दूसरा दल गुणवादियों का है। उनके गुणवाद को परिणामवाद या विकासवाद (Evolution Theory) भी कहते हैं। इसे वही तीन दर्शन - वेदांत, सांख्य तथा योग - मानते हैं। इनके आचार्य हैं क्रमश: व्यास, कपिल और पतंजलि। ये लोग परमाणुओं की सत्ता स्वीकार न करके तीन गुणों को ही मूल कारण मानते हैं। इन्हें परमाणुओं से इनकार नहीं। मगर ये उन्हें अविभाज्य नहीं मानते हैं। इनका कहना यही है कि कोई भी भौतिक पदार्थ अविभाज्य नहीं हो सकता है। विज्ञान ने भी इसे सिद्ध कर दिया है कि जिसे परमाणु कहते हैं उसके भी टुकड़े होते हैं। परमाणुवाद के मानने में जो मुख्य दलील दी गई है उसका उत्तर गुणवादी आसानी से देते हैं। वे तो यही कहते हैं कि पर्वत के टुकड़े करते-करते एक दशा ऐसी जरूर आ जाएगी जब सभी टुकड़े राई जैसे ही हो जाएँगे। उनकी संख्या भी निश्चित होगी, फिर चाहे जितनी ही लंबी हो। अब आगे जो टुकड़े हरेक राई जैसे टुकड़े के होंगे वह अनंत - असंख्य - होंगे। नतीजा यह होगा कि इन अनंत टुकड़ों से हरेक राई या राई जैसी ही लंबी-चौड़ी चीज तैयार होगी, जिसकी संख्या निश्चित होगी। अब यहीं से एक ओर राई रह जाएगी अकेली और दूसरी ओर उसी जैसे टुकड़ों को, जिनकी संख्या निश्चित है, मिला के पर्वत बना लेंगे। इसीलिए वह बड़ा भी हो जाएगा। फिर परमाणु का क्या सवाल? गीता में परमाणुवाद की गंध भी नहीं है - चर्चा भी नहीं है, यह विचित्र बात है।

इसीलिए परमाणुवाद और तन्मूलक आरंभवाद की जगह उनने गुणवाद और तन्मूलक परिणामवाद या विकासवाद स्थिर किया। उनने अंवेषण करके पता लगाया कि देखने में चाहे पृथिवी, जल आदि पदार्थ भिन्न हों; मगर उनका विश्लेषण (Analysis) करने पर अंत में सबों में तीन ही चीजें, तीन ही तत्व, तीन ही मूल पदार्थ पाए जाएँगे, पाए जाते हैं। इन तीनों को उनने सत्त्व, रजस और तमस नाम दिया। आमतौर से इन्हें सत्त्व, रज, तम कहते हैं। इन्हीं का सर्वत्र अखंड राज्य है - सर्वत्र बोलबाला है। चाहे स्थूल पदार्थ अन्न, जल, वायु, अग्नि आदि को लें, या क्रिया, ज्ञान, प्रयत्न, धैर्य आदि सूक्ष्म पदार्थों को लें। सबों में यही तीन गुण पाए जाते हैं। इसीलिए गीता ने साफ ही कह दिया है कि 'आकाश, पाताल, मर्त्त्यलोक में - संसार भर में - ऐसा एक भी सत्ताधारी पदार्थ नहीं है जो इन तीन गुणों से अछूता हो, अलग हो' - "न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि देवेषु व पुन:। सत्त्वं प्रकृतिजैर्मुक्तं यदेभि: स्यात्त्रिभिर्गुणै:" (18। 40)। यों तो अठारहवें अध्याषय के 7वें से लेकर 44 तक के श्लोकों में विशेष रूप से कर्म, धैर्य, ज्ञान, सुख, दु:खादि सभी चीजों का विश्लेषण करके उन्हें त्रिगुणात्मक सिद्ध किया है। सत्रहवें अध्याय के शुरू के 22 श्लोकों में भी दूसरी अनेक चीजों का ऐसा ही विश्लेषण किया गया है। गीता में और जगह भी गुणों की बात पाई जाती है। चौदहवें अध्या य में यही बात है। वह तो सारा अध्यामय गुणनिरूपण का ही है। मगर वहाँ गुणों का सामान्य वर्णन है। इसका महत्त्व आगे बताएँगे।

यहाँ पर आरंभवाद और परिणामवाद या विकासवाद के मौलिक भेदों को भी समझ लेना चाहिए। तभी आगे बढ़ना ठीक होगा। आरंभवाद में यही माना जाता है कि परमाणुओं के संयोग या जोड़ से ही पदार्थों के बनने का काम शुरू होता है - आरंभ होता है। वे ही पदार्थों का आरंभ या श्रीगणेश करते हैं। वे इस तरह एक नई चीज तैयार करते हैं जैसे सूत कपड़ा बनाते हैं। जो काम सूतों से नहीं हो सकता है वह तन ढँकने का काम कपड़ा करता है। यही उसका नवीनपन है। मगर परिणामवाद या विकासवाद में तो किसी के जुटने, मिलने या संयुक्त होने का प्रश्न ही नहीं होता। वहाँ पहले से बनी चीज ही दूसरे रूप में परिणत हो जाती है, विकसित हो जाती है। जैसे दूध ही दही के रूप में परिणत हो जाता है। इस मत में तीनों गुण ही सभी भौतिक पदार्थों के रूप में परिणत हो जाते हैं। कैसे हो जाते हैं यह कहना कठिन है, असंभव है। मगर हो जाते हैं यह तो ठोस सत्य है। जब परमाणुओं को निरवयव मानते हैं, तो फिर उनका संयोग होगा भी कैसे? संयोग तो दो पदार्थों के अवयवों का ही होता है न? जब हम हाथ से लोटा पकड़ते हैं तो हाथ के कुछ भाग या अवयव लोटे के कुछ हिस्सों के साथ मिलते हैं। मगर निरवयव चीजें कैसे परस्पर मिलेंगी? इसीलिए आरंभवाद को मानने से इनकार कर दिया गया। क्योंकि इस मत के मानने से दार्शनिक ढंग से पदार्थों का निर्माण सिद्ध किया जा सकना असंभव जँचा।

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