शहर से दूर प्रकति की गोद में छोटी छोटी पहाडियों के बीच एक छोटा सा गांव,
जिसका नाम नवगांव। गांव के अंतिम छोर पर छोटे छोटे मकानों की पंक्तियों के
बाद एक कोठी शहर वालों की कोठी के नाम से मशहूर, जिसके गेट पर द्वारकानाथ
अंकित है। शहर के धनी सेठ द्वारकानाथ ने शहर से दूर नवगाव में आराम के लिए
एक कोठी का निर्माण करीब तीस वर्ष पूर्व किया। जब बच्चे बढे हो गए, व्यापार
संभाल लिया, तब द्वारकानाथ ने अपना निवास नवगांव में कर लिया। आज
द्वारकानाथ नही है, उनके स्वर्गवास को दो साल हो गए, तब से कोठी लगभग वीरान
ही है। द्वारकानाथ के पौत्र सुधीर कभी कभी एक दो दिन के लिए आते थे। कोठी
की देखभाल पुराने नौकर बब्बन करते है। बब्बन वहीं नवगांव के निवासी को नौकर
कहे या केयरटेकर, कुछ भी कह सकते हैं। द्वारकानाथ के स्वर्ग सिधारने के बाद
शायद ही किसी ने नवगांव की कोठी की सुध ली हो।
प्रकृति से प्यार करने वाले ही नवगांव की कोठी की परख कर सकते थे। दो एकड
के क्षेत्रफल में फैली कोठी को सेठ द्वारकानाथ ने बडे लगन, चाव और मेहनत से
बनवाया था। आठ फुट ऊंची दीवारों के ठीक बीचों बीच साधारण किन्तु सभी
सुविधायों से युक्त रहने के लिए चार बेडरूम के साथ बाथरूम, एक बडी बैठक, एक
मेहनानों के लिए कमरे के साथ रसोई। मेन गेट से सीधे कोठी के लिए मोटर का
पक्का रास्ता। कोठी के एक तरफ खूबसूरत बगीचा और दूसरे तरफ खेत में
सब्जियां। चारदीवारी के साथ साथ फलदार वृक्ष। पपीता, केला, जामुन, अमरूद के
वृक्ष फलों से लदे हुए एक अदभुद अनोखी सी छटा प्रदान करते है।
बब्बन को आज कान खुजाने की भी फुरसत नही थी। कोठी की साफ सफाई में पूरी तरफ
व्यस्त। गांव के कुछ नौजवानों को भी काम पर लगा रखा था।
बब्बन मियां थका दिया आपने। मालिक आपके आ रहे है, थका हमें दिया। दोपहर हो
गई। खाना तो खिलाऔ, मियां। अब तो खाना खा कर आराम करेगें। बाकी काम कल
करेगें। सुजाद की यह बात सुन कर बब्बन भडक गया। कल के छोकरे दो मिन्टों में
थक जाते हैं। कामचोर हो। जरा सा काम बता दो, बहाने निकालते हैं। ठेर सारा
काम क्या तुम्हारा बाप करेगा। बब्बन गुर्राया।
बब्बन का बात पर सुजाद ने भी फिकरा कस दिया - बाप से ही करा लो। मैं तो
चला। कह कर सुजाद उठा और आवाज लगाई, चलो शमशाद, कबीर और मुस्तफा, चलो।
बब्बन मियां सठिया गए है। भोजन करने नही दे रहे है। भूखे पेट भजन नही
गौपाला। मियां बब्बन अपने आप कर लेगें।
सबको उठता देख बब्बन थोडा नरम हुएष सुजाद का हाथ पकड कर बोले – बच्चे के
बच्चे रहोगे। बडे कभी मत बनना। काम को क्या कह दिया, रोटी याद आ गई। खुदा
गवाह है। बब्बन ने कभी किसी को भूखा नही रखा है। अगर हिसाब लू तो रोटी भूल
जाऔगे। पेडों से कितने अमरूद, पपीते, केले और जामुन तोड तोड कर खाए हैं।
सुजाद कौन सा कम था। बब्बन पर रौब डालने लगा – मियां बब्बन, तोते चोंच मार
कर खराब कर दे, वो अच्छा, हमने दो, चार क्या तोड लिए। हिसाब करने लगे।
सुजाद को गर्म देख बब्बन ने कहा – आधे घंटे की मोहलत दे दे, सुजाद, खाना
