मैं नहीं कह सकता कि भूतनाथ ने ऐसा क्यों किया! भूतनाथ का कौल तो यही है कि मैंने उनको पहचाना नहीं, और धोखा हुआ। खैर जो हो, दयाराम के गिरते ही मेरे मुंह से 'हाय' की आवाज निकली और मैंने भूतनाथ से कहा, 'ऐ कम्बख्त! तैंने बेचारे दयाराम को क्यों मार डाला जिन्हें बड़ी मुश्किल से हम लोगों ने खोज निकाला था!!'

मेरी बात सुनते ही भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। इसके बाद उसके दोनों साथी तो न मालूम क्या सोचकर एकदम भाग खड़े हुए मगर भूतनाथ बड़ी बेचैनी से दयाराम के पास बैठकर उनका मुंह देखने लगा। उस समय भूतनाथ के देखते ही देखते उन्होंने आखिरी हिचकी ली और दम तोड़ दिया। भूतनाथ उनकी लाश के साथ चिमटकर रोने लगा और बड़ी देर तक रोता रहा। तब तक हम तीनों आदमी पुनः मुकाबला करने लायक हो गये और इस बात से हम लोगों का साहस और भी बढ़ गया कि भूतनाथ के दोनों साथी उसे अकेला छोड़कर भाग गये थे। मैंने मुश्किल से भूतनाथ को अलग किया और कहा, 'अब रोने और नखरा करने से फायदा ही क्या होगा, उनके साथ ऐसी ही मुहब्बत थी तो उन पर वार न करना था, अब उन्हें मारकर औरतों की तरह नखरा करने बैठे हो!'

इतना सुनकर भूतनाथ ने अपनी आंखें पोंछीं और मेरी तरफ देख के कहा, 'क्या मैंने जान-बूझकर इन्हें मार डाला है?

मैं - बेशक! क्या यहां आने के साथ ही तुमने उन्हें चारपाई पर पड़े हुए नहीं देखा था?

भूत - देखा था, मगर मैं नहीं जानता था कि ये दयाराम हैं। इतने मोटे-ताजे आदमी को यकायक ऐसा दुबला-पतला देखकर मैं कैसे पहचान सकता था?

मैं - क्या खूब, ऐसे ही तो तुम अंधे थे खैर इसका इंसाफ तो रणधीरसिंह के सामने ही होगा, इस समय तुम हमसे फैसला कर लो क्योंकि अभी तक तुम्हारे दिल में लड़ाई का हौसला जरूर बना होगा।

भूत - (अपने को संभालकर और मुंह पोंछकर) नहीं-नहीं, मुझे अब लड़ने का हौसला नहीं है, जिसके वास्ते मैं लड़ता था जब वही नहीं रहा तो अब क्या मुझे ठीक पता लग चुका था कि दयाराम तुम्हारे फेर में पड़े हुए हैं और सो अपनी आंखों से देख भी लिया, मगर अफसोस है कि मैंने पहचाना नहीं और ये इस तरह धोखे में मारे गये, लेकिन इसका कसूर भी तुम्हारे ही सिर पर लग सकता है।

मैं - खैर अगर तुम्हारे किए हो सके तो तुम बिल्कुल कसूर मेरे ही सिर थोप देना, मैं अपनी सफाई आप कर लूंगा, मगर इतना समझ रखो कि लाख कोशिश करने पर भी तुम अपने को बचा नहीं सकते क्योंकि मैंने इन्हें खोज निकालने में जो कुछ मेहनत की थी वह इंद्रदेवजी के कहने से की थी, न तो मैं अपनी प्रशंसा कराना चाहता था और न इनाम ही लेना चाहता था। जरूरत पड़ने पर मैं इंद्रदेव की गवाही दिला सकता हूं और तुम अपने को बेकसूर साबित करने के लिए नागर को पेश कर देना, जिसके कहने और सिखाने में तुमने मेरे साथ दुश्मनी पैदा कर ली।

इतना सुनकर भूतनाथ सन्नाटे में आ गया। सिर झुकाकर देर तक सोचता रहा और इसके बाद लंबी सांस लेकर उसने मेरी तरफ देखा और कहा, 'बेशक मुझे नागर कम्बख्त ने धोखा दिया! अब मुझे भी इन्हीं के साथ मर मिटना चाहिए!' इतना कहकर भूतनाथ ने खंजर हाथ में ले लिया मगर कर कुछ न सका अर्थात् अपनी जान न दे सका।

