सोने से पहले हर रोज़ रात को वे बच्चे बैठकर  गप्प लड़ाया करते थे। 
अलाव के चारों तरफ घेरा बनाकर वे बैठ जाते थे और जो कुछ उनकी
जबान पर आए, कह डालते थे।  
 मंद प्रकाशित वातायन में से संध्या की
आभा ने स्वप्निल नयनों से कमरे में झांका। प्रत्येक कोने में से मूक
छाया-अप्सराएं उड़ीं और अपने पंखों में न जाने कैसी-कैसी विचित्र कहानियां
समेट कर ले गईं।

यह ठीक है कि बच्चे जो जी में आया कह डालते थे; लेकिन उनके
मन में प्रेम और आशा के रंगों से रंजित जीवन के उज्ज्वल प्रकाशपूर्ण पुष्प
ही खिला करते थे। उनकी कल्पना में उनका सारा भविष्य ही जैसे एक
स्वच्छ और दीर्घ विश्रांत दिवस होता था; बड़े दिन और ईस्टर के बीच में
समय की कोई अवधि नहीं होती थी।  
 वहां-उस पार-कहीं फूलों की
झिलमिल कर्टेन के पीछे जैसे समस्त जीवन का स्पन्दित प्रकाश चमचम
करती हुई ज्योति में समाहित हो रहा था। 
शब्दों की ध्वनि मात्र निकलती
थी और वे कुछ अटपटे-से समझे जाते थे। किसी भी कहानी का न कोई
आदि था और न कोई अंत। यही नहीं, कोई निश्चित रूप भी उसका नहीं
होता था। कभी-कभी चारों के चारों बच्चे एक साथ बोल पड़ते थे, किंतु
फिर भी वे एक दूसरे की बात में गड़बड़ी नहीं डालते थे।  
वे सबके सब
निर्निमिष और अवाक्‌ प्रकाश के उस स्वर्गिक सौंदर्य को देख रहे थे, जिसमें
प्रत्येक शब्द अपने सत्य और निर्माल्य से जगमगाता था, जहां प्रत्येक कहानी
स्वच्छ और सजीव थी, और जहां प्रत्येक गल्प का ज्योर्तिमय अंत होता था।

 
 वे सब बच्चे आपस में इतने मिलते-जुलते थे कि उस मंद आभा में
चार वर्ष का सबसे छोटा तोन्शेक, दस वर्ष की सबसे बड़ी लोइजका को
अलग से पहिचाना नहीं जा सकता था। सबके मुख दुबले और लमछोरे
थे; आंखें बड़ी-बड़ी थीं-वे आंखें, जिनकी दृष्टि अंतर्खोज करती थी-रहस्य
को भेदती थी।
एक दिन शाम को न जाने कहां से किसका क्रूर हाथ उस स्वर्गिक
प्रकाशपुंज की ओर बढ़ा और उसने निर्ममता से छुट्टियों, कहानियों और
गाथाओं की सारी मूदुल कल्पनाओं पर आघात किया; डाक से चिट्ठी आई
थी कि पिता इटली की समर भूमि में 'काम आए !' 
कुछ अज्ञात, नया, अजीब,
और उनकी समझ से नितान्त परे उनके सन्नमुख आ उपस्थित हुआ। वह
वहां खड़ा तो था लंबा-चौड़ा-विकराल, किंतु उसके मुख, आंख, नाक,
कान, हाथ, पैर कुछ भी नहीं थे। न तो वह जन-रव से पूर्ण सड़क पर
से आया था, न शांत कोलाहल से युक्त गिरजे से ही; अलाव के चारों ओर
व्याप्त द्वाभा का निवासी भी वह नहीं था और न था उन कहानियों का
कोई पात्र, जो वहां कही जाती थी। 
 वह प्रसन्‍नतादायक तो था ही नहीं, किंतु कोई विशेष दुखदायक भी

नहीं थी, क्योंकि वह मृत था!-क्योंकि उसके आंखें नहीं थी, जिससे कि
मालूम हो सकता कि वह कहां से आया है, और न उसके जीभ ही थी,
जिससे वह शब्दों द्वारा कुछ व्यक्त कर सकता। उस प्रेतात्मा जैसे अरूप
जीव के सन्मुख बुद्धि हीन-सी कुंठित और शर्म से गड़ी हुई निश्चल खड़ी
थी। जैसे वह अरूप जीव अंधेरा, असीम, और अथाह समुद्र हो, जिसके
तट पर कोई उस पार जाने के लिए मौन ओर अशक्त-सा खड़ा हो!
तोन्शेक ने आश्चर्य से पूछा-“लेकिन वह लौटेंगे कब?” 
लोइज्का ने क्रोधभरी दृष्टि से उसे झिड़क दिया-“अगर वह काम
आ गए हैं, तब फिर लौटकर कैसे आ सकते हैं?” 
 सब चुप हो गए-जैसे वे उस अंधेरे असीम, अथाह सागर के तटपर
आ खड़े हुए हों, जिसके पार उन्हें कुछ सूझता ही न था।
“मैं भी लड़ाई पर जा रहा हूं!”-सात बरस का मैतीशे यकायक बोल
पड़ा-मानों सब बात सही-सही वह आसानी से समझ गया हो । और वास्तव 

