रोहतासगढ़ किले के चारों तरफ घना जंगल है जिसमें साखू, शीशम, तेंदू, आसन और सलई इत्यादि के बड़े-बड़े पेड़ों की घनी छाया से एक तरह को अंधकार-सा हो रहा है। रात की तो बात ही दूसरी है वहां दिन को भी रास्ते या पगडंडी का पता लगाना मुश्किल था क्योंकि सूर्य की सुनहरी किरणों को पत्तों में से छनकर जमीन तक पहुंचने का बहुत कम मौका मिलता था। कहीं-कहीं छोटे-छोटे पेड़ों की बदौलत जंगल इतना घना हो रहा था कि उसमें भूले आदमियों को मुश्किल से छुटकारा मिलता था। ऐसे मौके पर उसमें हजारों आदमी इस तरह छिप सकते थे कि हजार सिर पटकने और खोजने पर भी उनका पता लगाना असंभव था। दिन को तो इस जंगल में अंधकार रहता ही था मगर हम रात का हाल लिखते हैं जिस समय उसकी अंधेरी और वहां के सन्नाटे का आलम भूले-भटके मुसाफिरों को मौत का समाचार देता था और वहां की जमीन के लिए अमावस्या और पूर्णिमा की रात एक समान थी।

किले के दाहिने तरफ वाले जंगल में आधी रात के समय हम तीन आदमियों को जो स्याह चौगे और नकाबों से अपने को छिपाये हुए थे घूमते देख रहे हैं। न मालूम ये किसकी खोज और किस जमीन की तलाश में हैरान हो रहे हैं! इनमें से एक कुंअर आनंदसिंह, दूसरे भैरोसिंह और तीसरे तारासिंह हैं। ये तीनों आदमी देर तक घूमने के बाद छोटी-सी चारदीवारी के पास पहुंचे जिसके चारों तरफ की दीवार पांच हाथ से ज्यादे ऊंची न थी और वहां के पेड़ भी कम घने और गुंजान थे, कहीं-कहीं चंद्रमा की रोशनी भी जमीन पर पड़ती थी।

आनंद - शायद यही चारदीवारी है!

भैरो - बेशक यही है, देखिए फाटक पर हड्डियों का ढेर लगा हुआ है।

तारा - खैर भीतर चलिए, देखा जायगा।

भैरो - जरा ठहरिये, पत्तों की खड़खड़ाहट से मालूम होता है कि कोई आदमी इसी तरफ आ रहा है!

आनंद - (कान लगाकर) हां ठीक तो है, हम लोगों को जरा छिपकर देखना चाहिए कि वह कौन है और इधर क्यों आता है।

उस आने वाले की तरफ ध्यान लगाये हुए तीनों आदमी पेड़ों की आड़ में छिप रहे और थोड़ी ही देर में सफेद कपड़े पहिरे एक औरत को आते हुए उन लोगों ने देखा। वह औरत पहले तो फाटक पर रुकी, तब कान लगाकर चारों तरफ की आहट लेने के बाद फाटक के अंदर घुस गई। भैरोसिंह ने आनंदसिंह से कहा, ''आप दोनों इसी जगह ठहरिये, मैं उस औरत के पीछे जाकर देखता हूं कि वह कहां जाती है।'' इस बात को दोनों ने मंजूर किया और भैरोसिंह छिपते हुए उस औरत के पीछे रवाना हुए।

ऐसे घने जंगल में भी उस चारदीवारी के अंदर पेड़, झाड़ी या जंगल का न होना ताज्जुब की बात थी। भैरोसिंह ने वहां की जमीन बहुत साफ-सुथरी पाई, हां छोटे जंगली बेर के दस-बीस पेड़ वहां जरूर थे जो किसी तरह का नुकसान न पहुंचा सकते थे और न उनकी आड़ में कोई आदमी छिप ही सकता था, मगर मरे हुए जानवरों और हड्डियों की बहुतायत से वह जगह बड़ी ही भयानक हो रही थी। उस चारदीवारी के अंदर बहुत-सी कब्रें बनी हुई थीं जिनमें कई कच्ची तथा कई ईंट-चूने और पत्थर की भी थीं और बीच में एक सबसे बड़ी कब्र संगमर्मर की बनी हुई थी।

भैरोसिंह ने फाटक के अंदर पैर रखते ही उस औरत को जिसके पीछे गए थे बीच वाली संगमर्मर की बड़ी कब्र पर खड़े और चारों तरफ देखते पाया, मगर थोड़ी देर में वह देखते-देखते कहीं गायब हो गई। भैरोसिंह ने उस कब्र के पास जाकर उसे ढूंढ़ा मगर पता नहीं लगा, दूसरी कब्रों के चारों तरफ और इधर-उधर भी खोजा मगर कोई निशान न मिला। लाचार वे आनंदसिंह और तारासिंह के पास लौट आये और बोले -

भैरो - वह औरत वहां ही चली गई जहां हम लोग जाया चाहते हैं।

आनंद - हां!

