गुजरात मे अच्छी तरह भटक चुकने के बाद गायकवाड़ के बीजापुर गाँव मे गंगाबहन को चरखा मिला। वहाँ बहुत से कुटुम्बो के पास चरखा था , जिसे उठाकर उन्होने छत पर चढा दिया था। पर यदि कोई उनका सूत खरीद ले और उन्हे कोई पूनी मुहैया कर दे , तो वे कातने को तैयार थे। गंगाबहन ने मुझे खबर भेजी। मेरे हर्ष का कोई पार न रहा। पूनी मुहैया कराने का का मुश्किल मालूम हुआ। स्व. भाई उमर सोबानी से चर्चा करने पर उन्होने अपनी मिल से पुनी की गुछियाँ भेजने का जिम्मा लिया। मैने वे गुच्छियाँ गंगाबहन के पास भेजी और सूत इतनी तेजी से कतने लगा कि मै हार गया।

भाई उमर सोबानी की उदारता विशाल थी, फिर भी उसकी हद थी। दाम देकर पुनियाँ लेने का निश्चय करने मे मुझे संकोच हुआ। इसके सिवा , मिल की पूनियों से सूत करवाना मुझे बहुत दोष पूर्ण मालूम हुआ। अगर मिल की पूनियाँ हम लेते है, तो फिर मिल का सूत लेने मे क्या दोष है ? हमारे पूर्वजो के पास मिल की पुनियाँ कहाँ थी? वे किस तरह पूनियाँ तैयार करते होगे ?मैने गंगाबहन को लिखा कि वे पूनी बनाने वाले की खोज करे। उन्होने इसका जिम्मा लिया और एक पिंजारे को खोज निकाला। उसे 35 रुपये या इससे अधिक वेतन पर रखा गया। बालको को पूनी बनाना सिखाया गया। मैने रुई की भिक्षा माँगी। भाई यशवंतप्रसाद देसाई ने रुई की गाँठे देने का जिम्मा लिया। गंगाबहन ने काम एकदम बढा दिया। बुनकरो को लाकर बसाया और कता हुआ सूत बुनवाना शुरू किया। बीजापुर की खादी मशहूर हो गयी।

दूसरी तरफ आश्रम मे अब चरखे का प्रवेश होने मे देर न लगी। मगनालाल गाँघी की शोधक शक्ति ने चरखे मे सुधार किये और चरखे तथा तकुए आश्रम मे बने। आश्रम की खादी पहले थान की लागत फी गज सतरह आने आयी। मैने मित्रो से मोटी और कच्चे सूत की खादी के दाम सतरह आना फी गज के हिसाब से लिये, जो उन्होने खुशी-शुशी दिये।

मै बम्बई मे रोगशय्या पर पड़ा हुआ था , पर सबसे पूछता रहता था। मै खादीशास्त्र मे अभी निपट अनाड़ी था। मुझे हाथकते सूत की जरूरत थी। कत्तिनो की जरूरत थी। गंगाबहन जो भाव देती थी , उससे तुलना करने पर मालूम हुआ कि मै ठगा रहा हूँ। लेकिन वे बहने कम लेने को तैयार न थी। अतएव उन्हें छोड़ देना पड़ा। पर उन्होने अपना काम किया। उन्होने श्री अवन्तिकाबाई, श्री रमीबाई कामदार , श्री शंकरलाल बैकर की माताजी और वसुमतीबहन को कातना सिखा दिया और मेरे कमरे मे चरखा गूंजने लगा। यह कहने मे अतिशयोक्ति न होगी कि इस यंत्र मे मुझ बीमार को चंगा करने मे मदद की। बेशक यह एक मानसिक असर था। पर मनुष्य को स्वस्थ या अस्वस्थ करने में मन का हिस्सा कौन कम होता है? चरखे पर मैने भी हाथ आजमाया। किन्तु इससे आगे मै इस समय जा नही सका।

बम्बई मे हाथ की पूनियाँ कैसे प्राप्त की जाय? श्री रेवाशंकर झेवरी के बंगले के पास से रोज एक घुनिया तांत बजाता हुआ निकला करता था। मैने उसे बुलाया। वह गद्दो के लिए रुई धूना करता था। उसने पूनियाँ तैयार करके देना स्वीकार किया। भाव ऊँचा माँगा , जो मैने दिया। इस तरह तैयार हुआ सूत मैने बैष्णवो के हाथ ठाकुरजी की माला के लिए दाम लेकर बेचा। भाई शिवजी ने बम्बई मे चरखा सिकाने का वर्ग शुरू किया। इन प्रयोगो मे पैसा काफी खर्च हुआ। श्रद्धालु देशभक्तो ने पैसे दिये और मैने खर्च किये। मेरे नम्र विचार मे यह खर्च व्यर्थ नही गया। उससे बहुत-कुछ सीखने को मिला। चरखे की मर्यादा का माप मिल गया।

अब मै केवल खादीमय बनने के लिए अधीर हो उठा। मेरी धोती देशी मिल के कपड़े की थी। बीजापुर मे और आश्रम मे जो खादी बनती थी, वह बहुत मोटी और 30 इंच अर्ज की होती थी। मैने गंगाबहन को चेतावनी दी कि अगर वे एक महीने के अन्दर 45 इंच अर्जवाली खादी की धोती तैयार करके न देगी, तो मुझे मोटी खादी की घटनो तक की धोती पहनकर अपना काम चलाना पड़ेगा। गंगाबहन अकुलायी। मुद्दत कम मालूम हुई , पर वे हारी नही। उन्होने एक महीने के अन्दर मेरे लिए 50 इंच अर्ज का धोतीजोडा मुहैया कर दिया औऱ मेरा दारिद्रय मिटाया।

इसी बीच भाई लक्ष्मीदास लाठी गाँव से एक अन्त्यज भाई राजजी और उसकी पत्नी गंगाबहन को आश्रम मे लाये और उनके द्वारा बड़े अर्ज की खादी बुनवाई। खादी प्रचार मे इस दम्पती का हिस्सा ऐसा-वैसा नही कहा जा सकता। उन्होने गुजरात मे और गुजरात के बाहर हाथ का सूत बनने की कला दूसरो को सिखायी है। निरक्षर परन्तु संस्कारशील गगाबहन जब करधा चलाती है , तब उसमे इतनी लीन हो जाती है कि इधर उधर देखने या किसी के साथ बातचीत करने की फुरसत भी अपने लिए नही रखती।

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