यहीं बन रहा है। चलो आधा घंटा आराम और फिर खाना गरमा गरम। लेकिन याद रहे,
काम आज ही खत्म करना है। कल की बात नही सुनुगा।
पूरी रात लगा देगें, मियां बब्बन लेकिन एक शर्त है, रात को एक एक पउआ मिलना
चाहिए। सुजाद ने बब्बन के कान में कहा।
तौबा तौबा, कल के पैदा हुए लौंडे बाप समान बब्बन से पउआ मांगते है। अपने
बाप से मांग जाकर। बब्बन ने एक लात सुजाद को लगाई।
सुजाद थोडा नरम हो गया – बाप की उम्र के हो, इसलिए छोड देता हूं, लेकिन पउआ
लूगां जरूर।
तौबा तौबा। लौंडे बिना पउए के मानेगें नही – बब्बन ने एक लात सुजाद को और
लगा दी।
कितनी लातों के बाद पउआ दोगे – कह कर सुजाद टांगे पसर कर वही लंबा लोट गया।
कुछ मिन्टों बाद बब्बन ने आवाज लगाई – उठ सुजाद और अपने लौडों को भी कह,
खाना खा ले।
खाना तो खाना ही है, पहले पउए का पक्का कहो – लेटे लेटे ही सुजाद बोला।
भूत छोडे, पिशाच छोडे, मगर बिना पउए के तू ना छोडेगा। तौबा, तौबा – कानों
को हाथ लगा कर बब्बन ने कहा, ले लेना पउए के पैसे।
यह सुन बिजली की तेजी जैसी फुर्ती सुजाद के बदन में आई और आवाज लगाई – उठो
लौडों, खाना खा कर कमर कस लो, काम शाम से पहले पूरा नही किया, तो खाल में
भूसा भरवा दूंगा।
खाना खाने के बाद सभी काम पर जुट गए। शाम तक कोठी की सारी सफाई कर दी। दो
साल बाद कोठी चमकने लगी। जाने से पहले सुजाद ने बब्बन को पकड लिया – पउए के
पैसे।
बाप से भी पैसे मांगते हो पउए के – बब्बन पैसे देते हुए बोला।
बाप भी तो रोज पीता है। शर्म कैसी। बेटे जवान हो जाते है, तो बाप के साथ
बैठ कर पीते हैं। - सुजाद की यह बात सुन कर बब्बन बडबडाने लगा – यह सब
फिल्मों की सोहबत है। बिगाड दिया है, फिल्मों के साथ टीवी सीरियलों ने।
बडबडाते बब्बन से सुजाद ने चुटकी ली – कुछ कहा क्या।
तौबा, मेरे बाप की तौबा, कि बरखुरदार आप से कुछ कह दूं। मैं तो सोच रहा था,
कि कल क्या करना है। - बब्बन ने बात पलटी।
मन ही मन सुजाद ने कहा – साला बुड्ढा, कुडता है हमारे से। काम करवाना है,
तो हमारी माननी पडेगी।
अगले तीन चार दिनों तक जी जां एक कर बब्बन के नेतृत्व में सभी ने कोठी को
चमका दिया। दो वर्ष तक धूल चाटती कोठी आज बोलने लगी – मुझे साफ सुधरा रखो,
मुझसे बात करो, मैं चार दीवार नही हूं, आपका सदस्य हूं। आपका अंग हूं। आपके
संग हूं। नवगांव के सभी बाशिन्दे कोठी को आकर देख रहे थे, जैसी वह किसी शहर
की इतिहास से जुडी पुरानी इमारत हो। नवगांव के लिए तो यह किसी किले से कम
नही। सभी जुबां पर यही बात थी, कि कोठी में मालिक रहने आ रहे है, यह नवगांव
के लिए शुभ खबर है। पहले जब भी सेठ द्वारकानाथ रहते थे, नवगांव की भलाई,
तरक्की के लिए कुछ न कुछ करते रहते थे। शहर में बडे अफसरों से मिलते थे।
ट्यूबवैल लगवा दिए। सडके बनवा दी। बिजली का काम भी करवाया, यह और बात है,
कि चाहे दो घंटे आए। नवगांव का हर नागरिक कोठी में रहने के लिए आने वालों
का बेसबरी के साथ स्वागत करने को तैयार था।
मनमोहन भाटिया