दोस्त ग़मख्वारी में मेरी सअ़ई[1] फ़रमायेंगे क्या
ज़ख़्म के भरने तलक नाख़ुन न बढ़ आयेंगे क्या
बे-नियाज़ी[2] हद से गुज़री, बन्दा-परवर[3] कब तलक
हम कहेंगे हाल-ए-दिल और आप फ़रमायेंगे, 'क्या?'
हज़रत-ए-नासेह[4] गर आएं, दीदा-ओ-दिल फ़र्श-ए-राह[5]
कोई मुझ को ये तो समझा दो कि समझायेंगे क्या
आज वां तेग़ो-कफ़न[6] बांधे हुए जाता हूँ मैं
उज़्र[7] मेरा क़त्ल करने में वो अब लायेंगे क्या
गर किया नासेह[8] ने हम को क़ैद अच्छा! यूं सही
ये जुनून-ए-इश्क़ के अन्दाज़ छुट जायेंगे क्या
ख़ाना-ज़ाद-ए-ज़ुल्फ़[9] हैं, ज़ंजीर से भागेंगे क्यों
हैं गिरफ़्तार-ए-वफ़ा, ज़िन्दां[10] से घबरायेंगे क्या
है अब इस माअ़मूरा[11] में, क़हते-ग़मे-उल्फ़त[12] 'असद'
हमने ये माना कि दिल्ली में रहें, खायेंगे क्या
शब्दार्थ: