श्रीपराशरजी बोले- 
हे मैत्रेय ! तुमने इस समय मुझसे जिसके विषयमें पूछा है वह श्रीसम्बन्ध ( लक्ष्मीजीका इतिहास ) मैंने भी मरीचि ऋषिसे सुना था, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, ( सावधान होकर ) सुनो ॥१॥
एक बार शंकरके अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथिवीतलमें विचर रहे थे । घूमते घुमते उन्होंने एक विद्याधरीके हाथोंमें सन्तानक पुष्पोंकी एक दिव्य माला देखी । हे ब्रह्मन ! उसकी गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये अति सेवनीय हो रहा था ॥२-३॥
तब उन उन्मत्त वृत्तिवाले विप्रवरने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर सुन्दरीसे माँगा ॥४॥
उनके माँगनेपर उस बडे-बडे़ नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरीने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी ॥५॥
हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवरने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल लिया और पृथिवीपर विचरने लगे ॥६॥
इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढ़कर देवताओंके साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इन्द्रको देखा ॥७॥
उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्तके समान वह मतवाले भौंरोंसे गुत्र्जायमान माला अपने सिरपरसे उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी ॥८॥
देवराजने उसे लेकर ऐरावतके मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हूई मानो कैलास पर्वतके शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हों ॥९॥
उस मदोन्मत हाथीने भी उसकी गन्धसे आकर्षित हो उसे सूँडसे सूँघकर पृथिवीपर फेंक दिया ॥१०॥
हे मैत्रेय ! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार बोले ॥११॥
दुर्वासाजीने कहा -अरे ऐश्वर्यके मदसे दूषितचित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है, तुने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभाकी धाम मालका कुछ भी आदर नहीं किया ! ॥१२॥
अरे ! तूने न तो प्रणाम करके 'बड़ी कृपा की' ऐसा ही कहा और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा ॥१३॥
रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हूई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जायगा ॥१४॥
इन्द्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणोंके समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इस प्रकार अपमान किया है ॥१५॥
अच्छा, तुने मेरी दी हुई मालाको पृथिवीपर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा ॥१६॥
रे देवराज ! जिसके क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत्‌ भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्वसे इस प्रकार अपमान किया ! ॥१७॥
श्रीपराशरजी बोले - तब तो इन्द्रने तुरन्त ही ऐरावत हाथीसे उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजीको ( अनुनय विनय करके ) प्रसन्न किया ॥१८॥
तब उसके प्रणामादि करनेसे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे इस प्रकार कहने लगे ॥१९॥
दुर्वासाजी बोले - 
इन्द्र ! मैं कृपालु चित्त नहीं हूँ, मेरे अन्तः करणमें क्षमाको स्थान नहीं है । वे मुनिजन तो और ही हैं; तुम समझो, मै तो दुर्वासा हूँ न ? ॥२०॥
गौतमादि अन्य मुनिजनोंने व्यर्थ ही तुझे इतना मूँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासाका सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है ॥२१॥
दयामूर्ति वसिष्ठ आदिके बढ़-बढ़कर स्तुति करनेसे तू इतना गर्वीला हो गया की आज मेरा भी अपमान करने चला है ॥२२॥
अरे ! आज त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो मेरे प्रज्वलित जटकलाप और टेढ़ी भृकुटिको देखकर भयभीत न हो जाय ? ॥२३॥
रे शतक्रतो ! तू बारम्बार अनुनय विनय करनेका ढोंग क्यों करता है ? तेरे इस कहने सुननेसे क्या होगा ? मैं क्षमा नहीं कर सकता ॥२४॥
श्रीपराशरजी बोले - हे ब्रह्मन ! इस प्रकार कह वे विप्रवर वहाँसे चल दिये और इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़्कर अमरावतीको चले गये ॥२५॥
हे मैत्रेय ! तभीसे इन्द्रके सहित तीनों लोक वृक्ष लता आदिके क्षीण हो जानेसे श्रीहीन और नष्ट भ्रष्ट होने लगे ॥२६॥
तबसे यज्ञोंका होना बन्द हो गया, तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगोंका दान आदि धर्मोंमें चित्त नहीं रहा ॥२७॥
हे द्विजोत्तम ! सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्त्वशून्य ( सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे ॥२८॥
जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है । श्रीहीनोंमें भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे ठहर सकते हैं ? ॥२९॥
बिना गुणोंके पुरुषमें बल, शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित होता है ॥३०॥
अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित बुद्धी बिगड़ जाती है ॥३१॥
इस प्रकार त्रिलोकीके श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढा़ई कर दी ॥३२॥
