थोड़ी ही देर बाद इंद्रदेव फिर वहां आया। अबकी दफे उसके साथ कई नकाबपोश भी थे जो अपने हाथ में तरह-तरह की खाने-पीने की चीजें लिए हुए थे। एक के हाथ में जल था जिससे जमीन धोई गई और खाने-पीने की चीजें वहां रखकर वे नकाबपोश लौट गये तथा पुनः कई जरूरी चीजें लेकर आ पहुंचे। इंतजाम ठीक हो जाने पर इंद्रदेव ने कायदे के साथ सभों को भोजन कराया और इस काम से छुट्टी मिलने पर उस बारहदरी में चलने के लिए अर्ज किया जिसे उसने यहां पहुंचकर सजाया था और जिसका हाल हम ऊपर के बयान में लिख चुके हैं।

वास्तव में यह बारहदरी बड़ी खूबी के साथ सजाई गई थी। यहां सभों के लिए कायदे के साथ बैठने और आराम करने का सामान मौजूद था जिसे देखकर महाराज बहुत प्रसन्न हुए और इंद्रदेव की तरफ देखकर बोले, ''क्या यह सब सामान इसी बाग में मौजूद था।''

इंद्र - जी हां, इतना ही नहीं बल्कि इस बाग में जितनी इमारतें हैं उन सभों को सजाने और दुरुस्त करने के लिए यहां काफी सामान है, इसके अतिरिक्त यहां से मेरा मकान बहुत नजदीक है, इसलिए जिस चीज की जरूरत हो मैं बहुत जल्द ला सकता हूं। (कुछ देर तक सोचकर और हाथ जोड़कर) मैं एक और भी बात अर्ज किया चाहता हूं।

महाराज - वह क्या?

इंद्र - यह तिलिस्म आप ही के बुजुर्गों की बदौलत बना है और उन्हीं की आज्ञानुसार जब से यह तिलिस्म तैयार हुआ है तब से मेरे बुजुर्ग लोग इसके दारोगा होते आये हैं। अब मेरे जमाने में इस तिलिस्म की किस्मत ने पलटा खाया है। यद्यपि कुमार इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने इस तिलिस्म को तोड़ा या फतह किया है और इसमें की बेहिसाब दौलत के मालिक हुए हैं तथापि यह तिलिस्म अभी तक दौलत से खाली नहीं हुआ है और न ऐसा खुल ही गया कि ऐरे- गैरे जिसका जी चाहे इसमें घुस आये। हां यदि आज्ञा हो तो दोनों कुमारों के हाथ से मैं इसके बचे-बचाये हिस्से को भी तोड़वा सकता हूं क्योंकि यह काम इस तिलिस्म के दारोगा का अर्थात् मेरा है, मगर मैं चाहता हूं कि बड़े लोगों की इस कीर्ति को एकदम से मटियामेट न करके भविष्य के लिए भी कुछ छोड़ देना चाहिए। आज्ञा पाने पर मैं इस तिलिस्म की पूरी सैर कराऊंगा और तब अर्ज करूंगा कि बुजुर्गों की आज्ञानुसार इस दास ने भी जहां तक हो सका इस तिलिस्म की खिदमत की, अब महाराज को अख्तियार है कि मुझसे हिसाब-किताब समझकर आइंदे के लिए जिसे चाहें यहां का दारोगा मुकर्रर करें।

महाराज - इंद्रदेव, मैं तुमसे और तुम्हारे कामों से बहुत ही प्रसन्न हूं मगर मैं यह नहीं चाहता कि तुम मुझे बातों के जाल में फंसाकर बेवकूफ बनाओ और यह कहो कि 'भविष्य के लिए किसी दूसरे को यहां का दारोगा मुकर्रर कर लो।' जो कुछ तुमने राय दी है वह बहुत ठीक है अर्थात् इस तिलिस्म के बचे-बचाये स्थानों को छोड़ देना चाहिए जिससे बड़े लोगों का नाम-निशान बना रहे मगर यहां के दारोगा की पदवी सिवाय तुम्हारे खानदान के कोई दूसरा कब पा सकता है बस दया करके इस ढंग की बातों को छोड़ दो और जो कुछ खुशी-खुशी कर रहे हो करो।

इंद्र - (अदब के साथ सलाम करके) जो आज्ञा। मैं एक बात और भी निवेदन किया चाहता हूं।

महाराज - वह क्या?