 में जो कूछ आवश्यक था, वह यही था भी।
“तू अभी बहुत बच्चा है!” उस चार बरस के तोन्शेक ने जिसे अभी.
अपना जांघिया भी पहनना नहीं आता था, गंभीरतापूर्वक भर्त्सना की। । 
 मिल्का सबसे पतली और दुर्बल थीं। वह अपनी मां के बड़े शाल में |
ऐसे गुड्डी-मुंडी लिपटी बैठी थी कि वह राह चलते की गठरी जैसी लगती...
थी। उस परछाई के झुटपुटे नीड़ में से नन्ही  चिरिया की तरह महीन और
मुलायम स्वर में बोल पड़ी-' "लड़ाई क्या होती है? बताओ न मैतीशे-लड़ाई
की कहानी कहो।" ।
भैतीशे ने समझाया-“'सुन, लड़ाई ऐसी होती है।  
 आदमी लोग एक

. दूसरे के चाकू भोंकते हैं, एक दूसरे को तलवारों से काट डालते हैं-बन्दूकों

से गोली मार देते हैं! जितना ही ज़्यादा मारो ओर काटो, उतना ही अच्छा
होता है। कोई तुमसे कुछ नहीं कह सकता, क्योंकि वैसा तो करना ही पड़ता
है-होना ही पड़ता है। इसी को लड़ाई कहते हैं-समझी ”

किंतु मिल्का नहीं मानी-नहीं समझी-“पर वे एक दूसरे का गला
क्यों काटते हैं-क्यों चाकू भोंकते हैं-क्यों गोली मारते हैं?”
 
“अपने राजा के लिए!” मैतीशे ने उत्तर दिया। 
और सब चुप हो गए! 
उनकी धुंधली आंखों को अपेन सन्मुख व्याप्त उस विस्तृत मंद उजाले
में गौरव के तेज से ज्योतित कुछ विशाल सा उठता हुआ दिखाई दिया!
वे सबके सब निश्चल बैठे हुए थे-न हिलते थे, न डुलते थे-सांस भी जैसे
डर-डर कर ले रहे थे। 
 शायद उस दुर्वह मौन के भार को हल्का करने के लिए मैतीशे ने
अपने विचार फिर एकत्रित किए और निहायत सहूलियत के साथ बोला-“'मैं
भी अब दुश्मन से लड़ने युद्ध में जा रहा हूं!”
“दुश्मन कया होता है? क्‍या उसके सींग होते हैं ?””-मिल्का की महीन
आवाज यकायक पूछ ही तो बैठी। 
“और नहीं तो क्या! वरना वह दुश्मन कैसे हो””-गंभीरता से-बल्कि
क्रीब-क्रीब गुस्सा होकर ही तोन्शेक ने जोर देकर जवाब दिया। 
और अब तो मैतीशे को भी इस सवाल का ठीक-ठीक जवाब नहीं

मालूम था, 
 फिर भी धीरे से कुछ रुकता-रुकता वह बोला-“'मेरे ख़्याल से.
..तो नहीं होते!”
 लोइज्का ने बेमन से कहा-“उसके सींग कैसे हो सकते हैं? वे हमारी
ही तरह तो आदमी होते हैं”'-फिर कुछ सोच-विचार कर बोली-“उनके
सिर्फ आत्मा नहीं होती!”
 फिर एक लंबी चुप।

 

 तोन्शेक ने चुप तोड़ी--“लेकिन आदमी लड़ाई में काम कैसे आ जाता
है?"
“यानी वे उसे जान से मार डालते हैं?-मैतीशे ने सहूलियत के साथ
समझाया। 
“पापा ने तो मुझे बंदूक लाने का वायदा किया था!” 
 “अगर वे मर गए हैं, तो अब तेरे लिए बंदूक कौन लाएगा ?”-लोइज़्का
ने यों ही लौटकर उत्तर दे दिया।
 “और उन्होंने उन्हें मार डाला-जान से?”
“हां, जान से!”
शोक और मौन ने अपनी आंखें गड़ा दीं अंधकार में-अज्ञात
में-कल्पनातीतः हृदय और मस्तिष्क के परे। 
 और इसी समय झोपड़ी के सामने जो बेंच पड़ी हुई थी, उस पर बूढ़े
दादा और दादी बैठे थे।

 बाग के घने झुरमुट में होकर अस्तप्राय सूर्य की अंतिम अरुण किरणें
चमक उठीं । 
 संध्या मूक-थी, पर एक लंबी, भर्राई हुई और कुछ घुटी हुई सी सुबकन
गौशाला से निकल कर शब्दहीन शून्य में चली गई...शायद वहां गाय अपने
बच्चे के लिए रंभाई थी!
न जाने कितने दिन बाद एक दूसरे के हाथ पकड़े हुए वे वृद्ध और
वृद्धा आज बिल्कुल पास-पास बैठे हुए थे-पर सर झुकाए हुए
उस संध्या की स्वर्गिकि आभा के अवसान को उन दोनों ने देखा मौन
और अश्रुहीन दृगों से...

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