सत्त्व और वैभवसे शून्य होनेपर भी दैर्त्योने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोत युद्ध ठाना ॥३३॥
अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए । तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण गये ॥३४॥
देवताओंसे सम्पूर्ण वृतान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा, हे देवगण ! तुम दैत्य दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ, जो ( आरोपसे ) संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और संहारके कारण हैं किंन्तु ( वस्तवमें ) कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर, प्रजापतियोंके स्वामी, सर्वव्यापक, अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान ( मूलप्रकृति ) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं । ( शरण जानेपर ) वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे ॥३५-३७॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! सम्पुर्ण देवगणोंसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके उत्तरी तटपर गये ॥३८॥
वहाँ पहूँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान्‌की अति मंगलमय वाक्योंसे स्तुति की ॥३९॥
ब्रह्माजी कहने लगे - जो समस्त अणुओंसे भी अणु और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं ( भारी पदार्थों ) से भी गुरु ( भारी ) हैं उन निखिललोकविश्राम, पृथिवीके आधारस्वरूप , अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त, अज और अव्यय नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४०-४१॥
मेरेसहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें स्थित है, जिससे उप्तन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर ( प्रधानादि ) से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है,मुक्ति लाभके लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वरमें सत्त्वादि प्राकृतिक गुणोंका सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हों ॥४२-४४॥
जिस शुद्धस्वरूप भगवान्‌के शक्ति ( विभूति ) कला काष्ठा और मुहूर्त आदि काल- क्रमका विषय नहीं है, वे भगवान विष्णु हमपर प्रसन्न हों ॥४५॥
जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचारसे परमेश्वर ( परमा=महालक्ष्मी+ईश्वर = पति ) अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियोंके आत्मा हैं वे श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥४६॥
जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारणके भी कारण और कार्यके भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हों ॥४७॥
जो कार्य ( महत्तत्त्व ) के कार्य ( अहंकार ) का भी कार्य ( तन्मात्रापत्र्चक ) है उसके कार्य ( भूतपत्र्चक ) का भी कार्य ( ब्रह्माण्ड ) जो स्वयं है और जो उसके कार्य ( ब्रह्मा दक्षादि ) का भी कार्यभूत ( प्रजापतियोंके पुत्र पौत्रादि ) है उसे हम प्रणाम करते हैं ॥४८॥
तथा जो जगत्‌के कारण ( ब्रह्मादि ) का कारण ( ब्रह्माण्ड ) और उसके कारण ( भूतपत्र्चक ) के कारण ( पत्र्चतन्मात्रा ) के कारणों ( अहंकार - महत्तत्वादि ) का भी हेतु ( मूलप्रकृति ) है उस परमेश्वरको हम प्रणाम करते हैं ॥४९॥
जो भोक्ता और भोग्य, स्त्रष्टा और सृज्य तथा कर्त्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं ॥५०॥
जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णुका परमपद ( परस्वरूप ) है ॥५१॥
जो न स्थुल है न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषणका विषय है वही भगवान विष्णुका नित्य-निर्मल परमपद है, हम उसको प्रणाम करते हैं ॥५२॥
जिसके अयुतांश ( दस हजारवें अंश ) के अयुतांशमें यह विश्वरचनाकी शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्ययको हम प्रणाम करते हैं ॥५३॥
नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य पापदिका क्षय हो जानेपर ॐ कारद्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पदका साक्षात्कार करते हैं वहीं भगवान विष्णूका परमपद है ॥५४॥
जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर, और मैं कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद है ॥५५॥
जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा, विष्णू और शिवरूप शक्तियाँ हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद हैं ॥५६॥
हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन ! हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार ! हे अच्युत ! हे विष्णो ! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये ॥५७॥
श्रीपराशरजी बोले- 
ब्रह्माजीके इन उद्गारोंको सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले- 'प्रभो ! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिय ॥५८॥
हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये भगवान् ब्रह्माजी भी नहीं जानते, आपके उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं' ॥५९॥
तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणोंके बोल चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे - ॥६०॥
'जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ पुरुष हैं और पूर्वजोंके भी पूर्वपुरुष हैं उन जगत्‌के रचयिता निर्विशेष परमात्माको हम नमस्कार करते हैं ॥६१॥
हे भूत-भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन ! हे अव्यय ! हम सब शरणागर्तोपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये ॥६२॥
हे नाथ ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी, रुद्रोंके सहित भगवान शंकर, बारहों आदित्योंके सहित भगवान् पूषा, अग्नियोंके सहित पावक और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त पावक और ये दोनों अश्विणीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्गण, साध्यगण, विश्वदेव तथा देवराज इन्द्र ये सभी देवगण दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरणमें आये हैं ॥६३-६५॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर शंख चक्रधारी भगवान ! परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए ॥६६॥
तब उस शंख चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोभवश चकित नयन हो उन कमलनयन भगवान्‌की स्तुति करने लगे ॥६७-६८॥
देवगण बोले - 
हे प्रभो ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है ! आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा है आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि, पवन , वरूण, सूर्य और यमराज हैं ॥६९॥
हे देव ! वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्त्रष्टा ! वह भी आप ही हैं क्योंकी आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं ॥७०॥
आप ही यज्ञ हैं आप ही वषट्‌कार हैं तथा आप ही ओंकार और प्रजापति हैं । हे सर्वात्मन ! विद्या, वेद्य और सम्पूर्ण जगत् आपहीका स्वरूप तो है ॥७१॥
हे विष्णो ! दैत्योंसे परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरणमें आये हैं; हे सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिय ॥७२॥
हे प्रभो ! जबतक जीव सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाले आपकी शरणमें नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता, इच्छा मोह और दुःख आदि रहते हैं ॥७३॥
हे प्रसन्नात्मन् ! हम शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्तिसे हम सब देवताओंके ( खोये हुए ) तेजको फिर बढाइये ॥७४॥
श्रीपराशरजी बोले -
विनीत देवताओद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्त्ता भगवान् हरि प्रसन्न होकर इस प्रकार बोले- ॥७५॥
हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढा़ऊँगा; तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो ॥७६॥
तुम दैत्योंके साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृतके लिये क्षीर सागरमें डालो और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवोंके सहित मेरी सहायतासे मथकर अमृत निकालो ॥७७-७८॥
तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्योंसे कहो कि 'इस काममें सहायता करनेसे आपलोग भी इसके फलमें समान भाग पायेंगें' ॥७९॥
समुद्रके मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करनेसे तुम सबल और अमर हो जाओगे ॥८०॥
हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुह्मारे द्वेषी दैत्योंके अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्सेमें केवल समुद्र मन्थनका क्लेश ही आयेगा ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले - तब देवदेव भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके अमृतप्राप्तिके लिये यत्‍न करने लगे ॥८२॥
हे मैत्रेय ! देव, दानव और दैत्योंनें नाना प्रकारकी औषधियाँ लाकर उन्हें शरद् ऋतुके आकाशकी सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर सागरके जलमें डाला और मन्दाराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर बडे़ वेगसे अमृत मथना आरम्भा किया ॥८३-८४॥
भगवान्‌ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस ओर देवताओंको तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्योंको नियुक्त किया ॥८५॥
महातेजस्वी वासुकिके मुखसे निकलते हुए निःश्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गये ॥८६॥
और उसी श्वास वायुसे विक्षिप्त हुए मेघोंके पूँछकी ओर बरसते रहनेसे देवताओंकी शक्ति बढ़ती गयी ॥८७॥
हे महामुने ! भगवान् भगवान् स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीरसागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए ॥८८॥
और वे ही चक्र गदाधर भगवान अपने एक अन्य रूपसे देवताओंमें और एक रूपसे दैत्योंमें मिलकर नागराजको खींचनें लगे थे ॥८९॥
एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्योंको दिखायी नहीं देता था, श्रीकेशवने ऊपरसे पर्वतको दबा रखा था ॥९०॥
भगवान् श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वासुकिमें बलका सत्र्चार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल बढ़ा रहे थे ॥९१॥