इंद्रदेव - वह यह कि इस जगह से आप कृपा करके पहले मेरे स्थान को, जहां मैं रहता हूं, पवित्र कीजिए और तब तिलिस्म की सैर करते हुए अपने चुनारगढ़ वाले तिलिस्मी मकान में पहुंचिये। इसके अतिरिक्त इस तिलिस्म के अंदर जो कुछ कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने पाया है अथवा यहां से जिन चीजों को निकालकर चुनारगढ़ पहुंचाने की आवश्यकता है उनकी फेहरिस्त मुझे मिल जाय और ठीक तौर पर बता दिया जाय कि कौन चीज कहां पर है तो उन्हें वहां से बाहर करके आपके पास भेजने का बंदोबस्त करूं। यद्यपि यह काम भैरोसिंह और तारासिंह भी कर सकते हैं परंतु जिस काम को मैं एक दिन में करूंगा उसे वे चार दिन में भी पूरा नहीं करेंगे क्योंकि मुझे यहां के कई रास्ते मालूम हैं, जिस चीज को जिस राह से निकाल ले जाने में सुबीता देखूंगा निकाल ले जाऊंगा।

महाराज - ठीक है, मैं भी इस बात को पसंद करता हूं और यह भी चाहता हूं कि चुनार पहुंचने के पहले ही तुम्हारे विचित्र स्थान की सैर कर लूं। चीजों की फेहरिस्त और उनका पता इंद्रजीतसिंह तुमको देंगे।

इतना कह के महाराज ने इंद्रजीतसिंह की तरफ देखा और कुमार ने उन सब चीजों का पता इंद्रदेव को बताया जिन्हें बाहर निकालकर घर पहुंचाने की आवश्यकता थी और साथ ही साथ अपना तिलिस्मी किस्सा भी जिसके कहने की जरूरत थी इंद्रदेव से बयान किया और बाद में दूसरी बातों का सिलसिला छिड़ा।

वीरेन्द्र - (इंद्रदेव से) आपने कहा था कि 'मैं कई तमाशे भी साथ लाया हूं' तो क्या वे तमाशे ढके ही रह जायेंगे।

इंद्रदेव - जी नहीं, आज्ञा हो तो उन्हें पेश करूं। परंतु यदि आप मेरे मकान पर चलकर उन तमाशों को देखेंगे तो कुछ विशेष आनंद मिलेगा।

महाराज - यही सही, हम लोग तो अभी तुम्हारे मकान पर चलने के लिए तैयार हैं।

इंद्रदेव - अब रात बहुत चली गई है, महाराज दो-चार घंटे आराम कर लें, दिन भर की हरारत मिट जाय, जब कुछ रात बाकी रह जायेगी तो मैं जगा दूंगा और अपने मकान की तरफ ले चलूंगा। जब तक मैं अपने साथियों को वहां रवाना कर देता हूं जिससे आगे चलकर सभों को होशियार कर दें और महाराज के लिए हर एक तरह का सामान दुरुस्त हो जाय।

इंद्रदेव की बात को महाराज ने पसंद करके सभों को आराम करने की आज्ञा दी और इंद्रदेव भी वहां से विदा होकर किसी दूसरी जगह चला गया।

इधर - उधर की बातचीत करते-करते महाराज को नींद आ गई, वीरेन्द्रसिंह, दोनों कुमार और राजा गोपालसिंह भी सो गये तथा और ऐयारों ने भी स्वप्न देखना आरंभ किया मगर भूतनाथ की आंखों में नींद का नाम-निशान भी न था और वह तमाम रात जागता ही रह गया।

जब रात घंटे भर से कुछ ज्यादे बाकी रह गई और सुबह को अठखेलियों के साथ चलकर खुशदिलों तथा नौजवानों के दिलों में गुदगुदी पैदा करने वाली ठंडी-ठंडी हवा ने खुशबूदार जंगली फूलों और लताओं से हाथापाई करके उनकी संपत्ति छीनना और अपने को खुशबूदार बनाना शुरू कर दिया तब इंद्रदेव भी इस बारहदरी में आ पहुंचा और सभों को गहरी नींद में सोते देख जगाने का उद्योग करने लगा। इस बारहदरी के आगे की तरफ एक छोटा-सा सहन था जिसकी जमीन संगमूसा के स्याह और चौखूटे पत्थरों से मढ़ी हुई थी। इस सहन के दाहिने और बाएं कोनों पर दो-तीन आदमी बखूबी बैठ सकते थे। इंद्रदेव दाहिने तरफ वाले सिंहासन पर जाकर बैठ गया और उसके पावों को बारी-बारी से किसी हिसाब से घुमाने या उमेठने लगा। उसी समय सिंहासन के अंदर से सरस और मधुर बाजे की आवाज आने लगी और थोड़ी ही देर बाद गाने की आवाज भी पैदा हुई। मालूम होता था कि कई नौजवान औरतें बड़ी खूबी के साथ गा रही हैं और कई आदमी पखावज, बीन, बंशी, मंजीरा इत्यादि बजाकर उन्हें मदद पहुंचा रहे हैं। यह आवाज धीरे-धीरे बढ़ने और फैलने लगी, यहां तक कि उस बारहदरी में सोने वाले सभी लोगों को जगा दिया अर्थात् सब कोई चौंककर उठ बैठे और ताज्जुब के साथ इधर-उधर देखने लगे। केवल इतने ही से बेचैनी दूर न हुई और सब कोई बारहदरी से बाहर निकलकर सहन में चले आये, उस समय इंद्रदेव ने सामने आकर महाराज को सलाम किया।

महाराज - यह तो मालूम हो गया कि यह सब तुम्हारी कारीगरी का नतीजा है मगर बताओ तो सही कि यह गाने-बजाने की आवाज कहां से आ रही है?

