किशोरी, कामिनी, कमलिनी और लाडिली ये चारों बड़ी मुहब्बत के साथ अपने दिन बिताने लगीं। इनकी मुहब्बत दिखौवा नहीं थी बल्कि दिली और सच्चाई के साथ थी। चारों ही जमाने के ऊंच-नीच को अच्छी तरह समझ चुकी थीं और खूब जानती थीं कि दुनिया में हर एक के साथ दुःख और सुख का चर्चा लगा ही रहता है, खुशी तो मुश्किल से मिलती है मगर रंज ओैर दुःख के लिए किसी तरह का उद्योग नहीं करना पड़ता, यह आप से आप पहुंचता है, और एक साथ दस को लपेट लेने पर भी जल्दी नहीं छोड़ता, इसलिये बुद्धिमान का काम यही है कि जहां तक हो सके खुशी का पल्ला न छोड़े और न कोई काम ऐसा करे जिसमें दिल को किसी तरह का रंज पहुंचे। इन चारों औरतों का दिल उन नादान और कमीनी औरतों का-सा नहीं था जो दूसरों को खुश देखते ही जल-भुनकर कोयला हो जाती हैं और दिन-रात कुप्पे की तरह मुंह फुलाये आंखों से पाखंड का आंसू बहाया करती हैं अथवा घर की औरतों के साथ मिल-जुलकर रहना अपनी बेइज्जती समझती हैं।

इन चारों का दिल आईने की तरफ साफ था, नहीं-नहीं, हम भूल गये, हमें दिल के साथ आईने की उपमा पसंद नहीं। न मालूम लोगों ने इस उपमा को किस लिये पसंद कर रखा है! उपमा में उसी वस्तु का व्यवहार करना चाहिए जिसकी प्रकृति में उपमेय से किसी तरह का फर्क न पड़े, मगर आईने (शीशे) में यह बात पाई नहीं जाती, हर एक आईना बेऐब-साफ और बिना धब्बे के नहीं होता और वह हर एक की सूरत एक-सी भी नहीं दिखाता बल्कि जिसकी जैसी सूरत होती है उसके मुकाबिले में वैसा ही बन जाता है। इसलिये आईना उन लोगों के दिल को कहना उचित है जो नीति-कुशल हैं या जिन्होंने यह बात ठान ली है कि जो जैसा करे उसके साथ वैसा ही करना चाहिए, चाहे वह अपना हो या पराया, छोटा हो या बड़ा। मगर इन चारों में यह बात न थी, ये बड़ों की झिड़की को आशीर्वाद और छोटे की ऐंठन को उनकी नादानी समझती थीं। जब कोई हमजोली या आपस वाली क्रोध में भरी हुई अपना मुंह बिगाड़े इनके सामने आती तो यदि मौका होता तो ये हंसकर कह देतीं कि 'वाह, ईश्वर ने अच्छी सूरत बनाई है!' या 'बहिन, हमने तो तुम्हारा जो कुछ बिगाड़ा सो बिगाड़ा मगर तुम्हारी सूरत ने तुम्हारा क्या कसूर किया है जो तुम उसे बिगाड़ रही हो बस इतने ही में उसका रंग बदल जाता। इन बातों को विचारकर हम इनके दिल का आईने के साथ मिलान करना पसंद नहीं करते बल्कि यह कहना मुनासिब समझते हैं कि 'इनका दिल समुद्र की तरह गंभीर था।'

