इस प्रकरण को लिखते समय ऐसा समय आ गया है , जब मुझे पाठकों को यह बताना चाहिये कि सत्य के प्रयोगो की यह कथा किस प्रकार लिखी जा रही हैं। यह कथा मैने लिखनी शुरु की थी, तब मेरे पास कोई योजना तैयार न थी। इन प्रकरणों को मै अपने सामने कोई पुस्तके, डायरी या दूसरे कागज पत्र रखकर नही लिख रहा हूँ। कहा जा सकता हैं कि लिखने के दिन अन्रयामी मुझे जिस तरह रास्ता दिखाता है, उसी तरह मैं लिखता हूँ। मैं निश्चयपूर्वक नही जानता कि जो क्रिया मेरे अन्तर मे चलती है, उसे अन्तर्यामी की क्रिया कहा जा सकता है या नही। लेकिन कई वर्षो से मैने जिस प्रकार अपने बड़े से बड़े माने गये और छोटे से छोटे गिने जा सकने वाले कार्य किये है, उसकी छानबीन करते हुए मुझे यह कहना अनुचित नही प्रतीत होती कि वे अन्तर्यामी की प्रेरणा से हुए है।


अन्तर्यामी को मैने देखा नही , जाना नही। संसार की ईश्वर विषयक श्रद्धा को मैने अपनी श्रद्धा बना लिया है। यह श्रद्धा किसी प्रकार मिटायी नही जा सकती। इसलिए श्रद्धा के रूप मैं पहचानना छोड़कर मैं उसे अनुभव के रूप में पहचानता हूँ। फिर भी इस प्रकार अनुभव के रूप मे उसका परिचय देना भी सत्य पर एक प्रकार का प्रहार है। इसलिए कदाचित यह कहना ही अधिक उचित होगा कि शुद्ध रूप मे उसका परिचय कराने वाला शब्द मेरे पास नही हैं।


मेरी यह मान्यता हैं कि उस अदृष्ट अन्तर्यामी के वशीभूत होकर मैं यह कथा लिख रहा हूँ।

जब मैने पिछला प्रकरण लिखना शुरू किया , तो उसे शीर्षक 'अंग्रेजो से परिचय' दिया था। पर प्रकरण लिखते समय मैने देखा कि इन परिचयों का वर्णन करने से पहले जो पुण्य स्मरण मैने लिखा उसे लिखना आवश्यक था। अतएव वह प्रकरण मैने लिखा और लिख चुकने के बाद पहले का शीर्षक बदलना पड़ा।

अब इस प्रकरण को लिखते समय एक नया धर्म-संकट उत्पन्न हो गया हैं। अंग्रेजो का परिटय देते हुए क्या कहना और क्या न कहना , यह महत्त्व का प्रश्न बन गया हैं। जो प्रस्तुत है वह न कहा जाय तो सत्य को लांछन लगेगा। पर जहाँ इस कथा का लिखना ही कदाचित् प्रस्तुत न हो , वहाँ प्रस्तुत - अप्रस्तुत के बीच झगड़े का एकाएक फैसला करना कठिन हो जाता हैं।

इतिहास के रूप में आत्मकथा-मात्र की अपूर्णता और उसकी कठिनाइयों के बारे मे पहले मैने जो पढा था, उसका अर्थ आज मै अधिक समझता हूँ। मैं यह जानता हूँ कि सत्य के प्रयोगों की इस आत्मकथा मे जितना मुझे याद हैं उतना सब मै हरगिज नहीं दे सका हूँ। कौन जानता है कि सत्य का दर्शन कराने के लिए मुझे कितना देना चाहिये अथवा न्याय-मन्दिर मे एकांगी और अधूरे प्रमाणों की क्या कीमत आँकी जायेगी ? लिखे हुए प्रकरणों पर कोई फुरसतवाला आदमी मुझसे जिरह करने बैठे , तो वह इन प्रकरणों पर कितना अधिक प्रकाश डालेगा ? और यदि वह आलोचक की दृष्टि से इनकी छानबीन करे, तो कैसी कैसी 'पोलें' प्रकट करके दुनिया को हँसावेगा और स्वयं फूलकर कुप्पा बनेगा ?

