रिश्ते एक ऐसा शब्द है, जिस की व्याख्या कोई नही कर सकता है। पल पल इसकी परिभाषा बदलती रहती है। अपनी सहूलियत के अनुसार रिश्ते का एक नया अर्थ र्निर्मित करने में किसी से कोई नही चूक होती है। आज रिश्ते का जो मतलब है, कल बदल जाता है। वैसे देखा जाए तो रिश्ते बिना पैसों के कोई अर्थ नही रखते है। अमीर और गरीब का कोई रिश्ता नही होता। दो भाईयों तक का कोई रिश्ता नही रहता। रहता है तो सिर्फ रूपयों का रिश्ता। क्या ताकत है, रुपयों में, सुनील जानता तो था, लेकिन रिश्ते रूपयों के तराजू में तुलते है, इसका एहसास पुलिस थाने जाकर हुआ।
सुबह का समय था। ऑफिस जाने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। डाईनिंग टेबुल पर नाश्ते का इंतजार सुबह का अखबार पढ कर हो रहा था। पत्नी शर्मिला रसोई में नाश्ते के साथ ऑफिस ले जाने का लंच का टिफिन भी पैक करने में व्यस्त थी। मध्यवर्गीय परिवार की तो स्टीड टेबुल और डाईनिंग टेबुल एक ही होती है। शुक्र है कि कुछ समय पहले डाईनिंग टेबुल खरीदी, वरना बेड पर ही नाश्ता, खाना, सोना सब कुछ होता था।
"अखबार बंद करो, नाश्ता तैयार है।" शर्मिला ने रसोई से आवाज दी और ट्रै में नाश्ता सजा कर ले आई। ब्रेड बटर के साथ आलू के चिप्स देखकर सुनील चहक उठा, "आज तो एकदम होटल वाला नाश्ता बना दिया। मजा आ गया।"
"आलू गोबी या फिर मूली के पराठे, पंजाबी लोग इससे अधिक कुछ सोच नही सकते। कुछ अलग सा कुछ डिफरेन्ट सा नाश्ता हो तो मजा ही अलग सा आता है। एकदम नया टेस्ट।" शर्मिला ने एक नाटकीय ढंग से मुसकुराते हुए कहा।
नाश्ता करके सुनील ने स्कूटर की चाबी उठाई और शर्मिला को गुडबाई कहा।
"गुडबाई, मेरी मानों तो खटारा स्कूटर बेच कर नई बाईक ले लो। बाईक के जमाने में तुम किस सदी का स्कूटर चला रहे हो।"
"स्कूटर के साथ इस घर में कई चीजे पुरानी हैं, किस किस को बदलू।"
"तुमहारा मतलब सब समझ रही हूं, फिर बात करेगें, वरना कहोगे कि ऑफिस की देर हो गई।"
इससे पहले सुनील कुछ कहता, डोरबैल बजी। जैसे ही सुनील ने दरवाजा खोला, सामने पुलिस के सिपाही को देखकर भौचच्का रह गया। सुनील के कुछ कहने से पहले ही सिपाही ने प्रश्न किया "क्या सुनील आपका नाम है?"