इन चारों को इस बात का खयाल ही न था कि हम अमीर हैं, हाथ-पैर हिलाना या घर का कामकाज करना हमारे लिए पाप है। ये खुशी से घर का काम जो इनके लायक होता करतीं और खाने-पीने की चीजों पर विशेष ध्यान रखतीं। सबसे बड़ा खयाल इन्हें इस बात का रहता था कि इनके पति इनसे किसी तरह रंज न होने पावें और घर के किसी बड़े बुजुर्ग को इन्हें बेअदब कहने का मौका न मिले। महारानी चंद्रकान्ता की तो बात ही दूसरी है, ये चपला और चंपा को सास की तरह ही समझतीं और इज्जत करती थीं। घर की लौंडियां तक इनसे प्रसन्न रहतीं और जब किसी लौंडी से कोई कसूर हो जाता तो झिड़की और गालियों के बदले नसीहत के साथ समझाकर उसे कायल और शर्मिन्दा कर देतीं और उसके मुंह से कहला देतीं कि 'बेशक मुझसे भूल हुई आइंदे कभी ऐसा न होगा!' सबसे विचित्र बात तो यह थी कि इनके चेहरे पर रंज, क्रोध या उदासी कभी दिखाई देती ही न थी और जब कभी ऐसा होता तो किसी भारी घटना का अनुमान किया जाता था। हां, उस समय इनके दुःख और चिंता का कोई ठिकाना नहीं रहता था जब ये अपने पति को किसी कारण दुःखी देखतीं। ऐसी अवस्था में इनकी सच्ची भक्ति के कारण इनके पति को अपनी उदासी छिपानी पड़ती या इन्हें प्रसन्न करने और हंसाने के लिए और किसी तरह का उद्योग करना पड़ता। मतलब यह है कि इन्होंने घर भर का दिल अपने हाथ में कर रखा था और ये घर भर की प्रसन्नता का कारण समझी जाती थीं।

भूतनाथ की स्त्री शांता का इन्हें बहुत बड़ा खयाल रहता और ये उसकी पिछली घटनाओं को याद करके उसकी पति-भक्ति की सराहना किया करतीं।

इसमें कोई संदेह नहीं कि इन्हें अपनी जिंदगी में दुखों के बड़े-बड़े समुद्र पार करने पड़े थे परंतु ईश्वर की कृपा से जब ये किनारे लगीं तब इन्हें कल्पवृक्ष की छाया मिली और किसी बात की परवाह न रही।

इस समय संध्या होने में घंटे भर की देर है। सूर्य भगवान अस्ताचल की तरफ तेजी के साथ झुके चले जा रहे हैं और उनकी लाल-लाल पिछली किरणों से बड़ी-बड़ी अटारियां तथा ऊंचे-ऊंचे वृक्षों के ऊपरी हिस्सों पर ठहरा हुआ सुनहरा रंग बड़ा ही सोहावना मालूम पड़ता है। ऐसा जान पड़ता है मानो प्रकृति ने प्रसन्न होकर अपना गौरव बढ़ाने के लिए अपने सहचारियों और सहायकों को सुनहरा ताज पहिरा दिया है।

ऐसे समय में किशोरी, कामिनी, कमलिनी, लाडिली और कमला अटारी पर एक सजे हुए बंगले के अंदर बैठी जालीदार खिड़कियों से उस जंगल की शोभा देख रही हैं जो इस तिलिस्मी मकान से थोड़ी दूर पर है और साथ ही इसके मीठी बातें भी करती जाती हैं।

कमलिनी - (किशोरी से) बहिन, एक दिन वह था कि हमें अपनी इच्छा के विरुद्ध ऐसे बल्कि इससे बढ़कर भयानक जंगलों में घूमना पड़ता था और उस समय यह सोचकर डर मालूम पड़ता था कि कोई शेर इधर-उधर से निकलकर हम पर हमला न करे, और एक आज का दिन है कि इस जंगल की शोभा भली मालूम पड़ती है और इसमें घूमने को जी चाहता है।

