कर्मवाद एवं अवतारवाद की ही तरह गीता में गुणवाद तथा अद्वैतवाद की भी बात आई है। इनके संबंध में भी गीता का वर्णन अत्यंत सरस, विलक्षण एवं हृदयग्राही है। यों तो यह बात भी गीता की अपनी नहीं है। गुणवाद दरअसल वेदांत, सांख्य और योगदर्शनों की चीज है। ये तीनों ही दर्शन इस सिद्धांत को मानते हैं कि सत्त्व, रज और तम इन तीन ही गुणों का पसारा, परिणाम या विकास यह समूचा संसार है - यह सारी भौतिक दुनिया है। इसी तरह अद्वैतवाद भी वेदांत दर्शन का मौलिक सिद्धांत है। वह समस्त दर्शन इसी अद्वैतवाद के प्रतिपादन में ही तैयार हुआ है। वेदांत ने गुणवाद को भी अद्वैतवाद की पुष्टि में ही लगाया है - उसने उसी का प्रतिपादन किया है। फिर ये दोनों ही चीजें गीता की निजी होंगी कैसी? लेकिन इनके वर्णन, विश्लेषण, विवेचन और निरूपण का जो गीता का ढंग है वही उसका अपना है, निराला है। यही कारण है कि गीता ने इन पर भी अपनी छाप आखिर लगाई दी है।

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