आज कुंअर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह की खुशी का कोई ठिकाना नहीं है क्योंकि तरह-तरह की तकलीफें उठाकर एक मुद्दत के बाद इन दोनों को दिली मुरादें हासिल हुई हैं।

रात आधी से कुछ ज्यादे जा चुकी है और एक सुंदर सजे हुए कमरे में ऊंची और मुलायम गद्दी पर किशोरी और कुंअर इंद्रजीतसिंह बैठे हुए दिखाई देते हैं। यद्यपि कुंअर इंद्रजीतसिंह की तरह किशोरी के दिल में भी तरह-तरह की उमंगें भरी हैं और वह आज इस ढंग पर कुंअर इंद्रजीतसिंह की पहली मुलाकात को सौभाग्य का कारण समझती है मगर उस अनोखी लज्जा के पाले में पड़ी हुई किशोरी का चेहरा घूंघट की ओट से बाहर नहीं होता जिसे प्रकृति अपने हाथों से औरत की बुद्धि में जन्म ही से दे देती है। यद्यपि आज से पहले कुंअर इंद्रजीतसिंह को कई दफे किशोरी देख चुकी है और उनसे बातें भी कर चुकी है तथापि आज पूरी स्वतंत्रता मिलने पर भी यकायक सूरत दिखाने की हिम्मत नहीं पड़ती। कुमार तरह-तरह की बातें कहकर और समझाकर उसकी लज्जा दूर किया चाहते हैं मगर कृतकार्य नहीं होते। बहुत कुछ कहने-सुनने पर कभी-कभी किशोरी दो-एक शब्द बोल देती है मगर वह भी धड़कते हुए कलेजे के साथ। कुमार ने सोच लिया कि यह स्त्रियों की प्रकृति है अतएव उसके विरुद्ध जोर न देना चाहिए, यदि इस समय इनकी हिम्मत नहीं खुलती तो क्या हुआ, घंटे दो घंटे, पहर या एक-दो दिन में खुल ही जायगी! आखिर ऐसा ही हुआ।

इसके बाद किस तरह की छेड़छाड़ शुरू हुई या क्या हुआ सो हम नहीं लिख सकते, हां उस समय का हाल जरूर लिखेंगे जब धीरे-धीरे सुबह की सफेदी आसमान पर फैलने लग गई थी और नियमानुसार प्रातःकाल बजाये जाने वाली नफीरी की आवाज ने कुंअर इंद्रजीतसिंह और किशोरी को नींद से जगा दिया था। किशोरी जो कुंअर इंद्रजीतसिंह के बगल में सोई हुई थी घबड़ाकर उठ बैठी और मुंह धोने तथा बिखरे हुए बालों को सुधारने की नीयत से उस सुनहरी चौकी की तरफ बढ़ी जिस पर सोने के बर्तन में गंगाजल भरा हुआ था और जिसके पास ही जल गिराने के लिए एक बड़ा-सा चांदी का आफताबा (एक बर्तन) भी रखा हुआ था। हाथ में जल लेकर चेहरे पर लगाने और पुनः अपना हाथ धोने के साथ ही किशोरी चौंक पड़ी और घबराकर बोली, ''हैं! यह क्या मामला है?'

इन शब्दों ने इंद्रजीतसिंह को चौंका दिया। वे घबड़ाकर किशोरी के पास चले गये और पूछा, ''क्यों क्या हुआ?'

किशोरी - मेरे साथ यह क्या दिल्लगी की?

इंद्र - कुछ कहो भी तो क्या हुआ?

किशोरी - (हाथ दिखाकर) देखिए यह रंग कैसा है जो चेहरे पर से पानी लगाने के साथ ही छूट रहा है।

इंद्र - (हाथ देखकर) हां है तो सही! मगर मैंने तो कुछ भी नहीं किया, तुम खुद सोच सकती हो कि मैं भला तुम्हारे चेहरे पर रंग क्यों लगाने लगा। मगर तुम्हारे चेहरे पर यह रंग आया कहां से।

किशोरी - (पुनः चेहरे पर जल लगा के) यह देखिए है या नहीं।

इंद्र - सो तो मैं खुद कह रहा हूं कि रंग जरूर है, मगर जरा मेरी तरफ देखो तो सही!

किशोरी ने जो अब समयानुकूल लज्जा के हाथों से छूटकर ढिठाई का पल्ला पकड़ चुकी थी और जो कई घंटों की कशमकश और चालचलन की बदौलत बातचीत करने लायक समझी जाती थी, कुमार की तरफ देखा और फिर कहा, ''देखिए और कहिए यह किसकी सूरत है?'

इंद्र - (और भी हैरान होकर) बड़े ताज्जुब की बात है! और इस रंग के छुटने से तुम्हारा चेहरा भी कुछ बदला हुआ-सा मालूम पड़ता है! अच्छा जरा अच्छी तरह मुंह धो डालो!