किशोरी - ठीक है, जो काम लाचारी के साथ करना पड़ता है वह चाहे अच्छा ही क्यों न हो परंतु चित्त को बुरा लगता है, फिर भयानक तथा कठिन कामों का तो कहना ही क्या! मुझे तो जंगल में शेर और भेड़ियों का इतना खयाल न होता था जितना दुश्मनों का, मगर वह समय और ही था जो ईश्वर न करे किसी दुश्मन को दिखे। उस समय हम लोगों की किस्मत बिगड़ी हुई थी और अपने साथी लोग भी दुश्मन बनकर सताने के लिए तैयार हो जाते थे। (कमला की तरफ देखकर) भला तुम्हीं बताओ कि उस चमेला छोकरी का मैंने क्या बिगड़ा था जिसने मुझे हर तरह से तबाह कर दिया अगर वह मेरी मुहब्बत का हाल मेरे पिता से न कह देती तो मुझ पर वैसी भयानक मुसीबत क्यों आ जाती?

कमला - बेशक ऐसा ही है, मगर उसने जैसी नमकहरामी की वैसी ही सजा पाई, मेरे हाथ के कोड़े1 वह जन्म भर न भूलेगी!

किशोरी - मगर इतना होने पर भी उसने मेरे पिता का ठीक-ठीक भेद न बताया।

कमला - बेशक वह बड़ी जिद्दी निकली, मगर तुमने भी यह बड़ी चालाकी दिखाई कि अंत में उसे छोड़ देने का हुक्म दे दिया। अब भी वह जहां जायगी दुःख ही भोगेगी।

किशोरी - इसके अतिरिक्त उस जमाने में धनपति के भाई ने क्या मुझे कम तकलीफ दी थी जब मैं नागर के यहां कैद थी! उस कम्बख्त की तो सूरत देखने से मेरा खून खुश्क हो जाता था।1

लाडिली - वही जिसे भूतनाथ ने जहन्नुम में पहुंचा दिया! मगर नागर इस मामले को बिल्कुल ही छिपा गई, मायारानी से उसने कुछ भी न कहा और इसी में उसका भला भी था।

किशोरी - (लाडिली से) बहिन, तुम तो बड़ी नेक हो और तुम्हारा ध्यान भी धर्म-विषयक कामों में विशेष रहता है, मगर उन दिनों तुम्हें क्या हो गया था कि मायारानी के साथ बुरे कामों में अपना दिन बिताती थीं और हम लोगों की जान लेने के लिए तैयार रहती थीं

लाडिली - (लज्जा और उदासी के साथ) फिर तुमने वही चर्चा छेड़ी! मैं कई दफे हाथ जोड़कर तुमसे कह चुकी हूं कि उन बातों की याद दिलाकर मुझे शर्मिन्दा न करो, दुःख न दो, मेरे मुंह पर बार-बार स्याही न लगाओ। उन दिनों मैं पराधीन थी, मेरा कोई सहायक न था, मेरे लिए कोई रास्ता और ठिकाना न था, और उस दुष्टा का साथ छोड़कर मैं अपने को कहीं छिपा भी नहीं सकती थी और डरती थी कि वहां से निकल भागने पर कहीं मेरी इज्जत पर न आ बने! मगर बहिन, तुम जान-बूझकर बार-बार उन बातों की याद दिलाकर मुझे सताती हो, कहो बैठूं या उठ जाऊं?

किशोरी - अच्छा-अच्छा, जाने दो, माफ करो मुझसे भूल हो गई, मगर मेरा मतलब वह न था जो तुमने समझा है, मैं दो-चार बातें नानक के विषय में पूछना चाहती थी जिनका पता अभी तक नहीं लगा और जो भेद की तरह हम लोगों...।

लाडिली - (बात काटकर) वे बातें भी तो मेरे लिए वैसी ही दुःखदायी हैं।

किशोरी - नहीं-नहीं, मैं यह न पूछूंगी कि तुमने नानक के साथ रामभोली बनकर क्या-क्या किया बल्कि यह पूछूंगी कि उस टीन के डिब्बे में क्या था जो नानक ने चुरा लाकर तुम्हें बजरे में दिया था कुएं से हाथ कैसे निकला था नहर के किनारे वाले बंगले में पहुंचकर वह क्योंकर फंसा लिया गया उस बंगले में वह तस्वीरें कैसी थीं असली रामभोली कहां गई और क्या हुई रोहतासगढ़ तहखाने के अंदर तुम्हारी तस्वीर किसने लटकाई और तुम्हें वहां का भेद कैसे मालूम हुआ था इत्यादि बातें मैं कई दफे कई तरफ से सुन चुकी हूं मगर उनका असल भेद अभी तक मालूम न हुआ।2