भैरो - जी हां।

आनंद - फिर अब क्या राय है

भैरो - उसे जाने दीजिये, चलिये हम लोग भी चलें। अगर वह रास्ते में मिल ही जायगी तो क्या हर्ज है एक औरत हम लोगों का कुछ नुकसान नहीं कर सकती।

ये तीनों आदमी उस चारदीवारी के अंदर गए और बीच वाली संगमर्मर की बड़ी कब्र पर पहुंचकर खड़े हो गए। भैरोसिंह ने उस कब्र की जमीन को अच्छी तरह टटोलना शुरू किया। थोड़ी ही देर में एक खटके की आवाज आई और एक छोटा-सा पत्थर का टुकड़ा जो शायद कमानी के जोर पर लगा हुआ था दरवाजे की तरह खुलकर अलग हो गया। ये तीनों आदमी उसके अंदर घुसे और उस पत्थर के टुकड़े को उसी तरह बंद कर आगे बढ़े। अब ये तीनों आदमी एक सुरंग में थे जो बहुत ही तंग और लंबी थी। भैरोसिंह ने अपने बटुए में से एक मोमबत्ती निकालकर जलाई और चारों तरफ अच्छी तरह निगाह करने के बाद आगे बढ़े। थोड़ी ही देर में यह सुरंग खत्म हो गई और ये तीनों एक भारी दालान में पहुंचे। इस दालान की छत बहुत ऊंची थी और इसमें कड़ियों के सहारे कई जंजीरें लटक रही थीं। इस दालान के दूसरी तरफ एक और दरवाजा था जिसमें से होकर ये तीनों एक कोठरी में पहुंचे। इस कोठरी के नीचे एक तहखाना था जिसमें उतरने के लिए संगमर्मर की सीढ़ियां बनी हुई थीं। ये तीनों नीचे उतर गये। अब एक बड़े भारी घंटे के बजने की आवाज इन तीनों के कान में पड़ी जिसे सुन ये कुछ देर के लिए रुक गये। मालूम हुआ कि इस तहखाने वाली कोठरी के बगल में कोई और मकान है जिसमें घंटा बज रहा है। इन तीनों को वहां और भी कई आदमियों के मौजूद होने का गुमान हुआ।

इस तहखाने में भी दूसरी तरफ निकल जाने के लिए एक दरवाजा था जिसके पास पहुंचकर भैरोसिंह ने मोमबत्ती बुझा दी और धीरे से दरवाजा खोल उस तरफ झांका। एक बड़ी संगीन बारहदरी नजर पड़ी जिसके खंभे संगमर्मर के थे। इस बारहदरी में दो मशाल जल रहे थे जिनकी रोशनी से वहां की हर एक चीज साफ मालूम होती थी और इसी से वहां दस-पंद्रह आदमी भी दिखाई पड़े जिनमें रस्सियों से मुश्कें बंधी हुई तीन औरतें भी थीं। भैरोसिंह ने पहचाना कि इन तीनों औरतों में एक किशोरी है जिसके दोनों हाथ पीठ की तरफ कसकर बंधे हुए हैं और वह नीचे सिर किए रो रही है। उसके पास वाली दोनों औरतों की भी वही दशा थी मगर उन्हें भैरोसिंह, आनंदसिंह या तारासिंह नहीं पहचानते थे। उन तीनों के पीछे नंगी तलवार लिए तीन आदमी भी खड़े थे जिनकी सूरत और पोशाक से मालूम होता था कि वे जल्लाद हैं।

उस बारहदरी के बीचोंबीच चांदी के सिंहासान पर स्याह पत्थर की एक मूरत इतनी बड़ी बैठी हुई थी कि आदमी पास में खड़ा होकर भी उस बैठी हुई मूरत के सिर पर हाथ नहीं रख सकता था। उस मूरत की सूरत-शक्ल के बारे में इतना ही लिखना काफी है कि उसे आप कोई राक्षस समझें जिसकी तरफ आंख उठाकर देखने से डर मालूम होता था।

भैरोसिंह, तारासिंह और आनंदसिंह उसी जगह खड़े होकर देखने लगे कि उस दालान में क्या हो रहा है। अब घंटे की आवाज बड़े जोर से आ रही थी मगर यह नहीं मालूम होता था कि वह कहां बज रहा है।

उन तीनों औरतों को जिनमें किशोरी भी थी छः आदमियों ने अच्छी तरह मजबूती से पकड़ा और बारी-बारी से उस स्याह मूरत के पास ले गए जहां उसके पैरों पर जबर्दस्ती सिर रखवाकर पीछे हटे और फिर उसी के सामने खड़ा कर दिया।

इसके बाद दो आदमी एक औरत को लेकर आगे बढ़े जिसे हमारे तीनों आदमियों में से कोई भी नहीं पहचानता था, उस औरत के पीछे जो जल्लाद नंगी तलवार लिए खड़ा था वह भी आगे बढ़ा। दोनों आदमियों ने उस औरत को स्याह मूरत के ऊपर इस जोर से ढकेल दिया कि बेचारी बेतहाशा गिर पड़ी, साथ ही जल्लाद ने एक हाथ तलवार का ऐसा मारा कि सिर कटकर दूर जा पड़ा और धड़ तड़पने लगा। इस हाल को देख वे दोनों औरतें जिनमें बेचारी किशोरी भी थी, बड़े जोर से चिल्लाईं और बदहवास होकर जमीन पर गिर पड़ीं।

इस कैफियत को देखकर हमारे दोनों ऐयारों और कुंअर आनंदसिंह की अजब हालत हो गई। गुस्से के मारे थर-थर कांपने लगे। थोड़ी देर बाद उन लोगों ने किशोरी को उठाया और उस मूरत के पास ले चले। उसके साथ ही दूसरा जल्लाद भी आगे बढ़ा। अब ये तीनों किसी तरह बर्दाश्त न कर सके। कुंअर आनंदसिंह ने दोनों ऐयारों को ललकारा - ''मारो इन जालिमों को! ये थोड़े से आदमी हैं क्या चीज!''

तीनों आदमी खंजर निकाल आगे बढ़ना ही चाहते थे कि पीछे से कई आदमियों ने आकर इन लोगों को भी पकड़ लिया और ''यही हैं, यही हैं, पहले इन्हीं की बलि देनी चाहिए!'' कहकर चिल्लाने लगे।

(तीसरा भाग समाप्त)

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