कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर जी-जान से आशिक हो चुके थे। इस बीमारी की हालत में भी उसकी याद इन्हें सता रह थी और यह जानने के लिए बेचैन हो रहे थे कि उस पर क्या बीती, वह किस अवस्था में कहां है और अब उसकी सूरत कब किस तरह देखनी नसीब होगी। जब तक वे अच्छी तरह दुरुस्त नहीं हो जाते, न तो खुद कहीं जाने के लिए हुक्म ले सकते थे और न किसी बहाने से अपने प्रेमी साथी ऐयार भैरोसिंह को ही कहीं भेज सकते थे। इस बीमारी की हालत में समय पाकर उन्होंने भैरोसिंह से सब हाल मालूम कर लिया था। यह सुनकर कि किशोरी को दीवान अग्निदत्त उठा ले गया बहुत ही परेशान थे मगर यह खबर उन्हें कुछ-कुछ ढाढ़स देती थी कि चपला, चंपा और पंडित बद्रीनाथ उसके छुड़ाने की फिक्र में लगे हुए हैं और राजा वीरेंद्रसिंह को भी यह धुन जी से लगी हुई है कि जिस तरह बने शिवदत्त की लड़की किशोरी की शादी अपने लड़के के साथ करके शिवदत्त को नीचा दिखावें और शर्मिन्दा करें।
कुंअर आनंदसिंह ने भी अब इश्क के मैदान में पैर रखा, मगर इनकी हालत अजब गोमगो में पड़ी हुई है। जब उस औरत का ध्यान आता जी बेचैन हो जाता था मगर जब देवीसिंह की बात को याद करते कि वह डाकुओं के एक गिरोह की सरदार है तो कलेजे में अजीब तरह का दर्द पैदा होता था और थोड़ी देर के लिए चित्त का भाव बदल जाता था, लेकिन साथ ही इसके सोचने लगते थे कि नहीं, अगर वह हम लोगों की दुश्मन होती तो मेरी तरफ देखकर प्रेम भाव से कभी न हंसती और फूलों के गुलदस्ते और गजरे सजाने के लिए जब उस कमरे में आई थी तो हम लोगों को नींद में गाफिल पाकर जरूर मार डालती। पर फिर हम लोगों की दुश्मन अगर नहीं है तो उन डाकुओं का साथ कैसा!
ऐसे-ऐसे सोच-विचार ने उनकी अवस्था खराब कर रखी थी। कुंअर इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह को उनके जी का पता कुछ-कुछ लग चुका था मगर जब तक उसकी इज्जत-आबरू और जात-पांत की खबर के साथ-साथ यह भी मालूम न हो जाय कि वह दोस्त है या दुश्मन, तब तक कुछ कहना-सुनना या समझाना मुनासिब नहीं समझते थे।
राजा वीरेंद्रसिंह को अब यह चिंता हुई कि जिस तरह वह औरत इस घर में आ पहुंची कहीं डाकू लोग भी आकर लड़कों को दुख न दें और फसाद न मचावें। उन्होंने पहरे वगैरह का अच्छी तरह इंतजाम किया और यह सोच कि कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तंदुरुस्त नहीं हुए हैं कमजोरी बनी हुई है और किसी तरह लड़भिड़ नहीं सकते, इनको अकेले छोड़ना मुनासिब नहीं, अपने सोने का इंतजाम भी उसी कमरे में किया और साथ ही एक नया तथा विचित्र तमाशा देखा।
