एक समय वनकुमारी नामक एक सुन्दरी बालिका थी। यह जैसी सुन्दरी थी, बुद्धि भी उसकी वैसी ही पैनी थी। वह हमेशा समुंदर के किनारे नाग कन्याओं के साथ खेलती रहती थी। उसकी माता का नाम था वनदेवी। धरती पर सब तरह के पेड़-पौधे, बेल-बूटे कौरह उपजाना उसी का काम था। उसी की आज्ञा से पेड़ों में फल लगते और पौधों में फूल। खेतों में धान उपजता और बाड़ियों में तरकारियाँ। उसी की कृपा से मैदानों में मुलायम हरी-हरी घास बिछ जाती। उसका नाम भी इसी से 'वनदेवी’ पड़ गया था। एक दिन वनदेवी ने अपनी लाड़ली बिटिया से कहा,

“बेटी खेतों में धान पक गया है। कटाई के दिन आ गए हैं। मुझे अब कुछ दिन तक बिल्कुल फुरसत नहीं रहेगी। रात-दिन इन सुनहरें खेतों की रखवाली करनी होगी। इसलिए जब तक मैं लौट न आऊँ, तू यही नाग-कन्याओं के साथ खेळती रह | देख इन को छोड़ कर इधर-उधर घूमने मत जा"

"बहुत अच्छा, माँ..! तुम कुछ भी चिंता मत करो। मैं कहीं न जाऊँगी।"

यह कह कर बनकुमारी नाग कन्याओं के साथ खेलने चली गई। उसको देखते ही नाग-कन्याएँ दौड़ती हुई समुन्दर से निकल आई। वनकुमारी उनके साथ बालू के घरौंदे बना कर खेलने लगी। वे सब बरौदे बनाती और फिर तालियाँ बजाकर हँसती हुई उन्हें मिटा भी देतीं। नाग-कन्याओं ने कौड़ियों की एक माला बना कर बनकुमारी के गले में डाल दी। बनकुमारी जब इधर-उधर दौड़ती तो उसके गले में मात्र सूरने लगती। थोड़ी देर तक खेलने के बाद बनकुमारी ने कहा,

“बहनो..! आओ, हम फूल चुनने चलें। यहाँ से थोड़ी ही दूर पर एक बाग़ है। वहाँ रंग-बिरंगे फूल खिले हैं। चलो, हम फूल चुन कर सुन्दर माला गूँथे।”

पर उसकी सखियों ने जवाब दिया,

“नहीं बहन ! हम तो उधर नहीं जा सकती। हमें समुन्दर का यह किनारा छोड़ कर और, कहीं भी जाने की मनाही है।” 

“अच्छा, तो तुम सब यहीं रहो। में अमी आँचल भर फूल तोड़ कर वापस का जाती हूँ।"

यह कह कर यह दौड़ती हुई बाग की ओर चली गई। यहाँ पहुँच कर उसने रंग-बिरंगे फूलों से अपना आँचल भर लिया और धीरे-धीरे लौटने लगी। इतने में उसे एक छोटा-सा पौधा दिखाई दिया। उस पर सैकडों फूल लगे थे। उसे देख कर वनकुमारी बहुत ही प्रसन्न हुई। उसने चाहा कि उस पौधे को जड़ से उखाड़ कर ले चले। बहुत ज़ोर लगाने पर पौधा उखड़ा। लेकिन उस पौधे की जगह धरती में एक बड़ा छेद हो गया। उसमें से धड़ाके की आवाज सुनाई दी। पलक मारते मारते एक सुन्दर सोने का रथ उस छेद से ऊपर आ गया। उस रथ में तीन काले-काले घोड़े जुडे थे। उस रथ पर पाताल पुरी का राजा बैठा था। यह सब देख कर वनकुमारी चौंक गई और

“अम्मा, अम्मा” चिल्लाने लगी।

लेकिन अम्मा वहाँ कहाँ थी? पाताल के राजा ने वनकुमारी का के हाथ पकड़ कर अपने रथ में बिठा लिया और फिर बड़ी तेज़ी से अपने नगर को निकल गया। वनकुमारी को रोते बिलखते देखकर उसने यों समझाया

“देखो, रोने धोने से कोई फायदा नहीं है। आँसू पोंछ लो, मैं तुम्हें अपनी रानी बनाऊँगा। तुम जो चीज़ चाहोगी, स्ब दूँगा। डरो मत ! मैं कोई भूत थोड़े ही हूँ जो मुझे देख कर इतना डरती हो?"

"लेकिन मैं यहाँ एक पल भी रहना नहीं चाहती में अपनी माँ के पास जाना चाहती हूँ।"

बनकुमारी ने सिसकते हुए कहा। कुछ देर बाद जब वनदेवी समुन्दर के किनारे लौटी तो उसकी बेटी का कहीं पता नहीं था। जब उसने नाग-कन्याओं से पूछा तो उन्होंने जवाब दिया

"फूल तोड़ने गई है। अभी तक लौटी नहीं।"

यह सुनते ही बनदेवी का माथा ठनका। उसे बड़ी चिन्ता हुई कि यह अल्हड़ लड़की न जाने किधर भटक गई। वह उसे ढूँढने निकली। बेचारी, उसे कौन बताता कि उसकी लाड़ली बिटिया कहाँ है उसने हाथ में एक मशाल लेकर नौ दिन और नौ रात तक सारी धरती छन ढाली; लेकिन सारी मेहनत बेकार।

खोजते खोजते राह में उसे एक जगह चंद्रमा दीख पड़ा। पूछने पर उसने कहा

“मैंने वनकुमरी का चिलाना तो ज़रूर सुना था। लेकिन मुझे नहीं मालूम कि वह गई किस ओर है?”