"हां, कहिए क्या काम है।"
"आपको खिलाफ कंम्पलेंट है। थाने चलना है।"
पुलिस को देख कर शर्मिला भी भौचच्की रह गई। वो भी कुछ नही बोल सकी। दोनों ने सपने में भी नही सोचा था कि कोई उनके खिलाफ थाने में कंम्पलेंट कर सकता है। गला साफ करते हुए सुनील बडी मुशकिल से पूछ सका। "मेरी तो किसी से दुश्मनी भी नही है। कंम्पलेंट किसने की है।"
अब सिपाही ने हरियाणवनी अंदाज में कहा "घबडा न सुनीण, दुश्मणी न है तदी तो कंम्पलेंट हुई है। शरीफ आदमियां को कोई न जीणे दे। घबडा न।" सिपाही की बाते सुनील को समझ नही आई। शर्मिला भी टुकुर टुकुर देखती सुनती रही। सुनील के खिलाफ कंम्पलेंट गले के नीचे नही उतर रही थी।
"टैम न खडाब कर। मैंणें घणें सारे काम हैं। जल्दी कर।" सिपाही की बात सुन कर हिम्मत जुटा कर फुसफुसाया "चलिए।" सुनील के मुख से इतना सुन कर शर्मिला बोली "अकेले नही जाने दूंगी। मैं भी चलती हूं। पता नही क्या हो जाए, थाने में।" कह कर फटाफट चप्पल पैरों में डाली और तन पर पडे कपडों की सुध के बिना ही सुनील के पीछे सीडियां उतरने लगी। रसोई में रात की नाईटी के ऊपर एप्रेन पहन कर काम कर रही थी, उन्ही कपडों में बदहवाश पुलिस की जीप में सुनील के साथ बैठ गई। सुनील ने भी शर्मिला के हुलिए पर कोई ध्यान नही दिया। वह इस सोच में डूबा था, कि उसने कौन सा गुनाह कर दिया कि पुलिस थाने में पेशी हो रही है। थाने का नाम कर तो अच्छो अच्छो के पसीने छूट जाते है तो सुनील ठहरा एक आम आदमी, जो सुबह ऑफिस निकल जाता है, शाम को घर आकर अपने बीवी बच्चों के साथ तक ही जीवन सीमित है। अडोस पडोस में क्या हो रहा है, कोई सरोकार नही, उसके थाने के नाम पर होश ही गुम हो चुके थे। थाना घर के पास ही था, पुलिस जीप में मुश्किल से दो मिन्ट लगे होंगे, लेकिन ऐसा लग रहा था कि दो साल से पुलिस जीप में बैठा है और थाना है कि आने का नाम ही नही ले रहा है। थाने पहुंच कर चुपचाप एक मुजरिम की तरह हाथों को बांध कर सिपाही के पीछे पीछे चलने लगा। थानाध्यक्ष के सामने डाक्टर सुभाष को देखकर सुनील एकदम आश्चर्यचकित हो गया। वह कुछ सोच सकता, उससे पहले थानाध्यक्ष के चेहरे के हावभाव शर्मिला का हुलिया देखकर आश्चर्यविभोर हो गए। उसकी जबान भी थोडा सा लडखडाई
"आप कौन।"
"मेरी पत्नी।" सुनील ने कहा।
"बैठिए" थानाध्यक्ष ने कुर्सियों की तरफ इशारा करके कहा।
कुर्सी पर बैठ कर शर्मिला ने आंखें थोडी ऊपर की और सामने डाक्टर सुभाष को देख कर दंग रह गई। दोनें हाथ जोड कर प्रणाम किया। "नमस्ते भाई साहब।"
डाक्टर सुभाष ने प्रणाम का कोई जवाब नही दिया। वह टस से मस नही हुआ। उसने शर्मिला के अभिनंदन को अनदेखा कर दिया। थानाध्यक्ष की अनुभवी आंखे बहुत कुछ बातों की गहराई में पहुंच कर जांच पडताल कर चुकी थी।
"क्या आप डाक्टर साहब को जानते हैं।" थानाध्यक्ष के इस प्रश्न पर सुनील ने कहा "जी हां डाक्टर साहब मेरे बडे भाई हैं। हम एक ही घर में रहते हैं।"
इतना सुन कर थानाध्यक्ष ने डाक्टर सुभाष से कहा "डाक्टर साहब अब आप जाईए। आपकी समस्या का समाधान हो जाएगा। आप चिन्ता न करे।" यह सुन कर डाक्टर सुभाष ने प्रस्थान किया। डाक्टर सुभाष के जाने के बाद थानाध्यक्ष ने सुनील और शर्मिला की तरफ देख कर कहा "आप नर्वस लग रहै हैं। थोडा पानी पीजिए। नार्मल अपने को कीजिए। फिर बात करते है।"
पानी पीकर सुनील ने पूछा "मेरा क्या कसूर है, जो आपने मुझे यहां बुलाया। मैनें तो कुछ नही किया है।"
"घबराऔ मत, पहले मुझे यह समझने दो, कि आपका और डाक्टर सुभाष का रिश्ता क्या है, क्या आपका कोई झगडा हुआ है?"