इंद्र - आइए मैं बताता हूं। महाराज को जगाने ही के लिए यह तरकीब की गई थी क्योंकि अब यहां से रवाना होने का समय हो गया है, और विलंब न करना चाहिए।

इतना कहकर इंद्रदेव सभों को उस सिंहासन के पास ले गया जिसमें से गाने की आवाज आ रही थी। और उसका असल भेद समझाकर बोला, ''इसमें से मौके-मौके पर हर एक रागिनी पैदा हो सकती है।''

इन अनूठे गाने-बजाने से महाराज बहुत प्रसन्न हुए और इसके बाद सभों को लिए हुए इंद्रदेव के मकान की तरफ रवाना हुए।

उस बारहदरी के बगल में ही एक कोठरी थी जिसमें सभों को साथ लिए हुए इंद्रदेव चला गया। इस समय इंद्रदेव के पास भी तिलिस्मी खंजर था जिससे उसने हल्की-सी रोशनी पैदा की और उसी के सहारे सभों को लिए हुए आगे की तरफ बढ़ा।

उस कोठरी में जाने के बाद पहले सभों को एक छोटे से तहखाने में उतरना पड़ा। वहां सभों ने लाल रंग की एक समाधि देखी जिसके बारे में दरियाफ्त करने पर इंद्रदेव ने कहा कि यह समाधि नहीं सुरंग का दरवाजा है। इंद्रदेव उस समाधि के पास बैठ गया और कोई ऐसी तरकीब की कि जिससे वह बीचों-बीच से खुल गई और नीचे उतरने के लिए चार-पांच सीढ़ियां दिखाई दीं। इंद्रदेव के कहे मुताबिक सब कोई नीचे उतर गये और इसके बाद सीधी सुरंग में चलने लगे। सुरंग की हालत और ऊंची-नीची जमीन से साफ-साफ मालूम होता था कि वह पहाड़ काटकर बनाई हुई है और सब लोग ऊंचे की तरफ बढ़ते जा रहे हैं। हमारे मुसाफिरों को दो-अढ़ाई घड़ी के लगभग चलना पड़ा और तब इंद्रदेव ने ठहरने के लिए कहा क्योंकि यहां पर सुरंग खत्म हो चुकी थी और सामने एक बंद दरवाजा दिखाई दे रहा था। इंद्रदेव ने ताली लगाकर ताला खोला और सभों को साथ लिए हुए उसके अंदर गया। सभों ने अपने को एक सुंदर कमरे में पाया और जब इस कमरे के बाहर हुए तब मालूम हुआ कि सबेरा हो चुका है।

यह इंद्रदेव का वही मकान है जिसमें बुड्ढे दारोगा के साथ मदद पाने की उम्मीद में मायारानी गई थी। इस सुंदर और सुहावने स्थान का हाल हम पहले लिख चुके हैं इसलिए अब पुनः बयान करने की कोई जरूरत मालूम नहीं होती।

इंद्रदेव सभों को लिए हुए अपने छोटे से बगीचे में गया। वहां चारों तरफ की सुंदर छटा दिखाई दे रही थी और खुशबूदार ठंडी-ठंडी हवा दिल और दिमाग के साथ दोस्ती का हक अदा कर रही थी।

महाराज सुरेन्द्रसिंह और वीरेन्द्रसिंह तथा दोनों कुमारों को यह स्थान बहुत पसंद आया और बार-बार इसकी तारीफ करने लगे। यद्यपि इस बगीचे में सभों के लायक दर्जे बदर्जे कुर्सियां बिछी हुई थीं मगर किसी का जी बैठने को नहीं चाहता था। सब कोई घूम-घूमकर यहां का आनंद लेना चाहते थे और ले रहे थे मगर इस बीच में एक ऐसा मामला हो गया जिसने भूतनाथ और देवीसिंह दोनों ही को चौंका दिया। एक आदमी जल से भरा हुआ चांदी का घड़ा और सोने की झारी लेकर आया और संगमर्मर की चौकी पर जो बगीचे में पड़ी हुई थी रखकर लौट चला। इसी आदमी को देखकर भूतनाथ और देवीसिंह चौंके थे क्योंकि यह वही आदमी था जिसे ये दोनों ऐयार नकाबपोशों के मकान में देख चुके थे। इसी आदमी ने नकाबपोशों के सामने एक तस्वीर पेश की थी और कहा था कि ''कृपानाथ, बस मैं इसी का दावा भूतनाथ पर करूंगा।''

केवल इतना ही नहीं, भूतनाथ ने वहां से थोड़ी दूर पर एक झाड़ी में अपनी स्त्री को भी फूल तोड़ते देखा और धीरे से देवीसिंह को छेड़कर कहा, ''वह देखिए मेरी स्त्री भी वहां मौजूद है, ताज्जुब नहीं कि आपकी चंपा भी यहीं घूम रही हो।''

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