“हाँ, शायद सूरज से पूछो तो पता चले। क्योंकि दिन में जो कुछ होता है वह उनसे छिपा नहीं

रहता।”

वनदेवी ने तुरन्त सूरज के पास जार पूछा तो उसने जवाब दिया,

“हाँ, मैंने देखा कि पाताल का राजा उसे अपने रथ पर चढ़ा कर ले जा रहा है। लेकिन तुम कुछ सोच न करो। तुम्हारी बेटी का बाल भी बाँका न होगा। क्योंकि यह उसे प्यार करता है और अपनी रानी बनाना चाहता है।”

यह देखते ही वनदेवी क्रोध से काँपने लगी। उसने गुस्से से भर कर कहा,

“जन तक पाताल-राज मेरी बिटिया को लाकर न सौंप देगा, तब तक धरती पर पानी नहीं पड़ेगा। न कोई पेड़ फलेंगे, न फूल फूलेंगे और न फोई अनाज ही पैदा होगा।"

इतना कह कर आँसु बहाती हुई यह वहीं धरना देकर बैठ गई।यह सुनते उस क्षण से धरती पर अकाल पड़ गया। पेड़ों के पत्ते पीले पड़ कर झड़ गए। यहाँ तक कि मैदानों में हरियाली भी न रही। किसान ऐंड़ी चोटी का पसीना एक कर देते। लेकिन खेतों में अनाज का दाना भी न उगता। चारों ओर हाहा:कार मच गया और लोग मूल की आँच में तिल-तिल कर स्वाहा होने लगे। अब चारों ओर देवी-देवताओं की पूजा होने लगी।

लोग मंदिरों में जाकर “त्रादि” “वादि” करने लगे। देवताओं ने आकर वनदेवी से प्रार्थना की कि अपना शाप वापस ले लो। लेकिन वह टस से मस न हुई। हार कर उन्होंने कुमारी को लौटा लाने के लिए पाताल राज के पास अपने दूत भेजे।

उधर पाताल-राज वनकुमारी को खुश करने के लिए जी-जान से कोशिश कर रहा था। उसे आशा थी कि ज़रूर अन्त में वह उसे प्यार करने लगेगी। वह भौरे की तरह उसके चारों तरफ मँडराता रहता और बार बार मनाया करता वनकुमारी जानती थी कि, वहाँ कुछ भी खाने-पीने से उसे उसका एहसान मानना पड़ेगा। इसलिए वह दाना-पानी छोड़ कर उसी तरह बैठी रही।

पाताल-राज ने छप्पन प्रकार के व्यंजन बनवा कर उसके सामने रखे। लेकिन उसने आँख उठा कर उधर देखा तक नहीं। वह कहती रही,

“मुझे माँ के पास पहुँचा दो। मैं अपने बाग़ के फलों के सिवा कुछ नहीं खाती।"

“अच्छा, तो तुम्हारे बाग़ के फल में यहाँ मैंगा देता हूँ।”

यह कह कर उसने अपने सिपाहियों को आज्ञा दी,

“जाओ, धरती पर, जितने तरह के फल मिलें, सब तोड़ ला ओ। देखो, देर न हो। पलक झापकते लौट आओ।" सिपाहियों ने जा कर सारी धरती छान डाली। एक एक पेड़ उखाड़ डाला। लेकिन उन्हें फल तो दूर, कहीं एक हरी पत्ती भी न मिली। आखिर बहुत ढूँढने पर एक जगह उन्हें एक सूखा बनार मिला। उन्होंने उसे सफर कुमारी के सामने रख दिया।

यह भूखी तो थी ही, झट उसे फोड़ कर छ: दाने मुँह में डाल लिए। इतने में देवताओं के दूत वनकुमारी को लाने के लिए यहाँ आ पहुँचे। पाताल राज ने उसे विदा करते हुए कहा-"वनकुमारी..! तुम लौट आना चाहती हो तो जा ओ, लेकिन एक बात का ख्याल रखो। तुमने मेरे घर अनार के छः दाने खाए हैं। इसलिए तुम्हें हर साल छः महीने यहाँ आकर रहना होगा।"

अब वनकुमारी को अफसोस होने लगा कि उसने क्यों वे दाने खा लिए..! आखिर लाचार होकर उसे पाताल-राज की, धरती बात माननी पड़ी। जब वह दूतों के साथ माँ के पास लौट आई तो उसकी माँ ने उसे दौड़ कर गले से लगा लिया। उसकी आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे।

उसने अपना शाप लौटा लिया। तुरंत पानी बरसा पर हरियाली छा गई। पेड़ों पर नई फोपलें निकल आई। फिर लताएँ फूलों से लद गईं। पहले तो वनदेवी को यह मंजूर न हुआ कि उसकी लाड़ली बिटिया हर साल छः महीने पाताल-राज के यहाँ जाकर रहे। लेकिन वनकुमारी के बहुत कुछ समझाने-बुझाने पर यह भी राजी हो गई।

Please join our telegram group for more such stories and updates.telegram channel