सुनील ने थानाध्यक्ष को समझाना शुरू किया "मैं और डाक्टर सुभाष ताऊ, चाचा के लडके हैं। हमारी उम्र में दो साल का फर्क है। डाक्टर सुभाष मेरे से दो साल बडे है। हमारा दो मंजिल का मकान है। नीचे के तल में ताऊ जी और ऊपर की मंजिल में हम रहते हैं। डाक्टर साहब अपना क्लिनिक चलाते है। पहले तो रहते भी यही थे, लेकिन अब अलग मकान बना लिया है, सुबह शाम को क्लिनिक आते हैं। हम दोनों एक ही स्कूल में पढते थे। बचपन में एक साथ खेलना, स्कूल जाना, पढना। सुभाष के डाक्टर बनने के बाद हम सब डाक्टर सुभाष ही कहते हैं। बिना डाक्टर लगाए सुभाष नही बोलते हैं। डाक्टर साहब की प्रैक्टिस अच्छी चलती है और दो जाने माने हास्पीटल में विजिट भी करते हैं। अच्छा पैसा और नाम बनाया है। मैं तो नौकरी करता हूं। थोडा पढने में मन नही लगता था, ज्यादा पढ नही सका। डाक्टर साहब का नाम अब शहर के नामी डाक्टरों में होता है, थोडा मिलना जुलना कम हो गया है। स्टेटस का अंतर आ गया है।" कह कर सुनील चुप हो गया।
"कोई आपका खटारा स्कूटर भी है?"
"स्कूटर पुराना जरूर है, लेकिन खटारा नही है। एकदम फसक्लास चलता है।"
"कहां खडा करतो हो स्कूटर को?"
"नीचे मकान की दीवार के साथ खडा करता हूं।"
"जहां आप स्कूटर खडा करतो हो, वहां से हटा कर पीछे सर्विस लेन में खडा कर लिया करो।"
"लेकिन क्यों?"
"डाक्टर साहब की शिकायत है कि आपका स्कूटर उनके क्लिनिक के गेट पर खडा रहता है, जिससे मराजों का रास्ता रूकता है।"
"सरासर झूठ है, मेंने आज तक क्लिनिक का रास्ता नही रोका। गेट छोड कर दीवार के साथ सटा कर स्कूटर रखता हूं। आप खुद चल कर देख सकते है। मेरा स्कूटर कहां खडा होता है। अभी ऑफिस जाने के लिए निकाला भी नही है। अगर मेरे स्कूटर से क्लिनिक का रास्ता जरा सा भी रूके, आप जो सजा कहे, मैं कबूल करूंगा।" कहते हुए सुनील उत्तेजित हो गया और मेज पर एक जोरदार मुक्का मार कर कुर्सी छोड कर उठ गया।
"इतनी उत्तेजना सेहत के लिए अच्छी नही है। शान्त होकर कुर्सी पर बैठो।" थानाध्यक्ष ने इशारा करके सुनील को बैठने को कहा। सुनील बैठ गया। उसकी आंखे नम हो गई। ऐसा लगने लगा कि शायद वह रो पडेगा।
"स्कूटर को थोडा पीछे खडा करने से आपको कोई फर्क नही पडेगा और समस्या हल हो जाएगी।"
"समस्या मैं समझ गया, बात स्कूटर की नही, बल्कि ईगो की है। डाक्टर साहब का स्टेटस अब मेरे से कहीं अधिक हो गया है। उनका उठना बैठना बडे लोगों में है। शहर के नामी गरामी लोग उनके मरीज है। नेता, अभिनेता भी डाक्टर साहब से इलाज करवाने आते हैं। एक से एक बडी गाडी, उनके सामने भाई का पुराना स्कूटर कोई माएने नही रखता। वो भूल गये हैं कि इसी स्कूटर पर शादी से पहले भाभी जी से मिलने जाते थे। पिछली सीट पर भाभीजी चिपकी हुई बैठती थी। इंडियागेट और पुरानेकिला भी डाक्टर साहब की प्रेम कहानी के गवाह है और आज वोही प्रेम का प्रतीक स्कूटर आंखों में खटक रहा है।" कहते कहते सुनील भावुक हो गया।
