प्रवाह-पतित कथा के प्रसंग को अभी मुझे अगले प्रकरण तक टालना पड़ेगा।

पिछले प्रकरण में मिट्टी के प्रयोगो के विषय में मैं जैसा कुछ लिख चुका हूँ , उसके जैसा मेरा आहार-विषयक प्रयोग भी था। अतएव इस संबंध मे भी इस समय यहाँ थोडा लिख डालना मै उचित समझता हूँ। दूसरी कुछ बातें प्रसंगानुसार आगे आवेंगी।

आहार विषयक मेरे प्रयोगों और तत्संबंधी विचारों का विस्तार इस प्रकरण में नही किया जा सकता। इस विषय में मैने 'आरोग्य-विषयक सामान्य ज्ञान' (इस विषय में गाँधी के अन्तिम विचारो के अध्ययन के लिए 1942 मे लिखी उनकी 'आरोग्य की कुंजी' नामक पुस्तक देखिये। नवजीवन ट्रष्ट द्वारा प्रकाशित।) नामक जो पुस्तक दक्षिण अफ्रीका में 'इंडियन ओपिनियन' के लिए लिखी थी, उसमें विस्तार - पूर्वक लिखा हैं। मेरी छोटी- छोटी पुस्तकों मे यह पुस्तक पश्चिम मे और यहाँ भी सबसे अधिक प्रसिद्ध हुई हैं। मै आज तक इसका कारण समझ नहीं सका हूँ। यह पुस्तक केवल 'इंडियन ओपिनियन' के पाठको के लिए लिखी गयी थी। पर उसके आधार पर अनेक भाई-बहनों ने अपने जीवन मे फेरफार किये हैं और मेरे साथ पत्र व्यवहार भी किया हैं। इसलिए इस विषय में यहाँ कुछ लिखना आवश्यक हो गया हैं। क्योंकि यद्यपि उसमे लिखे हुए अपने विचारो मे फेरफार करने की आवश्यकता मुझे प्रतीत नहीं हुई , तथापि अपने आचार मे मैने जो महत्त्व का फेरफार किया हैं, उसे इस पुस्तक के सब पाठक नही जानते। यह आवश्यक हैं कि वे उस फेरफार को तुरन्त जान ले।

इस पुस्तक को लिखने मे - अन्य पुस्तकों की भाँति ही -- केवल धर्म भावना काम कर रही थी और वही आज भी मेरे प्रत्ये काम में वर्तमान हैं। इसलिए उसमे बताये हुए कई विचारो पर मैं आज अमल नही कर पाता हूँ , इसका मुझे खेद हैं, इसकी मुझे शरम आती है।

मेरा ढृढ़ विश्वास है कि मनुष्य बालक के रूप मे माता का जो दूध पीता हैं, उसके सिवा उसे दूसरे दूध की आवश्यकता नही है। हरे औऱ सूखे बनपक्व फलो के अतिरिक्त मनुष्य का और कोई आहार नही हैं। बादाम आदि के बीजों मे से और अंगूर आदि फलों मे से उसे शरीर और बुद्धि के लिए आवश्यक पूरा पोषण मिल जाता है। जो ऐसे आहार पर रह सकता है, उसके लिए ब्रह्मचर्यादि आत्म-संयम बहुत सरल हो जाता है। जैसा आहार वैसी डकार, मनुष्य जैसा हैं वैसा बनता हैं, इस कहावत में बहुत सार हैं। उसे मैने और मेरे साथियों ने अनुभव किया हैं।

इन विचारों का विस्तृत समर्थन मेरी आरोग्य-सम्बन्धी पुस्तकों मे हैं।

पर हिन्दुस्तान मे अपने प्रयोगों को सम्पूर्णता तक पहुँचना मेरे भाग्य में बदा न था। खेड़ा जिले मे सिपाहियो की भरती का काम मैं अपनी भूल से मृत्युशय्या पर पड़ा। दूध के बिना जीने के लिए मैने बहुत हाथ-पैर मारे। जिन वैद्यो,डॉक्टरों और रसायम शास्त्रियो को मैं जानता था, उनकी मदद माँगी। किसी ने मूंग के पानी, किसी मे महुए के तेल और किसी ने बादाम के दूध का सुझाव दिया। इन सब चीजो के प्रयोग करते-करते मैने शरीर को निचोड डाला , पर उससे मै बिछौना छोड़कर उठ न सका।

