प्रेम का पवित्र पाठ

शोहदा रात भर नहीं सो पाया था। प्रीति के कहे एक-एक शब्द उसे उलझन में डाल रहा था। वह जानता था कि प्रीति को पाने के लिए और अपनी स्थाई जिंदगी की शुरुआत करने के लिए एक न एक दिन तो उसे प्रीति के पिता के पास जाकर उनसे प्रीति का हाथ मांगना ही पड़ेगा। लेकिन वह डर भी रहा था कि कहीं उसके पिता मेरे प्रस्ताव को अस्वीकार न कर दे। वैसी स्थिति में उसके भावुक हृदय पर क्या गुजरेगा। क्या वह उस विक्षोभ को सह पाएगा। व्यथित हृदय झकझोर रहा था। मन व्याकुल था। ऐसा सोचकर उसका अंतरात्मा कांप जाता था, दिल मे एक हलचल सा होने लगता था।

वह स्वयं भी तो कभी प्रीति से खुलकर बात नहीं कर सका था। वह कभी भी अपने प्यार को, अपने निश्चय और पवित्र प्रेम के आकर्षण में बांध नहीं सका। सिर्फ उसके ही आकर्षण में यौन सुख पाने की कल्पना में ही धीरे-धीरे सुलगता रहता था। वह कभी भी अपने बातों से प्रीति को रोमांचित नहीं कर सका था। वह सोचता आखिर मेरे प्यार की वास्तविकता क्या है। मन का रोमांस, यौन सुख या कुछ और...वह समझ नहीं पा रहा था। 

पिछले मुलाकात से वह इतना तो अनुमान लगा ही लिया था कि प्रीति यदि उससे लगाव नहीं रखती है तो तिरस्कार भी तो नहीं करती। उसे विश्वास हो गया था कि प्रीति उसके प्रेम को सम्मान करती है। यदि प्रीति के पिता हमारे और प्रीति के रिश्ते को कबुल कर लेते हैं तो प्रीति को कोई एतराज भी तो नहीं है। वह स्वयं भी तो यही चाहती है कि मैं उसके पिता से उसके लिए बात करूँ और उसका हाथ मांग लूं।

कई बार तीव्र इच्छा हुई कि वह प्रीति के पिता से जाकर बात करे लेकिन हर बार उसका विश्वास डगमगा जाता था। उसे लगता उसके जीवन मे एक रिक्तता भरता जा रहा है और वह किसी बंजर और सुनसान धरती पर विकल बेदना की आग में तपता व्यथित और निःसहाय अकेला खड़ा है। खुबसूरत बाग लगाने के ख्याल से उसने चारदीवारी का निर्माण किया लेकिन उसमें कोई भी पुष्प खिल नहीं पा रहा है। 

वह जानता था कि प्रीति जल्द ही, आज नहीं तो कल किसी पर पुरुष की होकर रह जाएगी, फिर उसपर उसका किसी प्रकार का अधिकार नहीं रह जाएगा , तब क्या वह अपने प्रेम आकांक्षा को , मात्र एक यादगार स्वप्न के धरोहर के रूप में रख कर जी सकेगा। उसे तब क्या फिर प्रीति से घृणा नहीं होगा। प्रीति को न पाने का अहसास उसके जीवन में एक प्रकार का विरक्ति का भाव भर देता था , और तब उसका भरपुर कोशिश होता कि प्रीति को रोक ले,  उसके पिता से प्रीति को मांग ले। और जब वह अपनी जिज्ञासा को दम तोड़ता हुआ देखता तब उसका कोशिश होता उसे भुलाने की। लेकिन ये भुलना कितना कठोर होता है। कितना मर्माहत कितना तप्त। दानवी चट्टानों से भी भयानक और क्रूर और तब वह विकल होकर छटपटाने लगता।  जैसे-जैसे दिन बीतते जाते शोहदा की इच्छाएं, विकलताएँ, और भी तीव्र होता जाता था।

इधर पिछले कई दिनों से उसकी माँ की उसपर पड़ताल हो रही थी। बूढ़ी माँ बात बेबात शोहदा से उसके रिसर्च शुरू न करने का कारण पूछती, उसके भावों को समझ कर  उसके मन के रहस्यों को जानने की कोशिश करती, लेकिन शोहदा पर तो दुसरा ही नशा उसे अपने गिरफ्त में ले चुका था। 