किशोरी ने 'अच्छा' कह मुंह धो डाला और रूमाल से पोंछने के बाद कुमार की तरफ देखकर बोली, ''बताइए अब कैसा मालूम पड़ता है, रंग अब छूट गया या अभी नहीं?'

इंद्र - (घबड़ाकर) हैं! अब तो तुम साफ कमलिनी मालूम पड़ती हो! यह क्या मामला है?

किशोरी - मैं कमलिनी तो हूं ही। क्या पहले कोई दूसरी मालूम पड़ती थी?

इंद्र - बेशक! पहले तुम किशोरी मालूम पड़ती थीं, कम रोशनी और कुछ लज्जा के कारण यद्यपि बहुत अच्छी तरह तुम्हारी सूरत रात को देखने में नहीं आई तथापि मौके-मौके पर कई दफे निगाह पड़ ही गई थी अस्तु किशोरी के सिवाय दूसरी और होने का गुमान भी नहीं हो सकता था! मगर सच तो यह है कि तुमने मुझे बड़ा धोखा दिया!

कम - (जिसे अब इसी नाम से लिखना उचित है) मैंने धोखा नहीं दिया बल्कि आप मुझे इस बात का जवाब तो दीजिए कि अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो इतनी ढिठाई करने की हिम्मत कैसे पड़ी? किशोरी आपकी स्त्री नहीं थी!

इंद्र - क्या पागलपने की-सी बात कर रही हो। अगर किशोरी मेरी स्त्री नहीं थी तो क्या तुम मेरी स्त्री थीं?

कम - अगर आपने मुझे किशोरी समझा था तो आपको मेरे पास से उठ जाना चाहिए था। जबकि आप जानते हैं कि किशोरी कुमार के साथ ब्याही गई है तो आपको उसके पास बैठने या उससे बातचीत करने का क्या हक था?

इंद्र - तो क्या मैं इंद्रजीतसिंह नहीं हूं बल्कि उचित तो यह था कि तुम मेरे पास से उठ जातीं। जब तुम कमलिनी थीं तो तुम्हें पराये मर्द के पास बैठना भी न चाहिए था।

कम - (ताज्जुब और कुछ क्रोध का चेहरा बनाकर) फिर आप वही बातें कहे जाते हैं आप अपने को समझ ही क्या रहे हैं पहले आप आईने में अपनी सूरत देखिए और तब कहिए कि आप किशोरी के पति हैं या कमलिनी के! (आले पर से आईना उठा और कुमार को दिखाकर) बतलाइए आप कौन हैं और मैं क्यों आपके पास से उठ जाती?

अब तो कुमार के ताज्जुब की कोई हद न रही, क्योंकि आईने में उन्होंने सूरत में फर्क पाया। यह तो नहीं कह सकते थे कि किस आदमी की सूरत मालूम पड़ती है क्योंकि ऐसे आदमी को कभी देखा भी न था मगर इतना जरूर कह सकते थे कि सूरत बदल गई और अब मैं इंद्रजीतसिंह नहीं मालूम पड़ता। इंद्रजीतसिंह समझ गए कि किसी ने मेरे और कमलिनी के साथ चालबाजी करके दोनों का धर्म नष्ट किया और इसमें बेचारी कमलिनी का कोई कसूर नहीं है मगर फिर भी कमलिनी को आज का सामान देखकर चौंकना चाहिए था। हां ताज्जुब की बात है कि इस घर में आज के पहले मुझे किसी ने टोका भी नहीं! तो क्या इस घर में आने के बाद मेरी सूरत बदली गई मगर ऐसा भी क्योंकर हो सकता है इत्यादि बातें सोचते हुए कुमार कमलिनी का मुंह देखने लगे। कमलिनी ने आईना हाथ से रख दिया और पूछा, ''अब बताइये आप कौन हैं?' इसके जवाब में इंद्रजीतसिंह ने कहा, ''अब मैं भी अपना मुंह धो डालूं तो कहूं।'' इतना कहकर कुमार ने भी जल से अपना चेहरा साफ किया और रूमाल से पोंछने के बाद कमलिनी की तरफ देख के कहा - ''अब तुम ही बताओ कि मैं कौन हूं?'

कम - अरे, यह क्या हुआ! तुम तो बेशक बड़े कुमार हो मगर तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया? तुम्हें जरा भी धर्म का विचार न हुआ? बताओ अब मैं किस लायक रह गई और क्या कर सकती हूं? लोगों को कैसे अपना मुंह दिखाऊंगी और इस दुनिया में क्योंकर रहूंगी?