महाराज, जवांमर्दों का कहना बहुत ठीक है कि बहादुरों को अपनी जान प्यारी नहीं होती। वास्तव में जिसे अपनी जान प्यारी होती है वह कोई हौसले का काम नहीं कर सकता और जो अपनी जान हथेली पर लिए रहता है और समझता है कि दुनिया में मरना एक बार ही है कोई बार-बार नहीं मरता, वही सब-कुछ कर सकता है। भूतनाथ के बहादुर होने में संदेह नहीं परंतु इसे अपनी जान प्यारी जरूर थी और इस उल्टी बात का सबब यही था कि वह ऐयाशी के नशे में चूर था। जो आदमी ऐयाश होता है उसमें ऐयाशी के सबब कई तरह की बुराइयां आ जाती हैं और बुराइयों की बुनियाद जम जाने के कारण ही उसे अपनी जान प्यारी हो जाती है तथा वह कोई भारी काम नहीं कर सकता। यही सबब था कि उस समय भूतनाथ जान न दे सका, बल्कि उसकी हिफाजत करने का ढंग जमाने लगा, नहीं तो उस समय मौका ऐसा ही था, इससे जैसी भूल हो गई थी उसका बदला तभी पूरा होता जब यह भी उसी जगह अपनी जान दे देता और उस मकान से तीनों लाशें एक साथ निकाली जातीं।

भूतनाथ ने कुछ देर तक सोचने के बाद मुझसे कहा - 'मुझे इस समय अपनी जान भारी हो रही है और मैं मर जाने के लिए तैयार हूं मगर मैं देखता हूं कि ऐसा करने से भी किसी को फायदा नहीं पहुंचेगा। मैं जिसका नमक खा चुका हूं और खाता हूं उसका और भी नुकसान होगा क्योंकि इस समय वह दुश्मनों से घिरा हुआ है। अगर मैं जीता रहूंगा तो उनके दुश्मनों का नामोनिशान मिटाकर उन्हें बेफिक्र कर सकूंगा, अतएव मैं माफी मांगता हूं कि तुम मेहरबानी कर मुझे सिर्फ दो साल के लिए जीता छोड़ दो।'

मैं - दो वर्ष के लिए क्या जिंदगी भर के लिए तुम्हें छोड़ देता हूं, जब तुम मुझसे लड़ना नहीं चाहते तो मैं क्यों तुम्हें मारने लगा बाकी रही यह बात कि तुमने खामखाह मुझसे दुश्मनी पैदा कर ली है सो उसका नतीजा तुम्हें आप से आप मिल जायगा जब लोगों को यह मालूम होगा कि भूतनाथ के हाथ से बेचारा दयाराम मारा गया।

भूत - नहीं-नहीं, मेरा मतलब तुम्हारी पहली बात से नहीं बल्कि दूसरी बात से है अर्थात् अगर तुम चाहोगे तो लोगों को इस बात का पता ही नहीं लगेगा कि दयाराम भूतनाथ के हाथ से मारा गया।

मैं - यह क्योंकर छिप सकता है?

भूत - अगर तुम छिपाओ तो सब-कुछ छिप जायगा।

मुख्तसर यह कि धीरे-धीरे बातों को बढ़ाता हुआ भूतनाथ मेरे पैरों पर गिर पड़ा और बड़ी खुशामद के साथ कहने लगा कि तुम इस मामले को छिपाकर मेरी जान बचा लो। केवल इतना ही नहीं, इसने मुझे हर तरह के सब्जबाग दिखाए और कसमें दे-देकर मेरी नाक में दम कर दिया। लालच में तो मैं नहीं पड़ा मगर पिछली मुरौवत के फेर में जरूर पड़ गया और भेद को छिपाये रखने की कसम खाकर अपने साथियों को साथ लिए हुए मैं उस घर के बाहर निकल गया। भूतनाथ और दोनों लाशों को उसी तरह छोड़ दिया, फिर मुझे मालूम नहीं कि भूतनाथ ने उन लाशों के साथ क्या बर्ताव किया।”