आगरे से  प्रोफेसर साहब का दो-दो बार टेलीग्राम भी आ चुका था। लेकिन शोहदा उनको कोई भी जबाब देने या देर सवेर होने पर उनसे क्षमा याचना करे भी तो  कैसे। उनके द्वारा शोहदा के नाम प्रेषित पुस्तक, जिसपर उसे समीक्षा लिखना था उसपर भी शोहदा का काम आधा अधूरा करके पड़ा हुआ था । जब भी वह नोट्स लेकर समीक्षा लिखने बैठता, उसके आंखों के सामने प्रीति का मोहक रूप उभर आता। कभी-कभी उसे अपने ऊपर गुस्सा भी आता, कभी प्रोफेसर साहब पर झल्लाता, क्या पूरे भारत वर्ष में एक मैं ही था समीक्षा लिखने के आत्मीय। मैं इसलिए तो बड़ी-बड़ी डिग्रियां नहीं लिया थ कि पुरे जमाने का तस्वीर खींचता फिरूँ।

आज तीन दिनों से शोहदा एक तीव्र इच्छा लेकर प्रीति के घर की तरफ चला जाता, उसके पिता से प्रीति का हाथ मांगने, लेकिन वहां तक पहुँचकर वह अपना विश्वास, अपना धैर्य खो देता था। कुछ दिनों से वह अनुमान भी लगा रहा था कि प्रीति के घर आए दिन मेहमान आ रहे हैं, और प्रीति के मोल भाव पर नित्य चर्चाएं हो रहा है। और तब से वह और भी व्याकुल रहने लगा है। उसे ज्ञात हुआ---धीरे-धीरे वह घोर निराशाओं के बवंडर में फंसता जा रहा है, जलन भी हो रहा है उसे , घृणा भी हो रहा है , कभी स्वयं पर, कभी प्रीति पर, कभी प्रीति के पिता पर।

शोहदा आज अचानक ही प्रीति से टकरा गया।  आज वह उसे देखकर मुस्कुराया नहीं, बल्कि अजनवियों की भांति उसे देखने लगा। सारा उत्साह, सारा उन्माद जैसे धरासाई हो गया। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि ऐसा क्यों हो रहा है। उसका चाहत, उसका अरमान, उसका ख्वाब उसके सामने खड़ी मौन आमंत्रण दे रही है और वह जैसे लज्जा और ग्लानि से दबा जा रहा है। ऐसा क्यों हो रहा है। मुँह से एक बोल भी नहीं फुट रहा था। जैसे होंठ तलुओं से चिपक गया हो। शोहदा के आंखों में पहले की अपेक्षा उल्लास नहीं था बल्कि कातरता था, उन्मेष था,एक अजीब किस्म का विराग था जिसे प्रीति सहज ही भांप गई। 

एक पल को प्रीति को अचरज हुआ फिर गंभीर हो गई वह। शोहदा को रोकते हुए बड़े ही इत्मीनान से बोली---”शोहदा मैं जानती हूँ  कि तुम मुझे बहुत पसंद करते हो, तुम्हारे इस विरले प्रेम को नमन करती हूँ, मैं। मुझे विश्वास है मेरे लिए तुम्हारा यह प्रेम, हर स्त्री से लगाव के लिए तुम्हे प्रेरित करेगा। मेरे प्रति तुम्हारा यह आकर्षण जिसे तुम आज तक प्यार कहते आए हो, भुल जाओ क्योंकि मैं किसी और कि अमानत बन गई हूं। तुमने बहुत देर कर दिया शोहदा। तुम अभी तक अविश्वास के भंवर में पड़े हुए हो, खैर अब मैं चाहकर भी तुम्हारा जीवन संगिनी नहीं बन सकती। हां यदि तुम्हारा प्रेम मेरे लिए इतना ही सार्थक है तो मुझपर एक दया करो मेरे सम्मान की रक्षा करो । एक सच्चे दोस्त तो बन ही सकते हो । मैं एक सच्चे दोस्त की तरह जीवन भर तुम्हारा कद्र करती रहूंगी। क्या एक अच्छे और सच्चे दोस्त बनकर मेरी सहायता , मेरे सम्मान की रक्षा नहीं करोगे।"

शोहदा धीरे से मुस्कुराया जिसमे असीम वेदना था, तड़प की गूंज  भी था । बड़े ही सहज भाव से बोला---”तुम कहती हो तो ठीक है, लेकिन मैं उन जज्बातों को नहीं भुला सकता जो तुम्हारे शरीर के मादक सुगंध से खिल उठा है। । तुम सम्मान की बात करती हो, तो न तो मैं पहले तुम्हारा आकर्षण था न आज हूँ, फिर मेरा तुमपर क्या अधिकार है।" शोहदा बेसुध से बोलता चला गया। 

प्रीति उसके तड़प को भांप गई। बहुत दया आया शोहदा पर, दो कदम आगे बढ़ी और बिल्कुल उसके समीप पहुंचकर उसके सिर को अपने कोमल हथेलियों में ले ली और उसके आंखों में आंखे डालकर धीरे से बोलने लगी---”वास्तव में तुम बावले हो गए हो। यह पागलपन ही है जिसे तुम प्यार कहते हो, वह प्यार नहीं है शोहदा वह यौन विकृति है तुम्हारा, तुम्हारा शारीरिक और मानसिक कमजोरी है। यह कभी भी तुम्हे इंसान की तरह सोचने नहीं देगा। यह इंसान के आत्मा को जला देता है। मेरा इरादा तुम्हे दिल दुखाने का नही है, लेकिन ये प्रेम उपासना तुम्हारे ही जीवन के विकास में बाधाएं उत्पन्न करेगा। शरीर का आकर्षण, नंगे और कोमल अंगों का रोमांस मृग तृष्णा है। किसी के रूप लावण्य पर मोहित होना या रीझना और उससे प्रेम की आकांक्षा कर उसे अपनी अंतरात्मा में ही जीते रहना मुर्खता है। प्रेम आत्मा से होता है, दिल के धरातल पर खिलता है। सिर्फ आंखों की तृप्ति प्यार नही है। तुम अपने सुनहले भविष्य को देखो शोहदा । अपने आप से प्रेम करना सीखो।  तुम अपने आत्मा से पूछो कि तुम इस धरती पर क्यों आए हो एक विराट उधेश्य तुम्हारे सामने पड़ा है, उसको देखो परखो और आगे बढो। तुम एक पढ़े लिखे इंसान हो, तुम्हे कामयाब होने के लिए एक माँ सपने देख रही है, तुम्हारे  सफलता के इंतजार में लाखों कायनात  प्रतीक्षा कर रहे होंगे ,उन सब से प्रेम करना सीखो। तब तुम सुख का ही अनुभव करोगे।“

शोहदा का चित्त गदगद हो गया। मन प्रसन्न हो गया। उसका स्थिति उस समझदार बालक से हो गया जो किसी कीचड़ में खिले खुबसूरत कमल को देखकर रोमांचित हो उठा हो और उसे पाने के लिए लालायित होकर चल पड़ा हो और किसी के मना करने पर कि आगे कीचड़ है, फंस जाओगे, खुश होता है कि चलो सही वक्त पर कीचड़ में डूबने से बच गया।

शोहदा सहज भाव से बोल पड़ा---”प्रीति आज तुम प्रेम का सच्चा और पवित्र पाठ पढ़ाकर उपकार किया है मुझपर। मैं तुम्हारे उत्तम विचार और आदर्शों का कायल हो गया हूँ। सचमुच मैं तुम्हारे सौंदर्य के उन्माद में स्वयं को भूल गया था। भुल गया था अपनी माँ की अरमानों को। भूल गया था स्वयं को, कि मेरे ऊपर भी किसी ने विश्वास करके कोई जिम्मेवारियां सौंपा है। और मुझे उस जिम्मेवारी को पूरा करना है। तुम ठीक कहती हो मेरा भी जीवन जीने का कोई उधेश्य है, जिसे मैं अपने ही तथाकथिक उन्माद में भुल गया था। तुम सही वक्त पर मुझे उसका भान करा दी है। वस्तुतः अपनी स्थिति, स्वयं का पहचान ,प्यार की पवित्रता को भी नहीं पहचान पाया। आज तुमने मुझे अपना विराट लक्ष्य याद करवा दी।  प्रीति तुमने मुझे दलदल में जाने से बचा ली है।  प्रीति तुम अब अपने घर को जाओ, मैं तुम्हारी बातों का सम्मान करता हूँ।" कहकर शोहदा तुरंत ही वहां से चल पड़ा, जैसे अब कोई भी सौंदर्य उसे रीझा नही सकता। चेहरे पर प्रसन्नता के भाव थे।

प्रीति देर तक उसे जाते हुए देखती रही, पूरी तन्मयता और प्रसन्नता के साथ। 

अगले अंको में जारी...

©सुरेन्द्र प्रजापति
असनी, गया बिहार

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