"ठीक है सुनील जी, में आपके साथ थाने से एक आदमी भेजता हूं, वो स्कूटर की जगह देख कर मामला शांति पूर्वक सुलझा देगा।" सुनील शर्मिला पुलिस जीप में घर वापिस आ गए। स्कूटर घर की दीवार के साथ सटा हुआ खडा था, क्लिनिक के गेट से थोडा सा हट कर। स्कूटर की पार्किंग की जगह देखकर सिपाही ने सुनील को कुछ नही कहा। वह डाक्टर सुभाष से क्या बातें कर रहा था, सुनील ने नही सुनी। वह चुपचाप सीडीयां चढ कर ऊपर चला गया। ऑफिस फोन कर के छुट्टी मांगी और बिस्तर पर लेट गया। शरीर शिथिल हो गया था, मन शून्य। छत पर हिलते हुए पंखे को एक टक देखते हुए सुनील अतीत में पहुंच गया। डाक्टर सुभाष उससे दो साल बडा और दो क्लास आगे। एक ही स्कूल में पढते थे। एक साथ स्कूल आना, जाना। एक ही टिफिन में मध्यानंतर के समय खाना खाना। एक साथ खेलना। डाक्टर सुभाष को कंचे खेलना का बहुत शौंक था। संयुक्त परिवार में छोटे बच्चे बडे बच्चों से सब कुछ सीखते हैं। सुनील ने भी कंचे खेलना सुभाष से सीखा। मकान की छत पर एक लकडी के बक्से में कंचे रखे होते थे। स्कूल से आने के बाद मां ताई की नजर बचा कर सुनील और सुभाष छत पर चढ कर कंचे खेलते थे। मौसम कोई भी हो, कंचों का खेल नियम नही टूटता था। साथ ही नही टूटता था, मां और ताई से पिटाई का सिलसिला। कस कर बेलनों से पिटाई होती थी। कई टूटे हुए बेलन गवाही को तैयार होगें। पता नही कहां होगें वो बेलन। हां यादगार क लिए कुछ कंचे आज भी सुनील ने संभाल कर रखे हुए है। दिल करता है वो भी अपने बच्चों को कंचा खेलना सिखाए, लेकिन शर्मिला रोक देती थी कि अब कंचे नही क्रिकेट का जमाना है। बच्चों को क्रिकेट सिखाऔ। पुराने जमाने के खेल कोई नहीं खेलता। कंचों के साथ खेलना और फिर बेलनों के साथ पिटाई याद आते ही सुनील के होथों पर मुसकान दौड आई।
शर्मिला का चित भी अशान्त था। सुनील के होथों पर हल्की सी मुसकान देख कर पूछा "क्या सोच रहे हो।"
"बस बचपन की बातें याद आ गई। वो भी क्या दिन थे। तेरा मेरा कुछ भी नही था। बस हम दोनों भाई थे। साथ साथ कंचे खेलना, फिर बेलनों से पिटाई, लेकिन कंचे खेलना नही छोडा। और आज सुभाष एक सफल मशहूर डाक्टर बन गया तो मेरा स्कूटर उसकी प्रतिष्ठा को कम कर रहा है।"
"छोडो भी इन बेकार की बातों को। क्यों मन अशान्त करते हो। कुछ भी हासिल नही होगा। क्या फायदे। सोचने से मिलेगी सिर्फ ब्लडप्रेशर की बीमारी।"
