रात पहर भर से ज्यादे जा चुकी है। महल के अंदर एक सजे हुए कमरे में एक तरफ रानी चंद्रकान्ता, चपला और चंपा बैठी हुई हैं और उनसे थोड़ी ही दूर पर राजा वीरेन्द्रसिंह, गोपाल और भैरोसिंह बैठे आपस में कुछ बातचीत कर रहे हैं।
चंद्र - (वीरेन्द्र से) सच्चा-सच्चा हाल मालूम होना तो दूर रहा मुझे इस बात का किसी तरह कुछ गुमान भी न हुआ। इस समय मैं दुलहिनों की सोहागरात का इंतजाम देख-सुनकर यहां आई और दिन भर की थकावट से सुस्त होकर पड़ रही, जी में आया कि घंटे-दो घंटे सो रहूं, मगर इसी बीच में चपला बहिन आ पहुंची और बोली, 'लो बहिन, मैं तुम्हें एक अनूठा हाल सुनाती हूं जिसकी अब तक तुम लोगों को कुछ खबर ही न थी!' बस इतना कहकर बैठ गईं और कहने लगीं कि 'कमलिनी और लाडिली की शादी तिलिस्म के अंदर ही इंद्रजीत और आनंद के साथ हो चुकी है जिसके बारे में अब तक हम लोगों को किसी ने कुछ भी नहीं कहा, इस समय लड़के (भैरोसिंह) ने मुझसे कहा है'। सुनते ही मैं धक्क हो गई कि या राम! यह कौन-सी बात थी जिसे अभी तक सब कोई छिपाये बैठे रहे!!
चपला - (भैरोसिंह की तरफ इशारा करके) सामने तो बैठा हुआ है, पूछिये कि इस समय के पहले कभी कुछ कहा था! यद्यपि दोनों की शादियां इसके सामने ही तिलिस्म के अंदर हुई थीं।
वीरेन्द्र - मुझे भी इस विषय में किसी ने कुछ नहीं कहा था, अभी थोड़ी देर हुई कि गोपालसिंह ने यह सब हाल पिताजी से बयान किया तब मालूम हुआ।
चंद्र - यही सुन के तो मैंने आपको तकलीफ दी क्योंकि आपकी जुबानी सुने बिना मेरी दिलजमई नहीं हो सकती।
वीरेन्द्र - जो कुछ तुमने सुना सब ठीक है।
चंद्र - मजा तो यह है कि लड़कों ने भी मुझसे इस बात की कुछ चर्चा नहीं की।
वीरेन्द्र - लड़कों को तो खुद ही इस बात की खबर नहीं है कि उनकी शादी कमलिनी और लाडिली के साथ हुई थी।
चंद्र - यह तो आप और ताज्जुब की बात कहते हैं। यह भला कैसे हो सकता है कि जिनकी शादी हो उन्हीं को पता न लगे कि मेरी शादी हो गई है इस पर कौन विश्वास करेगा!
वीरेन्द्र - बात ही कुछ ऐसी हो गई थी और यह शादी जानबूझकर किसी मतलब से छिपाई गई थी (गोपालसिंह की तरफ इशारा करके) अब ये खुलासा हाल तुमसे बयान करेंगे तब तुम समझ जाओगी कि ऐसा क्यों हुआ।
गोपाल - मैं सब हाल आपसे खुलासा बयान करता हूं और आशा करता हूं कि आप मेरा कसूर माफ करेंगी क्योंकि यह सब मेरी ही करतूत है और मैंने ही यह शादी कराई है।
चंद्र - अगर तुमने ऐसा किया तो छिपाने की क्या जरूरत थी क्या हम लोग तुमसे रंज हो जाते या हम लोग इस बात को नहीं समझते कि जो कुछ तुम करोगे अच्छा ही समझ के करोगे।
गोपाल - ठीक है मगर किया क्या जाय, इस बात को छिपाये बिना काम नहीं चलता था, यही तो सबब हुआ कि खुद दोनों कुमारों को भी इस बात का पता न लगा कि उनकी शादी फलाने के साथ हो गई है।
चंद्र - आखिर ऐसा किया क्यों गया सो तो कहो!
गोपाल - इसका सबब यह है कि एक दिन कमला मेरे पास आई और बोली कि 'मैं आपसे एक जरूरी बात कहती हूं जिस पर आपको विशेष ध्यान देना होगा'। मैंने पूछा - 'क्या!' इस पर उसने जवाब दिया कि कमलिनी ने जो कुछ एहसान हम लोगों पर, खास करके दोनों कुमारों तथा किशोरी और कामिनी पर किये हैं वह किसी से छिपे नहीं हैं। किशोरी का खयाल है कि 'इसका बदला किसी तरह से अदा हो ही नहीं सकता' और बात भी ऐसी ही है, अस्तु किशोरी ने बात ही बात में अपने दिल का हाल मुझसे भी कह दिया और इस बारे में जो कुछ उसने सोच रखा था वह भी बयान किया। किशोरी कहती है कि अगर मैं शादी न करूं या शादी होने के पहले ही इस दुनिया से उठ जाऊं तो उसके एहसान और ताने से कुछ बच सकती हूं। इस विषय पर जब मैंने किशोरी को बहुत-कुछ समझाया तो बोली कि खैर अगर मेरी शादी के पहले कमलिनी की शादी कुंअर इंद्रजीतसिंह के साथ हो जायगी तब मैं सुख से अपनी जिंदगी बिता सकूंगी और उसके एहसान से भी हलकी हो जाऊंगी क्योंकि ऐसा होने से कमलिनी को पटरानी की पदवी मिलेगी और उसी का लड़का गद्दी का मालिक समझा जायेगा। मैं छोटी रानी और कमलिनी की लौंडी होकर रहूंगी तभी मेरे दिल को राहत होगी और मैं समझूंगी कि कमलिनी के अहसान का बोझ मेरे सिर से उतर गया।
चंद्र - शाबाश! शाबाश!