यहां तक भूतनाथ का हाल कहकर कुछ देर के लिए दलीपशाह चुप हो गया और उसने इस नीयत से भूतनाथ की तरफ देखा कि देखें यह कुछ बोलता है या नहीं। इस समय भूतनाथ की आंखों से आंसू की नदी बह रही थी। वह हिचकियां ले-लेकर रो रहा था। बड़ी मुश्किल से भूतनाथ ने अपने दिल को सम्हाला और दुपट्टे से मुंह पोंछकर कहा, “ठीक है, ठीक है, जो कुछ दलीपशाह ने कहा सब सच है। मगर यह बात मैं कसम खाकर कह सकता हूं कि मैंने जान-बूझकर दयाराम को नहीं मारा। वहां राजसिंह को खुले हुए देखकर मेरा शक यकीन के साथ बदल गया और चारपाई पर पड़े हुए देखकर भी मैंने दयाराम को नहीं पहचाना, मैंने समझा कि यह भी कोई दलीपशाह का साथी होगा। बेशक दलीपशाह पर मेरा शक मजबूत हो गया था और मैं समझ बैठा था कि जिन लोगों ने दयाराम के साथ दुश्मनी की है, दलीपशाह जरूर उनका साथी है। यह शक यहां तक मजबूत हो गया था कि दयाराम के मारे जाने पर भी दलीपशाह की तरफ से मेरा दिल साफ न हुआ बल्कि मैंने समझा कि इसी (दलीपशाह) ने दयाराम को वहां लाकर कैद किया था। जिस नागर पर मुझे शक हुआ था उसी कम्बख्त की जादू भरी बातों में मैं फंस गया और उसी ने मुझे विश्वास दिला दिया कि इसका कर्ताधर्ता दलीपशाह है। यही सबब है कि इतना हो जाने पर भी मैं दलीपशाह का दुश्मन बना ही रहा। हां दलीपशाह ने एक बात नहीं कही, वह यह है कि इस भेद को छिपाये रखने की कसम खाकर भी दलीपशाह ने मुझे सूखा नहीं छोड़ा। इन्होंने कहा कि तुम कागज पर लिखकर माफी मांगो तब मैं तुम्हें माफ करके यह भेद छिपाये रखने की कसम खा सकता हूं। लाचार होकर मुझे ऐसा करना पड़ा और मैं माफी के लिए चिट्ठी लिख हमेशा के लिए इनके हाथ में फंस गया।

दलीप - बेशक यही बात है, और मैं अगर ऐसा न करता तो थोड़े ही दिन बाद भूतनाथ मुझे दोषी ठहराकर आप सच्चा बन जाता। खैर अब मैं इसके आगे का हाल बयान करता हूं जिसमें थोड़ा - सा हाल तो ऐसा होगा जो मुझे खास भूतनाथ से मालूम हुआ था।

इतना कहकर दलीपशाह ने फिर अपना बयान शुरू किया –

दलीप - जैसा कि भूतनाथ कह चुका है बहुत मिन्नत और खुशामद से लाचार होकर मैंने कसूरवार होने और माफी मांगने की चिट्ठी लिखाकर इसे छोड़ दिया और इसका ऐब छिपा रखने का वादा करके अपने साथियों को साथ लिए उस घर से बाहर निकल गया और भूतनाथ की इच्छानुसार दयाराम की लाश को और भूतनाथ को उसी मकान में छोड़ दिया। फिर मुझे नहीं मालूम कि क्या हुआ और इसने लाश के साथ कैसा बर्ताव किया।

वहां से बाहर होकर मैं इंद्रदेव की तरफ रवाना हुआ मगर रास्ते भर सोचता जाता था कि अब क्या करना चाहिए, दयाराम का सच्चा-सच्चा हाल इंद्रदेव से बयान करना चाहिए या नहीं। आखिर हम लोगों ने निश्चय कर लिया कि जब भूतनाथ से वादा कर ही चुके हैं तो इस भेद को इंद्रदेव से भी छिपा ही रखना चाहिए।

जब हम लोग इंद्रदेव के मकान में पहुंचे तो उन्होंने कुशल-मंगल पूछने के बाद दयाराम का हाल दरियाफ्त किया जिसके जवाब में मैंने असल मामले को तो छिपा रखा और बात बनाकर यों कह दिया-जो कुछ मैंने या आपने सुना था वह ठीक ही निकला अर्थात् राजसिंह ही ने दयाराम के साथ वह सलूक किया और दयाराम राजसिंह के घर में ही मौजूद थे मगर अफसोस, बेचारे दयाराम को हम लोग छुड़ा न सके और वे जान से मारे गये!

इंद्र - (चौंककर) हैं! जान से मारे गये!!

मैं - जी हां और इस बात की खबर भूतनाथ को भी लग चुकी थी। मेरे पहले ही भूतनाथ राजसिंह के उस मकान में जिसमें दयाराम को कैद कर रखा था पहुंच गया और उसने अपने सामने दयाराम की लाश देखी जिसे कुछ ही देर पहले राजसिंह ने मार डाला था अस्तु भूतनाथ ने उसी समय राजसिंह का सिर काट डाला। सिवाय इसके वह और कर ही क्या सकता था! इसके थोड़ी ही देर बाद हम लोग भी उस घर में जा पहुंचे और दयाराम तथा राजसिंह की लाश और भूतनाथ को मौजूद पाया। दरियाफ्त करने पर भूतनाथ ने सब हाल बयान किया और अफसोस करते हुए हम लोग वहां से रवाना हुए।

इंद्र - अफसोस! बहुत बुरा हुआ! खैर ईश्वर की मर्जी!