हम ऊपर लिख आये हैं कि इस कमरे के दोनों तरफ दो कोठरियां हैं, एक में संध्या-पूजा का सामान है और दूसरी वही विचित्र कोठरी है जिसमें से वह औरत पैदा हुई थी। संध्या-पूजा वाली कोठरी में बाहर से ताला बंद कर दिया गया और दूसरी कोठरी का कुलाबा वगैरह दुरुस्त करके बिना बाहर ताला लगाये उसी तरह छोड़ दिया गया जैसे पहले था, बल्कि राजा वीरेंद्रसिंह ने उसी दरवाजे पर अपना पलंग बिछवाया और सारी रात जागते रह गए।
आधी रात बीत गई मगर कुछ देखने में न आया, तब वीरेंद्रसिंह अपने बिस्तरे पर से उठे और कमरे में इधर-उधर घूमने लगे। घंटे भर बाद उस कोठरी में से कुछ खटके की आवाज आई, वीरेंद्रसिंह ने फौरन तलवार उठा ली और तारासिंह को उठाने के लिए चले मगर खटके की आवाज पर तारासिंह पहले ही से सचेत हो गये थे, अब हाथ में खंजर ले वीरेंद्रसिंह के साथ टहलने लगे।
आधी घड़ी के बाद जंजीर खटकने की आवाज इस तरह पर हुई जिससे साफ मालूम हो गया कि किसी ने इस कोठरी का दरवाजा भीतर से बंद कर लिया। थोड़ी ही देर के बाद पैर की धमाधमी की आवाज भीतर से आने लगी, मानो चार-पांच आदमी भीतर उछल-कूद रहे हैं। वीरेंद्रसिंह कोठरी के दरवाजे के पास गये और हाथ का धक्का देकर किवाड़ खोलना चाहा मगर भीतर से बंद रहने के कारण दरवाजा न खुला, लाचार उसी जगह खड़े हो भीतर की आहट पर गौर करने लगे।
अब पैरों की धमाधमी की आवाज बढ़ने लगी और धीरे-धीरे इतनी ज्यादा हुई कि कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह भी उठे और कोठरी के पास जाकर खड़े हो गये। फिर दरवाजा खोलने की कोशिश की गई पर न खुला। भीतर जल्द-जल्द पैर उठाने और पटकने की आवाज से सभों को निश्चय हो गया कि अंदर लड़ाई हो रही है। थोड़ी ही देर के बाद तलवारों की झनझनाहट भी सुनाई देने लगी। अब भीतर लड़ाई होने से किसी तरह का शक न रहा। आनंदसिंह ने चाहा कि दरवाजे का कुलाबा तोड़ा जाय मगर वीरेंद्रसिंह की मर्जी न पाकर सब चुपचाप खड़े आहट सुनते रहे।
यकायक धमधमाहट की आवाज बढ़ी और तब सन्नाटा हो गया। घड़ी भर तक ये लोग बाहर खड़े रहे मगर कुछ मालूम न हुआ और न फिर किसी तरह की आहट या आवाज ही सुनाई दी। रात सिर्फ दो घंटे बल्कि इससे भी कम बाकी रह गई थी। पहरे वाले टहलकर अच्छी तरह से पहरा दे रहे हैं या नहीं यह देखने के लिए तारासिंह बाहर गए और सभों को अपने काम पर मुस्तैद पाकर लौट आए। इतने ही में कमरे का दरवाजा खुला और भैरोसिंह को साथ लिए देवीसिंह आते दिखाई पड़े।
ये दोनों ऐयार सलाम करने के बाद वीरेंद्रसिंह के पास बैठ गये मगर यह देखकर कि यहां अभी तक ये लोग जाग रहे हैं ताज्जुब करने लगे।
देवी - आप लोग इस समय तक जाग रहे हैं।
वीरेंद्र - हां, यहां कुछ ऐसा ही मामला हुआ जिससे निश्चिंत हो सो न सके।
देवी - सो क्या?
वीरेंद्र - खैर तुम्हें यह भी मालूम हो जायगा, पहले अपना हाल तो कहो। (भैरोसिंह की तरफ देखकर) तुमने उस औरत को पहचाना?