लाडिली - हां इन सब बातों का जवाब देने के लिए मैं तैयार हूं। तुम जानती हो और अच्छी तरह सुन और समझ चुकी हो कि वह तिलिस्मी बाग तरह-तरह की अजायब बातों से भरा हुआ हे, विशेष नहीं तो भी वहां का बहुत कुछ हाल मायारानी और दारोगा को मालूम था। वहां

1. देखिए चंद्रकान्ता संतति, पहला भाग, ग्यारहवें बयान का अंत।

2. देखिए चंद्रकान्ता संतति, आठवां भाग, नौवां बयान।

अथवा उसकी सरहद में ले जाकर किसी को डराने-धमकाने या तकलीफ देने के लिए कोई ताज्जुब का तमाशा दिखाना कौन बड़ी बात थी!

किशोरी - हां सो तो ठीक ही है।

लाडिली - और फिर नानक जान-बूझकर काम निकालने के लिए ही तो गिरफ्तार किया गया था। इसके अतिरिक्त तुम यह भी सुन चुकी हो कि दारोगा के बंगले या अजायबघर से खास बाग तक नीचे-नीचे रास्ता बना हुआ है, ऐसी अवस्था में नानक के साथ वैसा बर्ताव करना कौन बड़ी बात थी!

किशोरी - बेशक ऐसा ही है, अच्छा उस डिब्बे वगैरह का भेद तो बताओ।

लाडिली - उस गठरी में जो कलमदान था वह तो हमारे विशेष काम का न था मगर उस डिब्बे में वही इंदिरा वाला कलमदान था जिसके लिये दारोगा साहब बेताब हो रहे थे और चाहते थे कि वह किसी तरह पुनः उनके कब्जे में आ जाय। असल में उसी कलमदान के लिये मुझे रामभोली बनना पड़ा था। दारोगा ने असली रामभोली को तो गिरफ्तार करवा के इस तरह मरवा डाला कि किसी को कानोंकान खबर भी न हुई और मुझे रामभोली बनकर यह काम निकालने की आज्ञा दी। लाचार मैं रामभोली बनकर नानक से मिली और उसे अपने वश में करने के बाद इंद्रदेवजी के मकान में से वह कलमदान तथा उसके साथ और भी कई तरह के कागज नानक की मार्फत चुरा मंगवाए। मुझे तो उस कलमदान की सूरत देखने से डर मालूम होता था क्योंकि मैं जानती थी कि वह कलमदान हम लोगों के खून का प्यासा और दारोगा के बड़े-बड़े भेदों से भरा हुआ है। इसके अतिरिक्त उस पर इंदिरा की बचपन की तस्वीर भी बनी हुई थी और सुंदर अक्षरों में इंदिरा का नाम लिखा हुआ था, जिसके विषय में मैं उन दिनों जानती थी कि वे मां-बेटी बड़ी बेदर्दी के साथ मारी गईं। यही सब सबब था कि उस कलमदान की सूरत देखते ही मुझे तरह-तरह की बातें याद आ गईं, मेरा कलेजा दहल गया और मैं डर के मारे कांपने लगी। खैर जब मैं नानक को लिये हुए जमानिया की सरहद में पहुंची तो उसे धनपति के हवाले करके खास बाग में चली गई। अपना दुपट्टा नहर में फेंकती गई। दूसरी राह से उस तिलिस्मी कुएं के नीचे पहुंचकर पानी का प्याला और बनावटी हाथ निकालने के बाद मायारानी से जा मिली और फिर बचा हुआ काम