मैंने भूतनाथ के ऐब को छिपाकर जो कुछ इंद्रदेव से कहा भूतनाथ की इच्छानुसार ही कहा था। भूतनाथ ने भी यही बात मशहूर की और इस तरह अपने ऐब को छिपा रखा।

यहां तक भूतनाथ का किस्सा कहकर जब दलीपशाह कुछ देर के लिए चुप हो गया तब तेजसिंह ने उससे पूछा, “तुमने तो भला भूतनाथ की बात मानकर उससे मामले को छिपा रखा मगर शंभू वगैरह इंद्रदेव के शागिर्दों ने अपने मालिक से उस भेद को क्यों छिपाया?'

दलीप - (एक लंबी सांस लेकर) खुशामद और रुपया बड़ी चीज है, बस इसी से समझ जाइए और मैं क्या कहूं?

तेज - ठीक है, अच्छा तब क्या हुआ भूतनाथ की कथा इतनी ही है या और भी कुछ?

दलीप - जी अभी भूतनाथ की कथा समाप्त नहीं हुई, अभी मुझे बहुत-कुछ कहना बाकी है। और बातों के सिवाय भूतनाथ से एक कसूर ऐसा हुआ है जिसका रंज भूतनाथ को इससे भी ज्यादा होगा।

तेज - सो क्या?

दलीप - सो भी मैं अर्ज करता हूं।

इतना कहकर दलीपशाह ने फिर कहना शुरू किया –

इस मामले को वर्षों बीत गये। मैं भूतनाथ की तरफ से कुछ दिनों तक बेफिक्र रहा मगर जब यह मालूम हुआ कि भूतनाथ मेरी तरफ से निश्चिंत नहीं है बल्कि मुझे इस दुनिया से उठा बेफिक्र हुआ चाहता है तो मैं भी होशियार हो गया और दिन-रात अपने बचाव की फिक्र में डूबा रहने लगा। (भूतनाथ की तरफ देखकर) भूतनाथ, अब मैं वह हाल बयान करूंगा जिसकी तरफ उस दिन मैंने इशारा किया था जब तुम हमें गिरफ्तार करके एक विचित्र पहाड़ी स्थान में ले गये थे और जिसके विषय में तुमने कहा था - 'यद्यपि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं देखी है'1 इत्यादि। मगर क्या तुम इस समय...।

भूतनाथ - (बात काटकर) भला मैं कैसे कह सकता हूं कि मैंने दलीपशाह की सूरत नहीं

1. देखिए चन्द्रकान्ता सन्तति, बीसवां भाग, बारहवां बयान।

देखी है जिसके साथ ऐसे मामले हो चुके हैं, मगर उस दिन मैंने तुम्हें धोखा देने के लिए वे शब्द कहे थे क्योंकि मैंने तुम्हें पहचाना नहीं था। इस कहने से मेरा मतलब यही था कि अगर तुम दलीपशाह न होगे तो कुछ न कुछ जरूर बात बनाओगे। खैर जो कुछ हुआ सो हुआ मगर क्या तुम वास्तव में अब उस किस्से को बयान करने वाले हो?

दलीप - हां मैं उसे जरूर बयान करूंगा।

भूत - मगर उसके सुनने से किसी को कुछ फायदा नहीं पहुंच सकता है और न किसी तरह की नसीहत ही हो सकती है। वह तो महज मेरी नादानी और पागलपने की बात थी, जहां तक मैं समझता हूं उसे छोड़ देने से कोई हर्ज नहीं होगा।

दलीप - नहीं। उसका बयान जरूरी जान पड़ता है, क्या तुम नहीं जानते या भूल गये कि उसी किस्से को सुनने के लिए कमला की मां अर्थात् तुम्हारी स्त्री यहां आई हुई है?

