माता-पिता की मृत्यु के बाद कल्लाजी व तेजसिंह दोनों भाई अपने काका जयमल के साथ बदनौर चले गये। यही दोनो का लालन-पालन हुआ। एक दिन जयमल के बड़े पुत्र रूपसिंह की पत्नी ने कल्लाजी को मेणा (ताना) दिया कि काकाभाई तो युद्ध कर रहे हैं और भतीजा यहां फालतू रोटियां तोड रहा है। युद्ध जीतकर गेहूं लाओ और तब रोटिया खाओ तो जानूं। भाभी की यह मात कल्लाजी को इतिहास अब माना जा वर्ग भर: चले आये। इस समय कल्लाजी सत्ताईस वर्ष के भी रिलौद्ध चले गये और युद्ध के दौरान वीरगति का प्राम नाम ४१२ कष्टों में रहे। भाभियों ने उन्हें अपमानित जोर नहीं गनी। न अच्छा पहनने को मिला न भरपेट खाने को दिन माता, पुत्रों की जो अवदशा होती है, वही कल्लाजी और जादी की।

कंकू कुंर से विवाह: काका जवाल के साथ कल्लाजी का बदनौर आना-जाना mar .दि जयप कहानी मामा ने कहा कि आपके परिवार में एक बालकी और देरी मोबा, काला अविवाहित है...! उसका विवाह करना ही है आर: पहली में ना युद्ध की आशंका बनी रहने के कारण जयमलजी कल्लाजी की भगाई ला नोट में ना आ गया और उनका विवाह रचा दिया गया।  गलिया सुधारा गांव की कंकू कुवर नामक कन्या से कंकू कुंवर रिश्ते में भुवा--भतीजी थी। कंकू कुवर बदल २६ विवाहित जीवन के व्यतीत किये। उसके पद अब बाबा पर भी लौटकर नहीं आई। न कल्लाजी, हाउस सामने थे। इन लानेदार को जन्म दिया।

बालाजी का लीला घोड़ा: घर पर सवार, करते थे। ऐसे घोडे हजारों-लाखों में एक आध रामदेवजी के भी ऐसा ही घोडा हा है अशुद्ध नी और सभी प्रकार के दावपेव के जानकार होते। अपना अपने स्वामी को सदेव संकट से बचाये रखते। भावी भन बरले पाती। सनुमार थे अपने स्वामी को उसका इशारा देकर दमा आक्षमी की औरत ऊँचाई भी दस फीट की होती थी। इससे घोडो की वाई भी शादी की थी। इससे घोड़ों की ऊंचाई का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि भीसा धोश और उसके सकार कमानी दो ही व्यक्तित्व के स्वामी थे। जब युद्ध नहीं होता तब कल्लाजी अपने इस घोडे पर सवार हो सेना की देखरेख करते। सैनिकों को प्रशिक्षित करते। आदेश-निदेश देते। चौकिया संभालते। कभी रात को बस्ती में निकल जाते। पहरेदारों की परीक्षा लेने। जन-जीवन का अध्ययन करते।

चक्रवात युद्ध के धनी कल्लाजी: युद्ध भूमि में कल्लाजी का रणकौशल अन्य वीरों-शूरमाओं से सदैव ही न्यारा निराला रहता। इसीलिए इनका युद्ध चक्रवात युद्ध कहलाता। ऐसा युद्ध कल्लाजी ही लड सकते थे। इस युद्ध में दोनों हाथों में तलवारें रहतीं। तलवारें भी एक नहीं दो-दो साथ होती और चारो ओर से वार करती। जिधर इन्हें घुमाया जाता घुम जाती। दायें बाये ऊपर-नीचे आगे-पीछे जिधर जैसे चाहो वैसे इनसे वार किया जाता। गाजर-मूली की तरह देखते-देखते दुश्मनों की बहुत बड़ी फोज का सफाया हो जाता। सर्वाधिक दुश्मनों का खात्मा ही चित्तौड़ की लड़ाई में अकेले कल्लाजी ने किया।

अपने जीवन में कल्लाजी ने कुल नौ हमले किये। अन्य वीर जब लड़ते समय अपने एक हाथ मे ढाल और दूसरे हाथ में तलवार रखते वहा कल्लाजी ने कभी अपने हाथ में ढाल नहीं ली। जब कभी तलवार नहीं होती तब भाला और तीर से दुश्मन को अपना निशाना बनाते। जब ये भी नहीं होते तो किसी ऊट के पाव की हड्डी को ही घिस घिसाकर अपना शस्त्र बना लेते और उसी से लड़ाई जारी रखते। तलवारें सिरोही की बनी होतीं। इनमें इतनी शक्ति होती कि लोके खम्भों तक को काट देतीं। यही नहीं, इनमे दुश्मन को अपनी ओर खींचने और उस पर बीजली सा प्रहार करने की अद्भुत क्षमता होती। कल्लाजी जब बार करते तो दुश्मन यह नहीं भाप पाते कि वार किधर से होगा।

दो टांगो के बीच थोड़ी सी जगह रहने पर भी ये इस कौशल से वार करते कि दुश्मन के होश उड जाते। ये तलवारें बचाव के लिए ढाल का काम भी करतीं। गोलिया तक इन तलवारों से झेल ली जातीं। कल्लाजी के युद्ध की क्या कहें, लाशों की ढेरी पर ढेरी होती रहती फिर भी इनका वार-युद्ध बन्द नहीं होता। ऐसा-ऐसा समय भी आया जब नौ-नौ गज तक लाशों का ढेर जमा हो गया और कल्लाजी उस ढेर पर से युद्ध करते हुए बढ़ते रहे। युद्ध भूमि में कौन इन्हें भोजन देता। कौन पानी पिलाता! तब दुश्मनों का खून अथवा स्वयं का पसीना ही इनकी प्यास बुझाता और अपने सैनिकों का मांस ही इनका भोजन होता|

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