दोहा

गए अवध चर भरत गति बूझि देखि करतूति।
चले चित्रकूटहि भरतु चार चले तेरहूति ॥२७१॥

चौपाला

दूतन्ह आइ भरत कइ करनी । जनक समाज जथामति बरनी ॥
सुनि गुर परिजन सचिव महीपति । भे सब सोच सनेहँ बिकल अति ॥
धरि धीरजु करि भरत बड़ाई । लिए सुभट साहनी बोलाई ॥
घर पुर देस राखि रखवारे । हय गय रथ बहु जान सँवारे ॥
दुघरी साधि चले ततकाला । किए बिश्रामु न मग महीपाला ॥
भोरहिं आजु नहाइ प्रयागा । चले जमुन उतरन सबु लागा ॥
खबरि लेन हम पठए नाथा । तिन्ह कहि अस महि नायउ माथा ॥
साथ किरात छ सातक दीन्हे । मुनिबर तुरत बिदा चर कीन्हे ॥

दोहा

सुनत जनक आगवनु सबु हरषेउ अवध समाजु।
रघुनंदनहि सकोचु बड़ सोच बिबस सुरराजु ॥२७२॥

चौपाला

गरइ गलानि कुटिल कैकेई । काहि कहै केहि दूषनु देई ॥
अस मन आनि मुदित नर नारी । भयउ बहोरि रहब दिन चारी ॥
एहि प्रकार गत बासर सोऊ । प्रात नहान लाग सबु कोऊ ॥
करि मज्जनु पूजहिं नर नारी । गनप गौरि तिपुरारि तमारी ॥
रमा रमन पद बंदि बहोरी । बिनवहिं अंजुलि अंचल जोरी ॥
राजा रामु जानकी रानी । आनँद अवधि अवध रजधानी ॥
सुबस बसउ फिरि सहित समाजा । भरतहि रामु करहुँ जुबराजा ॥
एहि सुख सुधाँ सींची सब काहू । देव देहु जग जीवन लाहू ॥

दोहा

गुर समाज भाइन्ह सहित राम राजु पुर होउ।
अछत राम राजा अवध मरिअ माग सबु कोउ ॥२७३॥

चौपाला

सुनि सनेहमय पुरजन बानी । निंदहिं जोग बिरति मुनि ग्यानी ॥
एहि बिधि नित्यकरम करि पुरजन । रामहि करहिं प्रनाम पुलकि तन ॥
ऊँच नीच मध्यम नर नारी । लहहिं दरसु निज निज अनुहारी ॥
सावधान सबही सनमानहिं । सकल सराहत कृपानिधानहिं ॥
लरिकाइहि ते रघुबर बानी । पालत नीति प्रीति पहिचानी ॥
सील सकोच सिंधु रघुराऊ । सुमुख सुलोचन सरल सुभाऊ ॥
कहत राम गुन गन अनुरागे । सब निज भाग सराहन लागे ॥
हम सम पुन्य पुंज जग थोरे । जिन्हहि रामु जानत करि मोरे ॥

दोहा

प्रेम मगन तेहि समय सब सुनि आवत मिथिलेसु।
सहित सभा संभ्रम उठेउ रबिकुल कमल दिनेसु ॥२७४॥

चौपाला

भाइ सचिव गुर पुरजन साथा । आगें गवनु कीन्ह रघुनाथा ॥
गिरिबरु दीख जनकपति जबहीं । करि प्रनाम रथ त्यागेउ तबहीं ॥
राम दरस लालसा उछाहू । पथ श्रम लेसु कलेसु न काहू ॥
मन तहँ जहँ रघुबर बैदेही । बिनु मन तन दुख सुख सुधि केही ॥
आवत जनकु चले एहि भाँती । सहित समाज प्रेम मति माती ॥
आए निकट देखि अनुरागे । सादर मिलन परसपर लागे ॥
लगे जनक मुनिजन पद बंदन । रिषिन्ह प्रनामु कीन्ह रघुनंदन ॥
भाइन्ह सहित रामु मिलि राजहि । चले लवाइ समेत समाजहि ॥

दोहा

आश्रम सागर सांत रस पूरन पावन पाथु।
सेन मनहुँ करुना सरित लिएँ जाहिं रघुनाथु ॥२७५॥

चौपाला

बोरति ग्यान बिराग करारे । बचन ससोक मिलत नद नारे ॥
सोच उसास समीर तंरगा । धीरज तट तरुबर कर भंगा ॥
बिषम बिषाद तोरावति धारा । भय भ्रम भवँर अबर्त अपारा ॥
केवट बुध बिद्या बड़ि नावा । सकहिं न खेइ ऐक नहिं आवा ॥
बनचर कोल किरात बिचारे । थके बिलोकि पथिक हियँ हारे ॥
आश्रम उदधि मिली जब जाई । मनहुँ उठेउ अंबुधि अकुलाई ॥
सोक बिकल दोउ राज समाजा । रहा न ग्यानु न धीरजु लाजा ॥
भूप रूप गुन सील सराही । रोवहिं सोक सिंधु अवगाही ॥