भूत - ठीक है मगर हाय! मैं सच्चा बदनसीब हूं जो इतना होने पर भी उन्हीं बातों को...।

इंद्र - अच्छा-अच्छा, जाने दो भूतनाथ! अगर तुम्हें इस बात का शक है कि दलीपशाह बातें बनाकर कहेगा या उसके कहने का ढंग लोगों पर बुरा असर डालेगा तो मैं दलीपशाह को वह हाल कहने से रोक दूंगा और तुम्हारे ही हाथ की लिखी हुई तुम्हारी अपनी जीवनी पढ़ने के लिए किसी को दूंगा जो इस संदूकड़ी में बंद है।

इतना कहकर इंद्रदेव ने वही संदूकड़ी निकाली जिसकी सूरत देखने से ही भूतनाथ का कलेजा कांपता था।

उस संदूकड़ी को देखते ही एक दफे तो भूतनाथ घबड़ाना-सा होकर कांपा मगर तुरंत ही उसने अपने को सम्हाल लिया और इंद्रदेव की तरफ देख के बोला, “हां-हां, आप कृपा कर इस संदूकड़ी को मेरी तरफ बढ़ाइये क्योंकि यह मेरी चीज है और मैं इसे लेने का हक रखता हूं। यद्यपि कई ऐसे कारण हो गये हैं जिनसे आप कहेंगे कि यह संदूकड़ी तुम्हें नहीं दी जायगी मगर फिर भी मैं इसी समय इस पर कब्जा कर सकता हूं क्योंकि देवीसिंहजी मुझसे प्रतिज्ञा कर चुके हैं कि संदूकड़ी बंद की बंद तुम्हें दिला दूंगा। अस्तु देवीसिंह की प्रतिज्ञा झूठ नहीं हो सकती।” इतना कहकर भूतनाथ ने देवीसिंह की तरफ देखा।

देवी - (महाराजा) निःसंदेह मैं ऐसी प्रतिज्ञा कर चुका हूं।

महा - अगर ऐसा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा झूठी नहीं हो सकती, मैं आज्ञा देता हूं कि तुम अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।

इतना सुनते ही देवीसिंह उठ खड़े हुए। उन्होंने इंद्रदेव के सामने से वह संदूकड़ी उठा ली और यह कहते हुए भूतनाथ के हाथ में दे दी, “लो मैं अपनी प्रतिज्ञा पूरी करता हूं, तुम महाराज को सलाम करो जिन्होंने मेरी और तुम्हारी इज्जत रख ली।”

भूत - (महाराज को सलाम करके) महाराज की कृपा से अब मैं जी उठा।

तेज - भूतनाथ, तुम यह निश्चय जानो कि यह संदूकड़ी अभी तक खोली नहीं गई है, अगर सहज में खुलने लायक होती तो शायद खुल गई होती।

भूत - (संदूकड़ी अच्छी तरह देख-भालकर) बेशक यह अभी तक खुली नहीं है! मेरे सिवाय कोई दूसरा आदमी इसे बिना तोड़े खोल भी नहीं सकता। यह संदूकड़ी मेरी बुराइयों से भरी हुई है, या यों कहिए कि यह मेरे भेदों का खजाना है, यद्यपि इसमें के कई भेद खुल चुके हैं, खुल रहे हैं और खुलते जायेंगे, तथापि इस समय इसे ज्यों-का-त्यों बंद पाकर मैं बराबर महाराज को दुआ देता हुआ यही कहूंगा कि मैं जी उठा, जी उठा! अब मैं खुशी से अपनी जीवनी कहने और सुनने के लिए तैयार हूं और साथ ही इसके यह भी कह देता हूं कि अपनी जीवनी के संबंध में जो कुछ कहूंगा सच कहूंगा!

इतना कहकर भूतनाथ ने वह संदूकड़ी अपने बटुए में रख ली और पुनः हाथ जोड़कर महाराज से बोला, “महाराज, मैं वादा कर चुका हूं कि अपना हाल सच-सच बयान करूंगा, परंतु मेरा हाल बहुत बड़ा और शोक, दुःख तथा भयंकर घटनाओं से भरा हुआ है। मेरे प्यारे मित्र इंद्रदेवजी, जिन्होंने मेरे अपराधों को क्षमा कर दिया है, कहते हैं कि तेरी जीवनी से लोगों का उपकार होगा और वास्तव में बात भी ठीक ही है। अतएव कई कठिनाइयों पर ध्यान देकर मैं विनयपूर्वक महाराज से एक महीने की मोहलत मांगता हूं। इस बीच मैं अपना पूरा-पूरा हाल लिखकर पुस्तक के रूप में महाराज के सामने पेश करूंगा और संभव है कि महाराज उसे सुन-सुनाकर यादगार की तौर पर अपने खजाने में रखने की आज्ञा देंगे! इस एक महीने के बीच में मुझे भी सब बातें याद करके लिख लेने का मौका मिलेगा और मैं अपनी निर्दोष स्त्री तथा उन लोगों से जिन्हें देखने की भी आशा नहीं थी परंतु जो बहुत-कुछ दुःख भोगकर भी दोनों कुमारों की बदौलत इस समय यहां आ गये हैं और जिन्हें मैं अपना दुश्मन समझता था मगर अब महाराज की कृपा से जिन्होंने मेरे कसूरों को माफ कर दिया है मिल-जुलकर कई बातों का पता भी लगा लूंगा जिससे मेरा किस्सा सिलसिलेवार और ठीक कायदे से हो जायगा।”