इस तरह सोचने पर क्षणभर के लिए मन मे यही आता है कि क्या इन प्रकरणों का लिखना बन्द कर देना ही अधिक उचित न होगा? किन्तु जब तक आरम्भ किया हुआ काम स्पष्ट रुप से अनीतिमय प्रतीत न हो तब तक उसे बन्द न किया जाय, इस न्याय से मैं इस निर्णय पर पहुँचा कि अन्तर्यामी सोकता नही उस समय तक ये प्रकरण मुझे लिखते रहना चाहिये।

यह कथा टीकाकारो को संतुष्ट करने के लिए नहीं लिखी जा रही हैं। सत्य के प्रयोगो मे यह भी एक प्रयोग ही हैं। साथ ही , लिखने के पीछे यह दृष्टि तो है ही कि इसमे साथियों को कुछ आश्वासन मिलेगा। इसका आरम्भ ही उनके संतोष के लिए किया गया हैं। यदि स्वामी आनन्द और जयरामदास मेरे पीछे न पड़ जाते , तो कदाचित् यह कथा आरम्भ ही न होती। अतएव इसके लिखने मे यदि कोई दोष हो रहा हो तो उसमे वे हिस्सेदार हैं।

अब मैं शीर्षक के विषय पर आता हूँ। जिस प्रकार मैने हिन्दुस्ती मुहर्रिरों और दूसरों को घर में अपने कुटुम्बियों की तरह रखा था, उसी प्रकार मैं अंग्रेजो को भी रखने लगा। मेरा यह व्यवहार मेरे साथ रहनेवाले सब लोगो के अनुकूल न था। पर मैने उन्हें हठ-पूर्वक अपने घर रखा था। कह नही सकता कि सबको रखने मैंने हमेशा बुद्धिमानी ही की थी। कुछ संबंधो के कड़वे अनुभव भी प्राप्त हुए थे। किन्तु ऐसे अनुभव तो देशी-विदेशी दोनो के संबंध मे हुए। कड़वे अनुभवों के लिए मुझे पश्चाताप नही हुआ और यह जानते हुए कि मित्रों को असुविधा होती है और कष्ट उठाना पड़ता हैं, मैने अपनी आदत नही बदली और मित्रों ने उसे उदारतापूर्वक सहन किया हैं। नये-नये मनुष्यों के साथ संबंध जब मित्रो के लिए दुःखद सिद्ध हुए हैं तब उनका दोष उन्हें दिखाने में मैं हिचकिचाया नहीं हूँ। मेरी अपनी मान्यता हैं कि आस्तिक मनुष्यों में , जो अपने में विद्यमान ईश्वर को सब मे देखा चाहते हैं . सब के साथ अलिप्त होकर रहने की शक्ति आनी चाहिये। और ऐसी शक्ति तभी विकसित की जा सकती हैं, जहाँ-जहाँ अनखोजे अवसर आवें, वहाँ-वहाँ उनसे दूर न भाग कर नये-नये सम्पर्क स्थापति किये जायें और वैसा करते हुए भी राग-द्वेष से दूर रहा जाय।


इसलिए जब बोआर ब्रिटिश युद्ध शुरू हुआ , तब अपना घर भरा होते हुए भी मैने जोहानिस्बर्ग से आये हुए दो अंग्रेजो को अपने यहाँ टिका लिया। दोनो थियॉसॉफिस्ट थे। उनमे से एक का नाम किचन था। इनक चर्चा हमे आगे भी करनी होगी। इन मित्रों के सहवास ने भी धर्मपत्नी को रुलाया ही था। मेरे कारण उसके हिस्से मे रोने के अनेक अवसर आये है। बिना किसी परदे के इतने निकट संबंध मे अंग्रेजो को घर में रखने का यह मेरा पहला अनुभव था। इंग्लैंड में मैं उनके घरो में अवश्य रहा था। पर उस समय मैं उनकी रहन-सहन की मर्यादा मे रहा था और वह रहना लगभग होटल में रहने जैसा था। यहाँ बात उससे उल्टी थी। ये मित्र कुटुम्ब के व्यक्ति बन गये थे। उन्होंने बहुत-कुछ भारतीय रहन-सहन का अनुकरण किया था।

यद्यपि घर के अन्दर बाहर का साज-सामान अंग्रेजी ढंग का था, तथापि अन्दर की रहन-सहन और खान-पान आदि मुख्यतः भारतीय थे। मुझे याद हैं कि इन मित्रों को रखने में कई कठिनाइयाँ खड़ी हुई थी, लेकिन मै यह अवश्य कह सकता हूँ कि दोनो व्यक्ति घर के दूसरे लोगो के साथ पूरी तरह हिलमिल गये थे। जोहानिस्बर्ग में ये संबंध डरबन से भी अधिक आगे बढ़े।

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