श्लोक

शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदं

ब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् ।

रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं हरिं

वन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम् ॥१॥

नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीये

सत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा ।

भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मे

कामादिदोषरहितं कुरु मानसं च ॥२॥

अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहं

दनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम् ।

सकलगुणनिधानं वानराणामधीशं

रघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि ॥३॥

चौपाला

जामवंत के बचन सुहाए । सुनि हनुमंत हृदय अति भाए ॥

तब लगि मोहि परिखेहु तुम्ह भाई । सहि दुख कंद मूल फल खाई ॥

जब लगि आवौं सीतहि देखी । होइहि काजु मोहि हरष बिसेषी ॥

यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा । चलेउ हरषि हियँ धरि रघुनाथा ॥

सिंधु तीर एक भूधर सुंदर । कौतुक कूदि चढ़ेउ ता ऊपर ॥

बार बार रघुबीर सँभारी । तरकेउ पवनतनय बल भारी ॥

जेहिं गिरि चरन देइ हनुमंता । चलेउ सो गा पाताल तुरंता ॥

जिमि अमोघ रघुपति कर बाना । एही भाँति चलेउ हनुमाना ॥

जलनिधि रघुपति दूत बिचारी । तैं मैनाक होहि श्रमहारी ॥

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