श्रीगणेशाय नमः ।
भजे विशेषसुन्दरं समस्तपापखण्डनम् । स्वभक्तचित्तरञ्जनं सदैव राममद्वयम् ॥ १ ॥
जटाकलापशोभितं समस्तपापनाशकम् । स्वभक्तभीतिभंजनं भजे ह राममद्वयम् ॥ २ ॥
निजस्वरूपबोधकं कृपाकरं भवापहम् । समं शिवं निरंजनं भजे ह राममद्वयम् ॥ ३ ॥
सदाप्रञ्चकल्पितं ह्यनामरूपवास्तवम् । निराकृतिं निरामयं भजे ह राममद्वयम् ॥ ४ ॥
निष्प्रपञ्चनिर्विकल्पनिर्मलं निरामयम् ॥ चिदेकरूपसंततं भजे ह राममद्वयम् ॥ ५ ॥
भवाब्धिपोतरूपकं ह्यशेषदेहकल्पितम् । गुणाकरं कृपाकरं भजे ह राममद्वयम् ॥ ६ ॥
महावाक्यबोधकैर्विराजमनवाक्पदैः । परब्रह्म व्यापकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ७ ॥
शिवप्रदं सुखप्रदं भवच्छिदं भ्रमापहम् । विराजमानदैशिकं भजे ह राममद्वयम् ॥ ८ ॥
रामाष्टकं पठति यः सुकरं सुपुण्यं व्यासेन भाषितमिदं श्रृणुते मनुष्यः ।
विद्यां श्रियं विपुलसौख्यमनन्तकीर्ति सम्प्राप्य देहविलये लभते च मोक्षम् ॥ ९ ॥
इति श्रीव्यासविरचितं रामाष्टकं संपूर्णम् ।