इस प्रकार, देवता और दानवोंद्वारा क्षीर समुद्रके मथे जानेपर पहले हवि ( यज्ञ सामग्री ) की आश्रमरूपा सुरपूजिता कामधेनु उप्तन्न हुई ॥९२॥
हे महामुने ! उस समय देव और दानवगण अति आनन्दित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी ॥९३॥
फिर स्वर्गलोकमें 'यह क्या है ? यह क्या है ? इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिद्धोंके समक्ष मदसे घूमते हुए नत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई ॥९४॥
और पुनः मन्थन करनेपर उस क्षीर सागरसे, अपनी गन्धसे त्रिलोकीको सुगन्धित करनेवाला तथा सुर सुन्दरियोंका आनन्दवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ॥९५॥
हे मैत्रेय ! तत्पश्चात् क्षीर सागरसे रूफ और उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई ॥९६॥
फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिंसे महादेवजीने ग्रहण कर लिया । इसी प्रकार क्षीर सागरसे उप्तन्न हुए विषको नागोंने ग्रहण किया ॥९७॥
फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात् भगवान् धन्वन्तरिजी अमृतसे भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए ॥९८॥
हे मैत्रेय ! उस समय मुनिगणके सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ चित्त होकर अति प्रसन्न हुए ॥९९॥
उसके पश्चात विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथोंमें कमल पुष्प धारण किये क्षीर समुद्रसे प्रकट हुई ॥१००॥
उस समय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥१०१-१०२॥
उन्हें अपने जलसे स्नान करानेसे लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हूईं और दिग्गजोंने सुवर्ण कलशोंमें भरे हुए उनके निर्मल जलसे सर्वलोकमहेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया ॥१०३॥
क्षीरसागरने मूर्तिमान् होकर उन्हें विकसित कमल पुष्पोंकी माला दी तथा विश्वकर्माने उनके अंग प्रत्यंगमें विविध आभूषण पहनाये ॥१०४॥
इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसें स्नान कर, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओंके देखते देखते श्रीविष्णुभगवन्‌के वक्षःस्थलमें विराजमान हुई ॥१०५॥
हे मैत्रेय ! श्रीहरिके वक्षःस्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजीका दर्शन कर देवताओंको अकस्मात् अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई ॥१०६॥
और हे महाभाग ! लक्ष्मीजीसे परित्यक्त होनेके कारण भगवान विष्णूके विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्विग्र ( व्याकुल ) हुए ॥१०७॥
तब उन महाबलवान् दैत्योंने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे वह कमंडलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था ॥१०८॥
अतः स्त्री ( मोहिनी ) रूपधारी भगवान् विष्णुने अपनी मायासे दानवोंको मोहित कर उनसे वह कमंडलु लेकर देवताओंको दे दिया ॥१०९॥
तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी गये; इससे दैत्यलोग अति तीखे खंग आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पडे़ ॥११०॥
किन्तु अमृत पानके कारण बलवान् हुए देवताओंद्वारा मारी काटी जाकर दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना दिशा विदिशाओंमें भाग गयी और कुछ पाताललोकमें भी चली गयी ॥१११॥
फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख-चक्र-गदा-धारी भगवान्‌को प्रणाम कह पहलेहीके समान स्वर्गका शासन करने लगे ॥११२॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त भगवान् सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने अपने मार्गसे चलने लगे ॥११३॥
सुन्दर दीप्तिशाली भगवान् अग्निदेव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे और समयसे समस्त प्राणियोंकी धर्ममें प्रवृत्ति हो गयी ॥११४॥
हे द्विजोत्तम ! त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र भी पुनः श्रीमान हो गये ॥११५॥
तदनन्तर इन्दने सर्गलोकमें जाकर फिरसे देवराज्यपर अधिकार पाया और राजसिंहासनपर आरुढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजीकी इस प्रकार स्तुति की ॥११६॥
इन्द्र बोले - सम्पूर्ण लोकोंकी जननी, विकसिअ कमलके सदृश नेत्रोंवाली, भगवान विष्णुके वक्षःस्थलमें विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवीको मैम नमस्कार करता हूँ ॥११७॥
कमल ही जिनका निवासस्थान है, कमल ही जिनके कर-कमलोंमे सुशोभित है, तथा कमल द्लके समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमलनाभ प्रिया श्रीकमलादेवीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥११८॥
हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति , मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो ॥११९॥
हे शोभने ! यज्ञ विद्या ( कर्म काण्ड ) महविद्या ( उपासना ) और गुह्याविद्या ( इन्द्रजाल ) तुम्ही हो तथा है देवी ! तुम्ही मुक्ति फल दायिनी आत्मविद्या हो॥१२०॥
हे देवि ! आन्वीक्षिकी ( तर्कविद्य ), वेदत्रयी, वार्ता ( शिल्पवाणिज्यादि ) और दण्डनीति ( राजनीति ) भी तुम्हीं हो ! तुम्होंने अपने शान्त और उग्र रूपोंसे यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है ॥१२१॥
हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधरके योगिजनचिन्तित सर्वयज्ञमय शरीरका आश्रय पा सके ॥१२२॥
हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब तुम्हीनें उसे पुनः जीवन-दान दिया है ॥१२३॥
हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद ये सब सदा आपहीके दृष्टिपातसे मनुष्योंको मिलते हैं ॥१२४॥
हे देवि ! तुम्हारी कृपा-दृष्टिके पात्र पुरुषोंके लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रु-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं ॥१२५॥
तुम सम्पूर्ण लोकोंकी माता हो और देवदेव भगवान् हरि पिता हैं । हे मातः ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान्‌से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है ॥१२६॥
हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश ( खजाना ) , गोष्ठ ( पशू-शाला ) , गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात इनमें भरपूर रहें ॥१२७॥
अयि विष्णुवक्षः स्थल निवासिनि ! हमारे पुत्र, सुहृद्‍, पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोड़े ॥१२८॥
हे अमले ! जिन मनुष्योंको तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व ( मानसिक बल ), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं ॥१२९॥
और तुम्हारी कृपा दृष्टि होनेपर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदिसे सम्पन्न हो जाते हैं ॥१३०॥
हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है ॥१३१॥
हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते हैं ॥१३२॥
हे देवि ! तुम्हारे गुणोंक वर्णन करनेमें तो श्रीब्रह्माजीकी रसना भी समर्थ नहीं है । ( फिर मैं क्या कर सकता हूँ ? ) अतः हे कमलनयने ! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोड़े ॥१३३॥
श्रीपराशरजी बोले - 
हे द्विज ! इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओंके सुनते हुए इन्द्रसे इस प्रकार बोलीं ॥१३४॥
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं - 
हे देवेश्वर इन्द्र ! मैं तेरे इस स्तोत्रसे अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले । मैं तुझे वर देनेके लिये ही यहाँ आयी हूँ ॥१३५॥
इन्द्र बोले -
हे देवी ! यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकीका कभी त्या न करें ॥१३६॥
और हे समुद्रसम्भवे ! दुसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्रसे स्तुति करे उसे आप कभी न त्यानें ॥१३७॥
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं - हे देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकीको कभी न छोडूँगी । तेरे स्त्रोत्रसे प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ ॥१३८॥
तथा जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और सायंकालके समय इस स्त्रोत्रसे मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी ॥१३९॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकालमें महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देवराजकी स्तोत्ररूप आराधनासे सन्तुष्ट होकर उन्हें ये वर दिये ॥१४०॥
लक्ष्मीजी पहले भॄगुजीके द्वारा ख्याति नामक स्त्रीसे उप्तन्न हुई थीं, फिर अमृत मन्थनके समय देव और दानवोंके प्रयत्नसे वे समुद्रसे प्रकट हूई ॥१४१॥
इस प्रकार संसारके स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं ॥१४२॥
जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे पद्मसे फिर उत्पन्न हुई ( और पद्मा कहलायीं ) । तथा जब वे परशुराम हूए तो ये पृथिवी हुई ॥१४३॥
श्रीहरिके राम होनेपर ये सीताजी हूईं और कृष्णावतारमें श्रीरूक्मिणीजी हुई । इसी प्रकार अन्य अवतारोंमें भी भगवान्‌से कभी पृथक नहीं होतीं ॥१४४॥
भगवानके देवरुप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती हैं, और मनुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट होती हैं । विष्णुभगवानके शरीरके अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती हैं ॥१४५॥
जो मनुष्य लक्ष्मीजीके जन्मकी इस कथाको सुनेगा अथवा पढे़गा उसके घरमें ( वर्तमान आगामी और भूत ) तीनों कुलोंके रहते हुए कभी लक्ष्मीका नाश न होगा ॥१४६॥
हे मुने ! जिन घरोंमें लक्ष्मीजीके इस स्तोत्रका पाठ होता है उनमें कलहकी आधारभूता दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती ॥१४७॥
हे ब्रह्मन ! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजीकी पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीर समुद्रसे कैसे उप्तन्न हूई सो मैंने तुमसे यह सब वृत्तान्त कह दिया ॥१४८॥
इस प्रकार इन्द्रके मुखसे प्रकट हुई यह लक्ष्मीजीकी स्तुति सकल विभूतियोंकी प्राप्तिका कारण है, जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी ॥१४९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥९॥
 

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