भैरो - जी हां, बेशक वही औरत है जो यहां आई थी, बल्कि वहां एक और औरत दिखाई दी।
वीरेंद्र - यहां से जाकर तुमने क्या किया और क्या-क्या देखा सो खुलासा कह जाओ।
भैरोसिंह ने जो कुछ देखा था कहने के बाद यहां का हाल पूछा। वीरेंद्रसिंह ने भी यहां की कुल कैफियत कह सुनाई और बोले, ''हम यही राह देख रहे थे कि सबेरा हो जाये और तुम लोग भी आ जाओ तो इस कोठरी को खोलें और देखें कि क्या है, कहीं से किसी के आने-जाने का पता लगता है या नहीं।''
कोठरी खोली गई। एक हाथ में रोशनी दूसरे में नंगी तलवार लेकर पहले देवीसिंह कोठरी के अंदर घुसे और तुरंत ही बोल उठे - ''वाह-वाह, यहां तो खून-खराबा मच चुका है!'' अब राजा वीरेंद्रसिंह, दोनों कुमार और उनके दोनों ऐयार भी कोठरी के अंदर गये और ताज्जुब भरी निगाहों से चारों तरफ देखने लगे।
इस कोठरी में जो फर्श बिछा हुआ था वह इस तरह से सिमट गया था जैसे कई आदमियों के बेअख्तियार उछल-कूद करने या लड़ने से इकट्ठा हो गया हो, ऊपर से वह खून से तर भी हो रहा था। चारों तरफ दीवारों पर भी खून के छींटे और लड़ती समय हाथ बहककर बैठ जाने वाली तलवारों के निशान दिखाई दे रहे थे। बीच में एक लाश पड़ी हुई थी मगर बेसिर की, कुछ समझ में नहीं आता था कि यह लाश किसकी है। कपड़ों में सिर्फ एक लंगोटा उसकी कमर में था। तमाम बदन नंगा जिसमें अंदाज से ज्यादा तेल लगा हुआ था। दाहिने हाथ में तलवार थी मगर वह हाथ भी कटा हुआ सिर्फ जरा-सा चमड़ा लगा हुआ था, वह भी इतना कम कि अगर कोई खेंचे तो अलग हो जाय। सबसे ज्यादा परेशान और बेचैन करने वाली एक चीज और दिखाई दी।
दाहिने हाथ की कटी हुई एक कलाई जिसमें फौलादी कटार अभी तक मौजूद थी, दिखाई पड़ी। आनंदसिंह ने फौररन उस हाथ को उठा लिया और सभों की निगाह भी गौर के साथ उस पर पड़ने लगी। यह कलाई किसी नाजुक, हसीन और कमसिन औरत की थी। हाथ में हीरे का जड़ाऊ कड़ा और जमीन पर मानिक की दो-तीन बारीक जड़ाऊ चूड़ियां भी मौजदू थीं, शायद कलाई कटकर गिरते समय ये चूड़ियां हाथ से अलग हो जमीन पर फैल गई हों।
इस कलाई के देखने से सभों को रंज हुआ और झट उस औरत की तरफ खयाल दौड़ गया जिसे इस कोठरी में से निकलते सभों ने देखा था। चाहे उस औरत के सबब से ये कैसे ही हैरान क्यों न हों, मगर उसकी सूरत ने सभों को अपने ऊपर मेहरबान बना लिया था, खास करके कुंअर आनंदसिंह के दिल में तो वह उनके जान और माल की मालिक ही होकर बैठ गई थी, इसलिए सबसे ज्यादे दुख छोटे कुंअर साहब को हुआ। यह सोचकर कि बेशक यह उसी औरत की कलाई है कुंअर आनंदसिंह की आंखों में जल भर आया और कलेजे में एक किस्म का दर्द पैदा हुआ, मगर इस समय कुछ कहने या अपने दिल का हाल जाहिर करने का मौका न समझ उन्होंने बड़ी कोशिश से अपने को सम्हाला और चुपचाप सभों का मुंह देखने लगे।
पाठक, अभी इस औरत के बारे में बहुत कुछ लिखना है इसलिए जब तक यह मालूम न हो जाय कि यह औरत कौन है तब तक अपने और आपके सुबीते के लिए हम इसका नाम 'किन्नरी' रख देते हैं।
राजा वीरेंद्रसिंह और उनके ऐयारों ने इन सब अद्भुत बातों को जो इधर कई दिनों में हो चुकी थीं छिपाने के लिए बहुत कोशिश की मगर हो न सका। कई तरह पर रंग बदलकर यह बात तमाम शहर में फैल गई। कोई कहता था 'महाराज के मकान में देव और परियों ने डेरा डाला है!' कोई कहता था 'गयाजी के भूत-प्रेत इन्हें सता रहे हैं!' कोई कहता था 'दीवान अग्निदत्त के तरफदार बदमाश और डाकुओं ने यह फसाद मचाया है!' इत्यादि बहुत तरह की बातें शहर वाले आपस में कहने लगे मगर उस समय बातों का ढंग ही बिल्कुल बदल गया जब राजा वीरेंद्रसिंह के हुक्म से देवीसिंह ने उस सिर कटी लाश को जो कोठरी में से निकली थी उठवाकर सदर चौक में रखवा दिया और उसके पास एक मुनादी वाले को यह कहकर पुकारने के लिए बैठा दिया कि - ''अग्निदत्त के तरफदार डाकू लोग जो शहर के रईसों और अमीरों को सताया करते थे ऐयारों के हाथ गिरफ्तार होकर मारे जाने लगे, आज एक डाकू मारा गया है जिसकी लाश यह है।''