यह ठीक है कि मायावाद की साफ चर्चा गीता में नहीं आती। मगर माया का और उसके भ्रम में डालने आदि कामों को बार-बार जिक्र उसमें आया ही है। 'सम्भवाम्यात्ममायया' (4। 6) 'दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया' (7। 14), 'माययापहृतज्ञाना' (7। 15), 'योगमाया समावृत:' (7। 25), 'यंत्ररूढानि मायया' (18। 61) में जिस प्रकार माया का उल्लेख है, जैसा चौदहवें अध्याय में प्रकृति का वर्णन आया है, 'मयाध्यक्षेण प्रकृति:' (9। 0) में जिस तरह प्रकृति का नाम लिया है, तेरहवें अध्या य के 'भूतप्रकृतिमोक्षं च' (13। 34) आदि श्लोकों में बार-बार प्रकृति का उल्लेख जिस प्रसंग में आया है तथा 'महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च' (13। 5) में जो अव्यक्त शब्द है ये सभी माया के ही अर्थ में आ के वेदांत के मायावाद के ही समर्थक हैं तेरहवें अध्या य के शुरू में जो क्षेत्रज्ञ का बार-बार जिक्र आया है और 'एतत्क्षेत्रं समासेन सविकारमुदाहृतम्' (13। 6) में क्षेत्र का उसके घास-पात - विकार - के साथ जो वर्णन आलंकारिक ढंग से किया गया है वह भी इसी चीज का समर्थक है। क्षेत्र तो खेत को कहते हैं और जैसे खेतिहर खेत के घास-पात को साफ करके ही सफल खेती कर सकता है, ठीक उसी प्रकार यह क्षेत्रज्ञ - आत्मा - रूपी खेतिहर भी रागद्वेष आदि घास-पत्तों को निर्मूल करके ही अपने कल्याण का उत्पादन इस खेत - शरीर - में कर सकता है, यही बात वहाँ कही गई है। मगर वहाँ समष्टि शरीर या माया को ही क्षेत्र कहने का तात्पर्य है। व्यष्टि शरीर तो उसके भीतर आई जाते हैं। शुरू में जो महाभूत, अहंकार आदि का उल्लेख है वह इसी बात का सूचक है।

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