इंद्र - जिसने ऐसा किया वह बेशक मारे जाने लायक है। मैं उसे कभी न छोड़ूंगा क्योंकि ऐसा होने से मेरा भी धर्म नष्ट हुआ और इस बदनामी को मैं कभी बर्दाश्त नहीं कर सकता, मगर यह तो बताओ कि आज का सामान देखकर तुम्हारे दिल में किसी प्रकार का शक पैदा न हुआ

कम - क्योंकर शक पैदा हो सकता था जबकि आप ही की तरह मेरे लिए भी 'सोहागरात' आज ही तै की गई थी! मैं नहीं कह सकती कि दूसरी तरफ का क्या हाल है। ताज्जुब नहीं कि जिस तरह मैं धोखे में डाली गई उसी तरह किशोरी के साथ भी बेईमानी की गई हो और आपके बदले में किशोरी मेरे पति के पास पहुंचाई गई हो!!

ओहो! कमलिनी की इस बात ने तो कुमार की रही-सही अक्ल भी खो दी! जिस बात का अब तक कुमार के दिल में ध्यान भी न था उसे समझाकर तो कमलिनी ने अनर्थ कर दिया। ब्याह हो जाने पर भी किशोरी किसी दूसरे मर्द के पास भेजी जाय, क्या इस बात को कुमार बर्दाश्त कर सकते थे कभी नहीं! सुनने के साथ ही मारे क्रोध के उनका शरीर कांपने लगा और वे घबड़ाकर कमलिनी से बोले, ''यह तो तुमने ठीक कहा! ताज्जुब नहीं कि ऐसा हुआ हो। लेकिन अगर ऐसा हुआ होगा तो मैं उन दोनों को इस दुनिया से उठा दूंगा।''

इतना कहकर कुमार ने अपनी तलवार उठा ली जो गद्दी पर पड़ी हुई थी और कमरे के बाहर जाने लगे। उस समय कमलिनी ने कुमार का हाथ पकड़ लिया और कहा, ''कृपानिधान, जरा मेरी एक बात का जवाब दीजिए तो यहां से जाइए।''

इंद्र - कहो।

कम - आपका धर्म नष्ट हुआ, खैर कोई चिंता नहीं, क्योंकि धर्मशास्त्र में मर्दों के लिए कोई कड़ी पाबंदी नहीं लगाई गई है, मगर औरतों को तो किसी लायक नहीं छोड़ा है। आपके लिए तो प्रायश्चित है मगर मेरे लिए तो कोई प्रायश्चित भी नहीं जिसे कर मैं सुधर जाऊंगी, इतना जानकर भी मेरा धर्म नष्ट होने पर आपको उतना रंज या क्रोध नहीं हुआ जितना यह सोचकर हुआ कि किशोरी की भी ऐसी ही दशा हुई होगी! ऐसा क्यों? क्या मेरा पति कमजोर और नामर्द है क्या वह भी आपकी तरह क्रोध में न आया होगा इसी तरह वह भी तलवार लेकर मेरी और आपकी खोज में न निकला होगा आप जल्दी क्यों करते हैं, वह खुद यहां आता होगा क्योंकि वह आपसे ज्यादे क्रोधी है, मैं तो खुद उसके सामने अपनी गर्दन झुका दूंगी!!

कुमार को क्रोध पर क्रोध, रंज पर रंज और अफसोस पर अफसोस होता ही जाता था। कमलिनी की इस आखिरी बात ने कुमार के दिल में दूसरा ही रंग पैदा कर दिया। उन्होंने घबड़ाकर एक लंबी सांस ली और ऊपर की तरफ मुंह करके कहा, ''विधाता! तूने यह क्या किया! मैंने कौन-सा ऐसा पाप किया था जिसके बदले मैं इस खुशी को ऐसे रंज के साथ तूने बदल दिया, अब मैं क्या करूं क्या अपने हाथ से अपना गला काटकर निश्चिंत हो जाऊं मुझ पर आत्मघात का दोष तो नहीं लगाया जायगा!''

इंद्रजीतसिंह ने इतना ही कहा था कि कमरे का दरवाजा जिसे कुमार बंद समझते थे खुला और किशोरी तथा कमला अंदर आती हुई दिखाई पड़ीं। कुमार ने समझा कि बेशक किशोरी इसी ढंग का उलाहना लेकर आई होगी, मगर उन दोनों के चेहरों पर हंसी देखकर कुमार को ताज्जुब हुआ और यह देखकर उनका ताज्जुब और भी बढ़ गया कि किशोरी और कमला को देख कमलिनी खिलखिलाकर हंस पड़ी और किशोरी से बोली - ''लो बहिन आज मैंने तुम्हारे पति को अपना बना लिया!'' इसके जवाब में किशोरी बोली, ''तुमने पहले ही अपना बना लिया था, आज की बात ही क्या है!!''

(बाईसवां भाग समाप्त)

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