श्रीपराशरजी बोले- 
हे द्विज ! इस प्रकर भगवान् विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन करते करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जानेसे उन्होंने अपनेको अच्यतु रूप ही अनुभव किया ॥१॥
वे अपने आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान्‌के अतिरिक्ति और कुछ भी प्रतीत न होता था । बस केवल यही भावना चिन्तमें थी कि मैं ही अव्यय और अनन्त परमात्मा हूँ ॥२॥
उस भावनाके योगसे वे क्षीण पाप हो गये और उनके शुद्ध अन्तः करणमें ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए ॥३॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबलसे असुर प्रह्लादजीके विष्णुमय हो जानेपर उनके विचालित होनेसे वे नागपाश एक क्षणभरमें ही टुट गये ॥४॥
भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतंगोंसे पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनोंसे पूर्ण समस्त पृथिवी हिलने लगी ॥५॥
तथा महामति प्रह्लादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत समुहको दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ॥६॥
तब आकाशादिरुप जगत्‌को फिर देखकर उन्हें चित्तमें यह पुनः भान हुआ कि मैं प्रह्लद हूँ ॥७॥
और उन महाबुद्धिमानने मन, वाणी और शरीरके सयंमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्र-चित्तसे पुनः भगवान् अनादि पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥८॥
प्रह्लादजी कहने लगे - हे परमार्थ ! हे अर्थ ( दुश्यरूप ) ! हे स्थूलसुक्ष्म ( जगत् - स्वप्रदृश्य स्वरुप ) ! हे क्षराक्षर ( कार्य-कारणरूप ) हे व्यक्ताव्यक्त ( दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरज्त्रन देव ! आपको नमस्कार है ॥९॥
हे गुणोंको अनुरत्र्जित करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन ! हे गुणास्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामूर्तिमान ! हे सूक्ष्ममूतें ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरूप ! ( आपको नमस्कार है ) ॥१०॥
हे विकराल और सुन्दररूप ! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत् ( कार्यकारण ) रूप जगत्‌के उद्भवस्थान और सदसज्जगत्‌के पालक ! ( आपके नमस्कार है ) ॥११॥
हे नित्यानित्य ( आकाशघटादिरूप ) प्रपत्र्चात्मन् ! हे प्रपत्र्चसे पृथक् रहनेवाले हे ज्ञानियोंके आश्रयत्मन ! हे एकानेकरूप आदिंकारण वासुदेव ! ( आपको नमस्कार है ) ॥१२॥
जो स्थुल - सुक्ष्मरुप और स्फूट प्रकाशमय हैं, जो अधिष्ठानरूपसे सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूर्ण भुतादिसे परे हैं, विश्वके कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उप्तन्न हुआ है; उन पुरूषोत्तम भगवान्को नमस्कार है ॥१३॥
श्रीपराशरजी बोले - 
उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान् हरि प्रकट हुए ॥१४॥
हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खडे़ हो गये और गद्गद वाणीसे 'विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है ! विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है !' ऐसा बारम्बार कहने लगे ॥१५॥
प्रह्लादजी बोले - 
हे शरणागत - दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये । हे अच्युत ! अपने पुण्य दर्शनोंसे मुझे फिर भी पवित्र कीजिये ॥१६॥
श्रीभगवान बोले - 
हे प्रह्लाद ! मैं तेरी अनन्यभक्तिसे अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वरकी इच्छा हो माँगे ले ॥१७॥
प्रह्लादजी बोले - हे नाथ ! सहस्त्रों योनियोंमेसे मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी उसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे ॥१८॥
अविवेकी पुरुषोंकी विषयोंमें जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हॄदयसे कभी दूर न हो ॥१९॥
श्रीभगवान बोले - 
हे प्रह्लाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वरकी इच्छा हो मुझसे माँग ले ॥२०॥
प्रह्लादजी बोले - हे देव ! आपकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेसे मेरे पिताके चित्तमें मेरे प्रति जो द्वेष हुआ हैं उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय ॥२१॥
इसके अतिरिक्त ( उनकी आज्ञासे ) मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये - मुझे अग्निसमूहमें डाला गया, सर्पोंसे कटवया गया, भोजनमें विष दिया गया, बाँधकर समुद्रसे डाला गया, शिलाओंसे दबाया गया तथा और भी जो- जो दर्व्यवहार पिताजीने मेरे साथ किये हैं, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे, उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जायँ ॥२२-२४॥
श्रीभगवान् बोले - हे प्रह्लाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होंगी । हे असुरकुमार ! मैं तुमको एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो ॥२५॥
प्रह्लादजी बोले - हे भगवान् ! मैं तो आपके इस वरसे ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी ॥२६॥
हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत्‌के करणरूप आपमें जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठीमें रहती है, फिर धर्म, अर्थ कामसे तो उसे लेना ही क्या है ? ॥२७॥
श्रीभगवान बोले - 
हे प्रह्लाद ! मेरी भक्तिसे युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपासे परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा ॥२८॥
श्रीपराशरजी बोले - 
हे मैत्रेय ! ऐसा कह भगवान उनके देखते - देखते अन्तर्धान हो गये, और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिताके चरणोंकी वन्दना की ॥२९॥
हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकारसे पीडित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर, आँखोंमें आँसू भरकर कहा - 'बेटा, जीता तो है !' ॥३०॥
वह महान् असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रह्लादसे प्रेम करने लगा और इसी प्रकार धर्मज्ञ प्रह्लादजी भी अपने गुरु और माता पिताकी सेवा-शुश्रुषा करने लगे ॥३१॥
हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा पिताके मारे जानेपर वे दैत्योंके राजा हुए ॥३२॥
हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत-से-पुत्र-पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकारके क्षीण होनेपर पुण्य पापसे रहित हो भगवान्‌का ध्यान करती हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया ॥३३-३४॥
हे मैत्रिय ! जिनके विषयमें तुमने पूच्छा था वे परम भरवद्धक्त महामति दैत्यप्रवर प्रह्लादजी ऐसे प्रभावशाली हुए ॥३५॥
उन महात्मा प्रह्लादजीके इस चरित्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥३६॥
हे मैत्रेय ! इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य प्रह्लाद-चरित्रके सुनने या पढ़नेसे दिन-रातके ( निरन्तर ) किये हुए पापसे अवश्य छूट जाता है ॥३७॥
हे द्विज ! पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी अथवा द्वादशीको इसे पढंनेसे मनुष्यको गोदानका फल मिलता है ॥३८॥
जिस प्रकार भगवान्‌ने प्रह्लादजीकी सम्पूर्ण आपत्तियोंसे रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता हैं ॥३९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें विंशोऽध्यायः ॥२०॥
 

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