अर्ज़-ए-नियाज़-ए-इश्क़[1] के क़ाबिल नहीं रहा
जिस दिल पे नाज़ था मुझे, वो दिल नहीं रहा
जाता हूँ दाग़-ए-हसरत-ए-हस्ती[2] लिये हुए
हूँ शमआ़-ए-कुश्ता[3] दरख़ुर-ए-महफ़िल[4] नहीं रहा
मरने की ऐ दिल और ही तदबीर कर कि मैं
शायाने-दस्त-ओ-खंजर-ए-कातिल[5] नहीं रहा
बर-रू-ए-शश जिहत[6] दर-ए-आईनाबाज़ है
यां इम्तियाज़-ए-नाकिस-ओ-क़ामिल[7] नहीं रहा
वा[8] कर दिये हैं शौक़ ने बन्द-ए-नक़ाब-ए-हुस्न[9]
ग़ैर अज़ निगाह अब कोई हाइल नहीं रहा
गो मैं रहा रहीन-ए-सितम-हाए-रोज़गार[10]
लेकिन तेरे ख़याल से ग़ाफ़िल[11] नहीं रहा
दिल से हवा-ए-किश्त-ए-वफ़ा[12] मिट गया कि वां
हासिल सिवाये हसरत-ए-हासिल नहीं रहा
बेदाद-ए-इश्क़[13] से नहीं डरता मगर 'असद'
जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा
शब्दार्थ:
- ↑ प्रेम की आकांक्षा की अभिव्यक्ति
- ↑ जीवन की अभिलाषाओं का दाग
- ↑ बुझा हुआ दीपक
- ↑ महफिल के योग्य
- ↑ कातिल के हाथों और भुजाओं के द्वारा वध किया जा सकने वाला
- ↑ धरती और आकाश के मुख पर
- ↑ पूर्ण तथा अपूर्ण का भेद
- ↑ खोल दिए हैं
- ↑ सौंदर्य के आवरण के बंधन
- ↑ दुनिया के अत्याचार का शिकार
- ↑ अनजान
- ↑ प्रेम को निभाने की खेती की कामना
- ↑ प्रेम का अत्याचार