किया जा रहा हो लेकिन उस दौर में भी 'शांति 'और 'औरत' सरीखे डेली सोप स्त्री के संघर्षों और उसके द्वारा अर्जित सम्मान और बराबरी के अधिकार की लड़ाई को सशक्त हस्ताक्षर दे रहे थे । स्वाभिमान , सर्कस, चन्द्रकान्ता जैसे धारावाहिक भविष्य के सिनेमा जगत के सितारों और सुपर सितारों को भी गढ़ने का कार्य कर रहे थे 

बाद के वक़्त में डीडी मेट्रो और दूरदर्शन के अन्य सहायक चैनलों ने धीरे धीरे समाचार , साहित्य, खेल, विज्ञान के क्षेत्रो को भी संचालित करना शुरू कर दिया ।

कुल मिलाकर तत्कालीन मीडिया वर्तमान की एकपक्षी वर्जनाओं से मुक्त जागरूकता और चेतना के जागरण का कार्य कर रहा था । उसके लिए दूरदर्शन और आकाशवाणी के काबिल और ईमानदार अधिकारियों को भी श्रेय दिया जाना चाहिए जो एक सकारात्मक और उत्पादक समूह के रूप में कार्य कर रहे थे । कुछ सीमा तक ऐसे ऊर्जित  वातावरण से नजदीकी होने के कारण इसकी तस्दीक मैं स्वयं भी करता हूँ । आगे हम शेष पक्षों के क्षितिज पर भी एक विहंगम यात्रा करने का प्रयास करेंगे । इन क्षितिजों की तलाश में हम देखेंगे कि कैसे आधुनिक काल के किसी भी दशकीय अवधि के समाज और उसके चरित्र को सिनेमा और संगीत बखूबी दर्शा जाते हैं , आगे हम इन्ही शेष आयामों की परतें खोलने की कोशिश में रहेंगे

~ऋतेश ओझा

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