धनपति और दारोगा ने पूरा किया। दारोगा वाले कमरे में जो तस्वीर रखी हुई थी वह केवल नानक को धोखा देने के लिए थी, उसका और कोई मतलब न था, और रोहतासगढ़ के तहखाने में जो मेरी तस्वीर आप लोगों ने देखी थी वह वास्तव में दिग्विजयसिंह की बुआ ने मेरे सुबीते के लिए लटकाई थी और तहखाने की बहुत-सी बातें समझाकर बता दिया था कि 'जहां तू अपनी तस्वीर देखियो समझ लीजियो कि उसके फलानी तरफ फलानी बात है' इत्यादि। बस वह तस्वीर इतने ही काम के लिए लटकाई गई थी। वह बुढ़िया बड़ी नेक थी, और उस तहखाने का हाल बनिस्बत दिग्विजयसिंह के बहुत ज्यादे जानती थी। मैं पहले भी महाराज के सामने बयान कर चुकी हूं कि उसने मेरी मदद की थी। वह कई दफे मेरे डेरे पर आई थी और तरह-तरह की बातें समझा गई थी। मगर न तो दिग्विजयसिंह उसकी कदर करता था और न वही दिग्विजयसिंह को चाहती थी। इसके अतिरिक्त यह भी कह देना आवश्यक है कि मैं तो उस बुढ़िया की मदद से तहखाने के अंदर चली गई थी मगर कुंदन अर्थात् धनपति ने वहां जो कुछ किया वह मायारानी के दारोगा की बदौलत था। घर लौटने पर मुझे मालूम हुआ कि दारोगा वहां कई दफे छिपकर गया और कुंदन से मिला था मगर उसे मेरे बारे में कुछ खबर न थी, अगर खबर होती तो मेरे और कुंदन में जुदाई न रहती। अगर मुझे इस बात का ताज्जुब जरूर है कि घर पहुंचने पर भी धनपति ने वहां की बहुत-सी बातें मुझसे छिपा रखीं।

किशोरी - अच्छा यह तो बताओ कि रोहतासगढ़ में जो तस्वीर तुमने कुंदन को दिखाने के लिए मुझे दी थी वह तुम्हें कहां से मिली थी और तुम्हें तथा कुंदन को उसका असली हाल क्योंकर मालूम हुआ था?

लाडिली - उन दिनों मैं यह जानने के लिए बेताब हो रही थी कि कुंदन असल में कौन है। मुझे इस बात का भी शक हुआ था कि वह राजा साहब (वीरेन्द्रसिंह) की कोई ऐयारा होगी और यही शक मिटाने के लिए मैंने वह तस्वीर खुद बनाकर उसे दिखाने के लिए तुम्हें दी थी। असल में उस तस्वीर का भेद हम लोगों को मनोरमा की जुबानी मालूम हुआ था और मनोरमा ने इंदिरा से उस समय सुना था जब मनोरमा को मां समझकर वह उसके फेर में पड़ गई थी।

किशोरी - ठीक है मगर इसमें भी कोई शक नहीं कि इन सब बखेड़ों की जड़ वही कम्बख्त दारोगा है। यदि जमानिया के राज्य में दारोगा न होता तो इन सब बातों में से एक भी न सुनाई देती और न हम लोगों की दुःखमय कहानी का कोई अंश लोगों के कहने-सुनने के लिए पैदा होता। (कमलिनी से) मगर बहिन, यह तो बताओ कि इस हरामी के पिल्ले (दारोगा) का कोई वारिस या रिश्तेदार भी दुनिया में है या नहीं

कम - सिवाय एक के और कोई नहीं! दुनिया का कायदा है कि जब आदमी भलाई या बुराई कुछ सीखता है तो पहले अपने घर से ही आरंभ करता है। मां-बाप के अनुचित लाड़-प्यार और उनकी असावधानी से बुरी राह पर चलने वाले लड़के घर ही में श्रीगणेशाय करते हैं और तब कुछ दिन के बाद दुनिया में मशहूर होने योग्य होते हैं। यही बात इस हरामखोर की भी थी, इसने पहले अपने नाते-रिश्तेदारों ही पर सफाई का हाथ फेरा और उन्हें जहन्नुम में मिलाकर समय के पहले घर का मालिक बन बैठा। साधू का भेष धरना इसने लड़कपन ही से सीखा है और विशेष करके इसी भेष की बदौलत लोग धोखे में भी पड़े। हमारे राजा गोपालसिंह ने भी (मुस्कराती हुई) इसे विशिष्ट ऋषि ही समझकर अपने यहां रखा था। हां इसका एक चचेरा भाई जरूर बच गया था जो इसके हत्थे नहीं चढ़ा था क्योंकि वह खुद भी परले सिरे का बदमाश था और इसकी करतूतों को खूब समझता था जिससे लाचार होकर इसे उसकी खुशामद करनी ही पड़ी और उसे अपना साथी बनाना ही पड़ा।

किशोरी - क्या वह मर गया उसका क्या नाम था?

कमलिनी - नहीं वह मरा नहीं मगर मरने के ही बराबर है, क्योंकि वह हमारे यहां कैद है। उसने अपना नाम शिखण्डी रख लिया था। तुम जानती ही हो कि जब मैं जमानिया के खास बाग के तहखाने और सुरंग की राह से दोनों कुमारों तथा बाकी कैदियों को लेकर बाहर निकल रही थी तो हाथी वाले दरवाजे पर उसने इनके (इंद्रजीतसिंह) के ऊपर वार किया था।

किशोरी - हां-हां, तो क्या वह वही कम्बख्त था?

कमलिनी - हां वही था, उसे मैं अपना पक्षपाती समझती थी मगर बेईमान ने मुझे धोखा दिया। ईश्वर की कृपा थी कि पहले ही वार में वह उसी जगह गिरफ्तार हो गया नहीं तो शायद मुझे धोखे में पड़कर बहुत तकलीफें उठानी पड़तीं और...।

कमलिनी ने इतना कहा ही था कि उसका ध्यान सामने के जंगल की तरफ जा पड़ा, उसने देखा कि कुंअर आनंदसिंह एक सब्ज घोड़े पर सवार सामने की तरफ से आ रहे हैं, साथ में केवल तारासिंह एक छोटे टट्टू पर सवार बातें करते आ रहे हैं, और दूसरा कोई आदमी साथ नहीं है। साथ ही इसके कमलिनी को एक और अद्भुत दृश्य दिखाई दिया जिससे वह यकायक चौंक पड़ी इसलिए उसका तथा और सभों का ध्यान भी उसी तरफ जा पड़ा।

उसने देखा कि आनंदसिंह और तारासिंह जंगल में से निकलकर कुछ ही दूर मैदान में आये थे कि यकायक एक बार पुनः पीछे की तरफ घूमे और गौर के साथ कुछ देखने लगे। कुछ ही देर बाद और भी दस-बारह नकाबपोश आदमी हाथ में तीर-कमान लिए दिखाई पड़े जो जंगल से बाहर निकलते ही इन दोनों पर फुर्ती के साथ तीर चलाने लगे। ये दोनों भी म्यान से तलवार निकालकर उन लोगों की तरफ झपटे और देखते ही देखते सब के सब लड़ते-भिड़ते पुनः जंगल में घुसकर देखने वालों की नजरों से गायब हो गए। कमलिनी, किशोरी और कामिनी वगैरह इस घटना को देखकर घबरा गयीं, सभों की इच्छानुसार कमला दौड़ी हुई गई और एक लौंडी को इस मामले की खबर करने के लिए नीचे कुंअर इंद्रजीतसिंह के पास भेजा।

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