इशरत-ए-क़तरा[1] है दरिया में फ़ना[2] हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
तुझसे क़िस्मत में मेरी सूरत-ए-कुफ़्ल-ए-अबजद[3]
था लिखा बात के बनते ही जुदा हो जाना
दिल हुआ कशमकशे-चारा-ए-ज़हमत[4] में तमाम
मिट गया घिसने में इस उक़्दे[5] का वा हो जाना[6]
अब ज़फ़ा से भी हैं महरूम[7] हम, अल्लाह-अल्लाह!
इस क़दर दुश्मन-ए-अरबाब-ए-वफ़ा[8] हो जाना
ज़ोफ़[9] से गिरियां[10] मुबदृल[11] व-दमे-सर्द[12] हुआ
बावर[13] आया हमें पानी का हवा हो जाना
दिल से मिटना तेरी अन्गुश्ते-हिनाई[14] का ख्याल
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना
है मुझे अब्र-ए-बहारी[15] का बरस कर खुलना
रोते-रोते ग़म-ए-फ़ुरकत में फ़ना हो जाना
गर नहीं नकहत-ए-गुल[16] को तेरे कूचे की हवस
क्यों है गर्द-ए-रह-ए-जौलाने-सबा[17] हो जाना
ताकि मुझ पर खुले ऐजाज़े-हवाए-सैक़ल[18]
देख बरसात में सब्ज़ आईने का हो जाना
बख्शे है जलवा-ए-गुल ज़ौक[19]-ए-तमाशा, गालिब
चश्म[20] को चाहिए हर रंग में वा[21] हो जाना