रहा बला में भी मुब्तिलाए-आफ़ते-रशक
बला-ए जां है अदा तेरी इक जहां के लिये
फ़लक न दूर रख उस से मुझे कि मैं ही नहीं
दराज़-दसती-ए-क़ातिल[1] के इम्तिहां के लिये
मिसाल यह मिरी कोशिश की है कि मुरग़-ए-असीर[2]
करे क़फ़स में फ़राहम[3] ख़स आशियां के लिये
गदा समझ के वह चुप था, मेरी जो शामत आए
उठा, और उठ के क़दम मैंने पासबां[4] के लिये
ब क़दर-ए-शौक़ नहीं ज़रफ़-ए-तंगना-ए-ग़ज़ल[5]
कुछ और चाहिये वुस`अत[6] मेरे बयां के लिये
ज़बां पे बार-ए-ख़ुदाया[7] यह किस का नाम आया
कि मेरे नुत्क़[8] ने बोसे मेरी ज़बां के लिये
ज़माना `अहद में उस के है महव-ए-आराइश[9]
बनेंगे और सितारे अब आसमां के लिये
वरक़ तमाम हुआ और मदह[10] बाक़ी है
सफ़ीना[11] चाहिये इस बहर-ए-बे-करां[12] के लिये
अदा-ए-ख़ास से 'ग़ालिब' हुआ है नुक्ता-सरा
सला-ए `आम[13] है यारान-ए-नुक़्ता-दां[14] के लिये