इतना कहकर भूतनाथ ने इंद्रदेव, राजा गोपालसिंह, दोनों कुमारों और दलीपशाह वगैरह की तरफ देखा और तुरंत ही मालूम कर लिया कि उसकी अर्जी कबूल कर ली जायेगी।

महाराज ने कहा, “कोई चिंता नहीं, तब तक हम लोग कई जरूरी कामों से छुट्टी पा लेंगे।” राजा गोपालसिंह और इंद्रदेव ने भी इस बात को पसंद किया और इसके बाद इंद्रदेव ने दलीपशाह की तरफ देखकर पूछा, “क्यों दलीपशाह, इसमें तुम लोगों को तो कोई उज्र नहीं है?'

दलीप - (हाथ जोड़कर) कुछ भी नहीं, क्योंकि अब महाराज की आज्ञानुसार हम लोगों को भूतनाथ से किसी तरह की दुश्मनी भी नहीं रही और न यही उम्मीद है कि भूतनाथ हमारे साथ किसी तरह की खुटाई करेगा, परंतु मैं इतना जरूर कहूंगा कि हम लोगों का किस्सा भी महाराज के सुनने लायक है और हम भूतनाथ के बाद अपना किस्सा भी सुनाना चाहते हैं।

महाराज - निःसंदेह तुम लोगों का किस्सा भी सुनने योग्य होगा और हम लोग उसको सुनने की अभिलाषा रखते हैं, यदि संभव हुआ तो पहले तुम्हीं लोगों का किस्सा सुनने में आवेगा। मगर सुनो दलीपशाह, यद्यपि भूतनाथ से बड़ी-बड़ी बुराइयां हो चुकी हैं और भूतनाथ तुम लोगों का भी कसूरवार है परंतु इधर हम लोगों के साथ भूतनाथ ने जो कुछ किया है उसके लिए हम लोग इसके अहसानमंद हैं और इसे अपना हितू समझते हैं।

इंद्र - बेशक-बेशक!

गोपाल - जरूर हम लोग इसके एहसान के बोझ से दबे हुए हैं।

दलीप - मैं भी ऐसा ही समझता हूं क्योंकि भूतनाथ ने इधर जो-जो अनूठे काम किये हैं उनका हाल कुंअर साहब की जुबानी हम लोग सुन चुके हैं। इसी खयाल से तथा कुंअर साहब की आज्ञा से हम लोगों ने सच्चे दिल से भूतनाथ का अपराध क्षमा ही नहीं कर दिया बल्कि कुंअर साहब के सामने इस बात की प्रतिज्ञा भी कर चुके हैं कि भूतनाथ को दुश्मनी की निगाह से कभी न देखेंगे।

महाराज - बेशक ऐसा ही होना चाहिए, अस्तु बहुत-सी बातों को सोचकर और इसकी कारगुजारी पर ध्यान देकर हमने इसका कसूर माफ करके इसे अपना ऐयार बना लिया है, आशा हे कि तुम लोग भी इसे अपनायत की निगाह से देखोगे और पिछली बातों को भूल जाओगे।

दलीप - महाराज अपनी आज्ञा के विरुद्ध चलते हुए हम लोगों को कदापि न देखेंगे यह हमारी प्रतिज्ञा है।

महाराज - (अर्जुनसिंह तथा दलीपशाह के दूसरे साथी की तरफ देखकर) तुम लोगों की जुबान से भी हम ऐसा ही सुना चाहते हैं।

दलीप का एक साथी - मेरी भी यही प्रतिज्ञा है और ईश्वर से प्रार्थना है कि मेरे दिल में दुश्मनी के बदले दिन-दूनी रात-चौगुनी तरक्की करने वाली भूतनाथ की मुहब्बत पैदा करे।

महाराज - शाबाश! शाबाश!!