वीरेन्द्र - बेशक किशोरी ने बड़े हौसले की और लासानी बात सोची!
चपला - बेशक यह साधारण बात नहीं है, यह बड़े कलेजे वाली औरतों का काम है, और इससे बढ़कर किशोरी कुछ कर ही नहीं सकती थी।
गोपाल - मैंने जब कमला की जुबानी यह बात सुनी तो दंग हो गया और मन में किशोरी की तारीफ करने लगा। सच तो यों है कि यह बात मेरे दिल में भी जम गई। अस्तु मैंने कमला से वादा तो कर दिया कि 'ऐसा ही होगा' मगर तरद्दुद में पड़ गया कि यह काम क्योंकर पूरा होगा, क्योंकि यह बात बहुत ही कठिन बल्कि असंभव थी कि इंद्रजीतसिंह और कमलिनी इस राय को मंजूर करें। इसके अतिरिक्त यह भी उम्मीद नहीं हो सकती थी कि हमारे महाराज इस बात को स्वीकार कर लेंगे।
भैरो - बेशक यह कठिन काम था, इंद्रजीतसिंह इस बात को कभी मंजूर न करते।
गोपाल - कई दिन के सोच-विचार के बाद मैंने और भैरोसिंह ने मिलकर एक तरकीब निकाल ली और किसी-न-किसी तरह कमलिनी और लाडिली को इंद्रानी और आनंदी बनाकर दोनों की शादी इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के साथ करा दी। उन दिनों कमलिनी के पिता बलभद्रसिंहजी भूतनाथ की मदद से छूटकर यहां (अर्थात् बगुले वाले तिलिस्मी मकान में) आ चुके थे, अस्तु मैं तिलिस्म के अंदर ही अंदर यहां आया और बलभद्रसिंहजी को कन्यादान करने के लिए समझा-बुझाकर जमानिया ले गया।1 उस दिन भूतनाथ बहुत परेशान हुआ था और भैरोसिंह मेरे साथ था। हम लोग पहले जब इस मकान में आये थे तो भूतनाथ और बलभद्रसिंहजी के नाम की एक-एक चिट्ठी दोनों की चारपाई पर रख के चले गये थे।
1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, अठारहवां भाग, आठवां बयान।
बलभद्रसिंहजी की चिट्ठी में उनकी दिलजमई के लिए एक अंगूठी भी रखी थी जो उन्होंने ब्याह के पहले मुझे बतौर सगुन के दी थी। इसके बाद दूसरे दिन फिर पहुंचे और भूतनाथ को अपना पूरा-पूरा परिचय देकर बलभद्रसिंहजी को ले गये। उनके जाने का सबब भूतनाथ को ठीक-ठीक कह दिया था मगर साथ ही इसके इस बात की भी ताकीद कर दी थी कि यह हाल किसी को मालूम न होवे।
इतना कहते-कहते गोपालसिंह कुछ देर के लिए रुके और फिर इस तरह कहने लगे –
“पहले तो मुझे इस बात की चिंता थी कि बलभद्रसिंह मेरा कहना मानेंगे या नहीं मगर उन्होंने इस बात को बड़ी खुशी से मंजूर कर लिया। अपनी लड़कियों से मिलकर वे बहुत ही प्रसन्न हुए और हम लोगों पर जो कुछ आफतें बीत चुकी थीं उन्हें सुन-सुनाकर अफसोस करते रहे, फिर अपनी बीती सुनाकर प्रसन्नतापूर्वक हम लोगों के काम में शरीक हुए अर्थात् हंसी-खुशी के साथ उन्होंने कमलिनी और लाडिली का कन्यादान कर दिया।1 इस काम में भैरोसिंह को भी कम तरद्दुद नहीं उठाना पड़ा बल्कि दोनों कुमार इनसे रंज भी हो गये थे क्योंकि इनकी जुबानी असल बातों का उन्हें पता नहीं लगता था, अस्तु शादी हो जाने के बाद इस बात का बंदोबस्त किया गया कि इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह इस अनूठे ब्याह को भूल जायं तथा इंद्रानी और आनंदी से मिलने की उम्मीद न रखें।”
इसके बाद राजा गोपालसिंह ने और भी बहुत-सा हाल बयान किया जो हम संतति के अठारहवें भाग में लिख आये हैं और सब बातें सुनकर अंत में चंद्रकान्ता ने कहा, “खैर जो हुआ अच्छा ही हुआ, हम लोगों के लिए तो जैसे किशोरी और कामिनी हैं वैसे ही कमलिनी और लाडिली हैं, मगर किशोरी के नाना को यदि इस बात का कुछ रंज हो तो ताज्जुब नहीं।”
वीरेन्द्र - पिताजी भी यही कहते थे। मगर इसमें कोई शक नहीं कि किशोरी ने परले सिरे की हिम्मत दिखलाई!
गोपाल - साथ ही इसके यह भी समझ लीजिये कि कमलिनी ने भी इस बात को सहज ही स्वीकार नहीं कर लिया, इसके लिए भी हम लोगों को बहुत कुछ उद्योग करना पड़ा। बात यह है कि कमलिनी भी किशोरी को जान से ज्यादे चाहती और मानती है।
चंद्र - मगर मुझे इस बात का अफसोस जरूर है कि इन दोनों की शादी में किसी तरह की तैयारी नहीं की गई और न कुछ धूमधाम ही हुई।
इसके बाद बहुत देर तक इन सभों में बातचीत होती रही।
1. देखिए चंद्रकान्ता सन्तति, अठारहवां भाग, बारहवां बयान।

 

 


 

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