"बात इतनी बढ जाएगी, सोचा नही था। तुझसे बात नही हुई। पिछले महीने जब तू माएके गई थी, तब एक दिन ऑफिस जाने के समय मैं स्कूटर स्टार्ट कर रहा था। डाक्टर साहब कार से उतरे और कहने लगे, सुनील तेरा खटारा स्कूटर यहां नही खडा होगा, पिछली लेन में खडा कर। मैं अचानक डाक्टर सुभाष के मुख से यह बात सुन कर अवाक रह गया था। उस दिन बात काफी गरम हो गई थी। तू तू मैं मैं भी हो गई थी। मेंनें कभी क्लिनिक का रास्ता नही रोका। दीवार के साथ सटा कर पिछले तेरह साल से खडा कर रहा हूं। उस दिन तेरह सेकेन्ड में फरमान सुना दिया कि उनका स्टेटस खराब होता है कि क्लिनिक के गेट पर खटारा स्कूटर खडा हो। कभी सपने में भी नही सोचा था कि डाक्टर सुभाष इस बात पर थाने चले जाएगें। बडे आदमियों के साथ उठना बैठना है, पुलिस में भी दोस्ती है। इसलिए थानेदार ने इस बात पर थाने में हाजिरी लगवा ली।"
"क्यों दिल छोटा करते हो। आखिर पुलिस भी मामला समझ गई, आपको तो कुछ नही कहा। क्या मिला डाक्टर साहब को। खुद को नीचा कर लिया आज हमारे सामने।" शर्मिला ने सुनील का हाथ आपने हाथों में लेकर प्यार से हाथों को मलते हुए कहा।
"तुमहे याद है शर्मिला हमारी शादी पहले हुई थी, क्योंकि डाक्टर साहब की प्रेक्टिस शुरू में थीली चल रही थी, उनकी बाद में हुई थी। भाभीजी से मिलने जाते थे, हमारा यही स्कूटर लेकर। हम अपना प्रोग्राम बदल लेते थे, ऑटो में या बस में सफर करते थे, लेकिन डाक्टर सुभाष को कभी स्कूटर के लिए मना नही किया। आज वो अपनी प्रेम की निशानी को रूपयों के पलडे में तोल रहे हैं। क्या आदमी इतना बदल जाता है, रूपये और शोहरत पाने के बाद।" कहते कहते सुनील भावुक हो गया और आंखों नम हो गई।
सुनील की नम आंखें देख कर शर्मिला स्टोर में गई और उस बक्से को लाकर सुनील के हाथों में रक्खा, जो उसके बचपन की यादे थी। बक्से में कुछ कंचे संभाल कर अभी भी रखे हुए थे। सुनील कभी कभी उनकों देख कर बचपन याद करता था, आज शर्मिला ने सुनील को सामान्य करने के लिए कंचों का बक्सा निकाला। आदमी कितन भी बडा हो जाए, कभी न कभी बचपन याद आ ही जाता है। वो यादे ही उसे समान्य करती हैं, वरना ईर्षा ही मार जाती है। थोडा सामान्य हो कर सुनील खिडकी के पास कुर्सी पर बैठ कर सडक पर आते जाते लोगों और वाहनों को देखता रहा।
"शर्मिला, देखो अंकुश की स्कूल बस आ गई।" कह कर एक छोटे बच्चे की तरह कूदता फांदता सुनील सीडीयां उतर कर अपने लडके अंकुश को लेने स्टाप तक गया। बाप बेटे को बतियाते देख कर शर्मिला भी सब भूल गई। मां के हाथों में बक्सा देख कर अंकुश ने पूछा "इसमें क्या है।"
"बक्सा खोल कर अंकुश से कहा "खुद देखों।"
"अरे यह तो कंचों का बक्सा है।" दो कंचे हाथ में लेकर अंकुश ने कहा।
"आज पापा आपको कंचे खेलना सिखाएगें।" शर्मिला ले एक प्यार भरी मुसकान के साथ कहा।
"सच पापा।"
बच्चे की खुशी देख कर सुनील सोचने लगा, काश तमाम उम्र हम बच्चे ही रहते। "हां बेटे, खाना खा लो, फिर मैं तुमहे कंचे खेलना सिखाऊंगा।"

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