अर्जुन - कुंअर साहब के सामने मैं जो कुछ प्रतिज्ञा कर चुका हूं उसे महाराज सुन चुके होंगे, इस समय महाराज के सामने भी शपथ खाकर कहता हूं कि स्वप्न में भी भूतनाथ के साथ दुश्मनी का ध्यान आने पर मैं अपने को दोषी समझूंगा।

इतना कहकर अर्जुनसिंह ने वह तस्वीर जो उसके हाथ में थी फाड़ डाली और टुकड़े-टुकड़े करके भूतनाथ के आगे फेंक दी और पुनः महाराज की तरफ देखकर कहा, “यदि आज्ञा हो और बेअदबी न समझी जाय तो हम लोग इसी समय भूतनाथ से गले मिलकर अपने उदास दिल को प्रसन्न कर लें।”

महाराज - यह तो हम स्वयम् कहने वाले थे।

इतना सुनते ही दोनों दलीप, अर्जुन और भूतनाथ आपस में गले मिले और इसके बाद महाराज का इशारा पाकर एक साथ बैठ गये।

भूत - (दूसरे दलीप और अर्जुनसिंह की तरफ देखकर) अब कृपा करके मेरे दिल का खुटका मिटाओ और साफ-साफ बता दो कि तुम दोनों में से असल में अर्जुनसिंह कौन है जब मैं दलीपशाह को बेहोश करके उस घाटी में ले गया था।1 तब तुम दोनों में से कौन महाशय वहां पहुंचकर दूसरे दलीपशाह बनने को तैयार हुए थे

दूसरा दलीप - (हंसकर) उस दिन मैं ही तुम्हारे पास पहुंचा था। इत्तिफाक से उस दिन मैं अर्जुनसिंह की सूरत बनाकर बाहर घूम रहा था और जब तुम दलीपशाह को धोखा देकर ले चले तब मैंने छिपकर पीछा किया था। आज केवल धोखा देने के लिए ही अर्जुनसिंह के रहते मैं अर्जुनसिंह बनकर दलीपशाह के साथ यहां आया हूं।

इतना कहकर दूसरे दलीप ने पास से गीला गमछा उठाया और अपने चेहरे का रंग पोंछ डाला जो उसने थोड़ी देर के लिए बनाया या लगाया था।

चेहरा साफ होते ही उसकी सूरत ने राजा गोपालसिंह को चौंका दिया और वह यह कहते हुए उसके पास चले गये कि “क्या आप भरतसिंह हैं जिनके विषय में इंद्रजीतसिंह ने हमें नकाबपोश बनकर इत्तिला दी थी'2 और इसके जवाब में “जी हां” सुनकर वे भरतसिंह के गले से चिमट गये। इसके बाद उनका हाथ थामे हुए गोपालसिंह अपनी जगह पर चले आये और भरतसिंह को अपने पास बैठाकर महाराज से बोले, “इनके मिलने की मुझे हद से ज्यादे खुशी हुई, बहुत देर से मैं चाहता था कि इनके विषय में कुछ पूछूं!”

महाराज - मालूम होता है इन्हें भी दारोगा ही ने अपना शिकार बनाया था।

भरत - जी हां, आज्ञा होने पर मैं अपना हाल बयान करूंगा।

इंद्रजीत - (महाराज से) तिलिस्म के अंदर मुझे पांच कैदी मिले थे जिनमें से तीन तो यही अर्जुनसिंह, भरतसिंह और दलीपशाह हैं, इसके अतिरिक्त दो और हैं जो यहां बुलाये नहीं गये। दारोगा, मायारानी तथा उसके पक्ष वालों के संबंध में इन पांचों ही का किस्सा सुनने योग्य है। जब कैदियों का मुकदमा होगा तब आप देखियेगा कि इन लोगों की सूरत देखकर कैदियों की क्या हालत होती है।

महाराज - वे दोनों कहां हैं?

इंद्रजीत - इस समय यहां मौजूद नहीं हैं, छुट्टी लेकर अपने घर की अवस्था देखने गये हैं, दो-चार दिन में आ जायेंगे।

भूत - (इंद्रदेव से) यदि आज्ञा हो तो मैं भी कुछ पूछूं!

इंद्रदेव - आप जो कुछ पूछेंगे उसे मैं खूब जानता हूं मगर खैर पूछिये।

भूत - कमला की मां आप लोगों को कहां और क्योंकर मिली?

इंद्रदेव - यह तो उसी की जुबानी सुनने में ठीक होगा। जब वह अपना किस्सा बयान करेगी कोई बात छिपी न रह जायगी।

1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, बीसवां भाग, तेरहवां बयान।

2. देखिए चंद्रकान्ता संतति के बीसवें भाग के आठवें बयान में कुमार की चिट्ठी।

भूत - और नानक की मां तथा देवीसिंहजी की स्त्री के विषय में कब मालूम होगा।

इंद्रदेव - वह भी उसी समय मालूम हो जायगा। मगर भूतनाथ (मुस्कराकर) तुमने और देवीसिंह ने नकाबपोशों का पीछा करके व्यर्थ यह खुटका और तरद्दुद खरीद लिया। यदि उनका पीछा न करते और पीछे से तुम दोनों को मालूम होता कि तुम्हारी स्त्रियां भी इस काम में शरीक हुई थीं तो तुम दोनों को एक प्रकार की प्रसन्नता होती। प्रसन्नता तो अब भी होगी मगर खुटके और तरद्दुद से कुछ खून सुखा लेने के बाद!