छंद

अवगाहि सोक समुद्र सोचहिं नारि नर ब्याकुल महा।
दै दोष सकल सरोष बोलहिं बाम बिधि कीन्हो कहा ॥
सुर सिद्ध तापस जोगिजन मुनि देखि दसा बिदेह की।
तुलसी न समरथु कोउ जो तरि सकै सरित सनेह की ॥

सोरठा

किए अमित उपदेस जहँ तहँ लोगन्ह मुनिबरन्ह।
धीरजु धरिअ नरेस कहेउ बसिष्ठ बिदेह सन ॥२७६॥

चौपाला

जासु ग्यानु रबि भव निसि नासा । बचन किरन मुनि कमल बिकासा ॥
तेहि कि मोह ममता निअराई । यह सिय राम सनेह बड़ाई ॥
बिषई साधक सिद्ध सयाने । त्रिबिध जीव जग बेद बखाने ॥
राम सनेह सरस मन जासू । साधु सभाँ बड़ आदर तासू ॥
सोह न राम पेम बिनु ग्यानू । करनधार बिनु जिमि जलजानू ॥
मुनि बहुबिधि बिदेहु समुझाए । रामघाट सब लोग नहाए ॥
सकल सोक संकुल नर नारी । सो बासरु बीतेउ बिनु बारी ॥
पसु खग मृगन्ह न कीन्ह अहारू । प्रिय परिजन कर कौन बिचारू ॥

दोहा

दोउ समाज निमिराजु रघुराजु नहाने प्रात।
बैठे सब बट बिटप तर मन मलीन कृस गात ॥२७७॥

चौपाला

जे महिसुर दसरथ पुर बासी । जे मिथिलापति नगर निवासी ॥
हंस बंस गुर जनक पुरोधा । जिन्ह जग मगु परमारथु सोधा ॥
लगे कहन उपदेस अनेका । सहित धरम नय बिरति बिबेका ॥
कौसिक कहि कहि कथा पुरानीं । समुझाई सब सभा सुबानीं ॥
तब रघुनाथ कोसिकहि कहेऊ । नाथ कालि जल बिनु सबु रहेऊ ॥
मुनि कह उचित कहत रघुराई । गयउ बीति दिन पहर अढ़ाई ॥
रिषि रुख लखि कह तेरहुतिराजू । इहाँ उचित नहिं असन अनाजू ॥
कहा भूप भल सबहि सोहाना । पाइ रजायसु चले नहाना ॥

दोहा

तेहि अवसर फल फूल दल मूल अनेक प्रकार।
लइ आए बनचर बिपुल भरि भरि काँवरि भार ॥२७८॥

चौपाला

कामद मे गिरि राम प्रसादा । अवलोकत अपहरत बिषादा ॥
सर सरिता बन भूमि बिभागा । जनु उमगत आनँद अनुरागा ॥
बेलि बिटप सब सफल सफूला । बोलत खग मृग अलि अनुकूला ॥
तेहि अवसर बन अधिक उछाहू । त्रिबिध समीर सुखद सब काहू ॥
जाइ न बरनि मनोहरताई । जनु महि करति जनक पहुनाई ॥
तब सब लोग नहाइ नहाई । राम जनक मुनि आयसु पाई ॥
देखि देखि तरुबर अनुरागे । जहँ तहँ पुरजन उतरन लागे ॥
दल फल मूल कंद बिधि नाना । पावन सुंदर सुधा समाना ॥

दोहा

सादर सब कहँ रामगुर पठए भरि भरि भार।
पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करन फरहार ॥२७९॥

चौपाला

एहि बिधि बासर बीते चारी । रामु निरखि नर नारि सुखारी ॥
दुहु समाज असि रुचि मन माहीं । बिनु सिय राम फिरब भल नाहीं ॥
सीता राम संग बनबासू । कोटि अमरपुर सरिस सुपासू ॥
परिहरि लखन रामु बैदेही । जेहि घरु भाव बाम बिधि तेही ॥
दाहिन दइउ होइ जब सबही । राम समीप बसिअ बन तबही ॥
मंदाकिनि मज्जनु तिहु काला । राम दरसु मुद मंगल माला ॥
अटनु राम गिरि बन तापस थल । असनु अमिअ सम कंद मूल फल ॥
सुख समेत संबत दुइ साता । पल सम होहिं न जनिअहिं जाता ॥

दोहा

एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहाँ अस भागु ॥
सहज सुभायँ समाज दुहु राम चरन अनुरागु ॥२८०॥

चौपाला

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं । बचन सप्रेम सुनत मन हरहीं ॥
सीय मातु तेहि समय पठाईं । दासीं देखि सुअवसरु आईं ॥
सावकास सुनि सब सिय सासू । आयउ जनकराज रनिवासू ॥
कौसल्याँ सादर सनमानी । आसन दिए समय सम आनी ॥
सीलु सनेह सकल दुहु ओरा । द्रवहिं देखि सुनि कुलिस कठोरा ॥
पुलक सिथिल तन बारि बिलोचन । महि नख लिखन लगीं सब सोचन ॥
सब सिय राम प्रीति कि सि मूरती । जनु करुना बहु बेष बिसूरति ॥
सीय मातु कह बिधि बुधि बाँकी । जो पय फेनु फोर पबि टाँकी ॥

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