सूर्य भगवान के अस्त होने में अभी घंटे भर की देर है, फिर भी मौसम के मुताबिक बाग में टहलने वाले हमारे कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह को ठंडी हवा सिहरावनदार मालूम हो रही है। रंग-बिरंगे खूबसूरत फूल खिले हुए हैं जिनको देखने में हर एक की तबीयत उमंग पर आ सकती है मगर इन दोनों के दिल की कली किसी तरह भी खिलने में नहीं आती। बाग में जितनी चीजें दिल खुश करने वाली हैं वे सभी इस समय इन दोनों को बुरी मालूम होती हैं। बहुत देर से ये दोनों भाई बाग में टहल रहे हैं मगर ऐसी नौबत न आई कि एक दूसरे से बात करे या हंसे क्योंकि दोनों के दिल चुटीले हो रहे हैं, दोनों ही अपनी-अपनी धुन में डूबे हुए हें, दोनों ही को अपने-अपने माशूक की खोज है, दोनों ही सोच रहे हैं कि 'हाय क्या ही आनंद होता अगर इस समय वह मौजूद होता जिसे जी प्यार करता है या जिसके बिना दुनिया की संपत्ति तुच्छ मालूम होती है!' दिल बहलाने का बहुत कुछ उद्योग किया मगर न हो सका, लाचार दोनों भाई उस बारहदरी में पहुंचे जो बाग के दक्खिन तरफ महल के साथ सटी हुई है और जहां इस समय राजा वीरेंद्रसिंह अपने मुसाहिबों के साथ जी बहलाने की बातें कर रहे थे। देवीसिंह भी उनके पास बैठे हुए थे जो कभी-न-कभी लड़कपन की बातें याद दिलाने के साथ ही गुप्त दिल्लगी भी करते जाते थे और जवाब भी पाते थे। दोनों लड़के भी वहां जा पहुंचे मगर इनके बैठते ही मजलिस का रंग बदल गया और बातों ने पलटा खाकर दूसरा ही ढंग पकड़ा जैसा कि अक्सर हंसी-दिल्लगी करते हुए बड़ों के बीच में समझदार लड़कों के आ बैठने से हो जाता है।

वीरेंद्र - अब तो चुनार जाने को जी चाहता है मगर...

देवी - यहां आपकी जरूरत भी अब क्या है?

वीरेंद्र - ठीक है, यहां मेरी जरूरत नहीं, लेकिन यहां की अद्भुत बातें देखकर विचार होता है कि मेरे चले जाने से कोई बखेड़ा न मचे और लड़कों को तकलीफ न हो।

इंद्र - (हाथ जोड़कर) इसकी चिंता आप न करें, हम लोग जब इतनी छोटी-छोटी बातों से अपने को सम्हाल न सकेंगे तो आगे क्या करेंगे!

वीरेंद्र - तो क्या तुम्हारा इरादा भी यहां रहने का है?

इंद्र - यदि आज्ञा हो!

वीरेंद्र - (कुछ सोचकर) क्यों देवीसिंह!

देवी - क्या हर्ज है, रहने दीजिए।

वीरेंद्र - और तुम।

देवी - मैं आपके साथ चलूंगा, यहां भैरो और तारा रहेंगे, वे दोनों होशियार हैं, कुछ हर्ज नहीं है!

भैरो - (हाथ जोड़कर) यहां की अद्भुत बातें हम लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकतीं।

तारा - (हाथ जोड़कर) सरकार की मर्जी नहीं पाई, नहीं तो ऐसी-ऐसी लीलाओं की तो मैं एक ही दिन में काया पलट कर देने की हिम्मत रखता हूं।

भैरो - अगर मर्जी हो तो इन अद्भुत बातों का आज ही निपटारा कर दिया जाय।

वीरेंद्र - (मुस्कुराकर) नहीं ऐसी कोई जरूरत नहीं, हमें तुम लोगों के हौसले पर पूरा भरोसा है। (देवीसिंह की तरफ देखकर) खैर तो आज दिन भी अच्छा है।

देवी - बहुत खूब! (एक मुसाहिब की तरफ देखकर) आप जरा तकलीफ करें।

मुसा - बहुत अच्छा, मैं जाता हूं।

कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह यही चाहते थे किसी तरह वीरेंद्रसिंह चुनार जायं क्योंकि उनके रहते ये दोनों अपने मतलब की कार्रवाई नहीं कर सकते थे। इस बात को वीरेंद्रसिंह भी समझते थे मगर इसके सिवाय भी न मालूम क्या सोचकर वे इस समय चुनार जा रहे हैं या गयाजी की सरहद छोड़कर क्या मतलब निकाला चाहते हैं।

राजा वीरेंद्रसिंह का विचार कोई जान नहीं सकता था। वे किसी से यह नहीं कह सकते कि हम दो घंटे के बाद क्या करेंगे। कोई यह नहीं कह सकता था कि महाराज आज यहां तो हैं मगर कल कहां रहेंगे, या महाराज फलाना काम क्यों और किस इरादे से कर रहे हैं। पहले दिल ही दिल में अपना इरादा मजबूत कर लेते थे, जिसे कोई बदल नहीं सकता था, मगर अपने बाप की इज्जत बहुत करते थे और उनके मुकाबले में अपने दृढ़ विचार को भी हुक्म के मुताबिक बदल देने में बुरा नहीं समझते थे, बल्कि उसे कर्तव्य और धर्म मानते थे।

दो घड़ी रात जाते-जाते वीरेंद्रसिंह ने चुनार की तरफ कूच कर दिया और देवीसिंह को साथ लेते गए। अब कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह खुदमुख्तार हो गये, मगर साथ ही इसके राजा हो गए तो क्या अपनी खुदमुख्तारी के सामने आनंदसिंह अपने बड़े भाई के हुक्म की नाकदरी नहीं कर सकते थे और यहां तो दोनों ही के इरादे दूसरे हैं जिसमें एक दूसरे का बाधक नहीं हो सकता था।

कुंअर इंद्रजीतसिंह बीमार थे इसलिए दोनों भाई एक ही कमरे में रहा करते थे, मगर अब दोनों ने अपने-अपने लिए अलग-अलग दो कमरे मुकर्रर किए। जिस कमरे में वह विचित्र कोठरी थी और जिसका हाल ऊपर लिखा गया है आनंदसिंह ने अपने लिए रखा। उससे कुछ दूर पर इंद्रजीतसिंह का दूसरा कमरा था।

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