इतना कहकर इंद्रदेव हंस पड़े और इसके बाद सभों के चेहरों पर मुस्कराहट दिखाई देने लगी।

तेज - (मुस्कराते हुए देवीसिंह से) अब तो आपको मालूम हो ही गया होगा कि आपका लड़का तारासिंह कई विवित्र भेदों को आपसे क्यों छिपाता था?

देवी - जी हां, सब-कुछ मालूम हो गया। जब अपने को प्रकट करने के पहले ही दोनों कुमारों ने भैरों और तारा को अपना साथी बना लिया तो हम लोग जहां तक आश्चर्य में डाले जाते थोड़ा था।

देवीसिंह की बात सुनकर पुनः सभी ने मुस्करा दिया और अब दरबार का रंग-ढंग ही कुछ दूसरा हो गया अर्थात् तरद्दुद के बदले सभी के चेहरे पर हंसी और मुस्कराहट दिखाई देने लगी।

तेज - (भूतनाथ से) भूतनाथ, आज तुम्हारे लिए बड़ी खुशी का दिन है क्योंकि और बातों के अतिरिक्त तुम्हारी नेक और सती स्त्री भी तुम्हें मिल गई जिसे तुम मरी समझते थे और हरनामसिंह तुम्हारा लड़का भी तुम्हारे पास बैठा हुआ दिखाई देता है जो बहुत दिनों से गायब था और जिसके लिए बेचारी कमला बहुत परेशान थी, जब वह हरनामसिंह का हाल सुनेगी तो बहुत ही प्रसन्न होगी।

भूत - निःसंदेह ऐसा ही है, परंतु मैं हरनामसिंह के सामने भी एक संदूकड़ी देखकर डर रहा हूं कि कहीं यह भी मेरे लिए कोई दुखदायी सामान न लेकर आया हो!

इंद्रदेव - (हंसकर) भूतनाथ! अब तुम अपने दिल को व्यर्थ के खुटकों में न डालो, जो कुछ होना था सो हो गया, अब तुम पूरे तौर पर महाराज के ऐयार हो गये, किसी की मजाल नहीं कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ दे सके और महाराज भी तुम्हारे बारे में किसी तरह की शिकायत नहीं सुना चाहते! हरनामसिंह तो तुम्हारा लड़का ही है, वह तुम्हारे साथ बुराई क्यों करने लगा!

इसी समय महाराज सुरेन्द्रसिंह ने जीतसिंह की तरफ देखकर कुछ इशारा किया और जीतसिंह ने इंद्रदेव से कहा, “भूतनाथ का मामला तो अब तै हो गया इसके बारे में महाराज किसी तरह की शिकायत सुना नहीं चाहते, इसके अतिरिक्त भूतनाथ ने वादा किया है कि अपनी जीवनी लिखकर महाराज के सामने पेश करेगा। अस्तु अब रह गये दलीपशाह, अर्जुनसिंह और भरथसिंह तथा कमला की मां। इन सभी पर जो कुछ मुसीबतें गुजरी हैं उसे महाराज सुना चाहते हैं परंतु अभी नहीं क्योंकि विलंब बहुत हो गया, अब महाराज आराम करेंगे अस्तु अब दरबार बर्खास्त करना चाहिए जिससे ये लोग भी आपस में मिल-जुलकर अपने दिल की कुलफत निकाल लें क्योंकि अब यहां तो किसी से मिलने में अथवा आपस में बर्ताव करने में परहेज न होना चाहिए।”

इंद्र - (हाथ जोड़कर) जो आज्ञा!

दरबार बर्खास्त हुआ। इंद्रदेव की इच्छानुसार महाराज आराम करने के लिए जीतसिंह को साथ लिए एक दूसरे कमरे में चले गये। इसके बाद और सब कोई उठे और अपने-अपने ठिकाने पर जैसा कि इंद्रदेव ने इंतजाम कर दिया था चले गये, मगर कई आदमी जो आराम नहीं किया चाहते थे बंगले के बाहर निकलकर बगीचे की तरफ रवाना हुए।

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