वैद्यो ने मुझे चरक इत्यादि के श्लोक सुनाकर समझाया कि रोग दूर करने के लिए खाद्याखाद्य की बाधा नही होती और माँसादि भी खाये जा सकते हैं। ये वैद्य दुग्धत्याग पर ढृढ़ रहने मे मेरी सहायता कर सके, ऐसी स्थिति न थी। तब जहाँ 'बीफ-टी' ( गोमाँस की चाय) और 'ब्रांडी' की गुंजाइश हो , वहाँ से तो दूध के त्याग मे सहायता मिल ही कैसे सकती थी ? गाय-भैंस का दूध तो मै ले ही नहीं सकता था। यह मेरा व्रत था। व्रत का हेतु तो दूध मात्र का त्याग था। पर व्रत लेते समय मेरे सामने गोमाता और भैंसमाता ही थी इस कारण से और जीने की आशा से मैंने मन को जैसे-तैसे फुसला लिया। मैने व्रत के अक्षर का पालन किया और बकरी का दुध लेने का निश्चय किया। बकरी माता का दूध लेते समय भी मैने यह अनुभव किया कि मेरे व्रत की आत्मा का हनन हुआ हैं।

पर मुझे 'रौलेट एक्ट' के विरुद्ध जूझना था। यह मोह मुझे छोड़ नहीं रहा था। इससे जीने की इच्छा बढ़ी और जिसे मैं अपने जीवन का महान प्रयोग मानता हूँ उसकी गति रुक गयी।

खान-पान के साथ आत्मा का संबंध नही है। वह न खाती है , न पीती है। जो पेट मे जाता है, वह नहीं, बल्कि जो वचन अन्दर से निकलते है वे हानि-लाभ पहुँचाने वाले होते है। -- इत्यादि दलीलों से मैं परिचित हूँ। इनमे तथ्यांश है। पर बिना दलील किये मैं यहाँ अपना यह ढृढ निश्चय ही प्रकट किये देता हूँ कि जो मनुष्य ईश्वर से डरकर चलना चाहता हैं , जो ईश्वर के प्रत्यक्ष दर्शन करने की इच्छा रखता हैं, ऐसे साधक और मुमुक्षु के लिए अपने आहार का चुनाव --त्याग और स्वीकार -- उतना ही आवश्यक है , जितना कि विचार और वाणी का चुनाव -- त्याग और स्वीकार -- आवश्यक हैं।

पर जिस विषय में मैं स्वयं गिरा हूँ उसके बारे मे मैं न केवल दूसरो को अपने सहारे चलने की सलाह नहीं दूँगा, बल्कि ऐसा करने से रोकूँगा। अतएव आरोग्य-विषयक मेरी पुस्तक के सहारे प्रयोग करने वाले सब भाई-बहनों को मैं सावधान करना चाहता हूँ। दूध का त्याग पूरी तरह लाभप्रद प्रतीत हो अथवा वैद्य-डॉक्टर उसे छोड़ने की सलाह दें , तभी वे उसकों छोड़े। सिर्फ मेरी पुस्तक के भरोसे वे दूध का त्याग न करे। यहीं का मेरा अनुभव अब तक तो मुझे यही बतलाया है कि जिसकी जठराग्नि मंद हो गयी हैं और जिसने बिछौना पकड़ लिया हैं, उसके लिए दूध जैसी खुराक हलकी और पौषक खुराक हैं ही नहीं। अतएव उक्त पुस्तकों के पाठको से मेरी बिनती और सिफारिश है कि उसमें दूध की मर्यादा सूचित की गयी हैं उस पर चलने की वे जिद न करें।

इस प्रकरणों पढ़ने वाले कोई वैद्य, डॉक्टर, हकीम या दूसरे अनुभवी दूध के बदले मे किसी उतनी ही पोषक किन्तु सुपाच्य वनस्पति को अपने अध्ययन के आधार पर नहीं , बल्कि अनुभव के आधार पर जानते हो, तो उसकी जानकारी देकर मुझे उपकृत करे।

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